योग आपको शारारिक और भौतिक अस्तित्व से ऊपर उठाकर मानव की उच्चतम क्षमता की ओर ले जाता है। और योग द्वारा जो भी कुछ मनुष्य को मिलता है, वो अधिकतर समाज को देने में ही विश्वास करता है। गौतम बुद्ध ने जो ज्ञान प्राप्त किया वो उन्होंने समाज के बीच रखा, ठाकुर रामकृष्ण परमहंस अपने शिष्यों को कभी व्यक्तिगत सिद्धि की शिक्षा नहीं देते थे, बल्कि जो योग और साधना से मिला वह समाज को सेवा के माध्यम से देना है, यही विचार देते थे।
प्राचीन भारत में जन्मा योग आज विश्व के कोने-कोने तक पहुंच चुका है। लेकिन यह तो रसगुल्ले के स्वाद की तरह है कि जिसने खाया है वही उसके बारे में बता और समझा सकता है, बाकी तो उसके बाहरी रूप-रंग से ही उसके स्वाद का अनुमान लगा सकते हैं।
भारत में परंपरा के रूप में योग की एक लंबी सांस्कृतिक विरासत रही है। पशुपति मुहर जिसे लगभग 2350-2000 ईसा पूर्व, सिंधु घाटी सभ्यता के पुरातत्व स्थल मोहनजो-दारो में खोजा गया था, “एक योगी की बैठी हुई मुद्रा दर्शाता है।”
मुहर पर “पशुपति” को दिया गया नाम रुद्र, वैदिक देवता के साथ जोड़ा गया है, जिसे आमतौर पर शिव का प्रारंभिक रूप माना जाता है। योग विद्या में शिव को “आदि योगी” माना जाता है। वैदिक काल में भी यह परम्परा शिक्षा के माध्यम से दी जाती थी। भगवद्गीता में श्रीकृष्ण योग के विभिन्न आयामों के बारे में बताते हैं। उदहारणतः ‘योग:कर्मसु कौशलम् – (2.50) कर्म में कुशलता ही योग है”।
लेकिन हमारा हर कर्म समाज के लिए लाभकारी हो, यह भी हमे ही सुनिश्चित करना है। भगवान् बुद्ध और महावीर ने भी इसको परखा और ज्ञान अर्जित किया। लगभग 140 से 150 ईसा पूर्व में जन्मे ऋषि पतंजलि ‘’अष्टाङ्ग योग’’ के माध्यम से योग को जन साधारण की समझ के लिए जीवन जीने की पद्धति से जोड़ देते हैं।
अगर सबसे पहले भारत के बाहर प्रमुखता से योग के विषय को विश्व के सामने किसीने रखा था, तो वो थे उन्नीसवीं सदी के महान योगी स्वामी विवेकानंद जिन्होंने विश्व को योग से रूबरू करवाया। 11 सितम्बर, 1893 को स्वामी विवेकानंद विश्व धर्म संसद के अपने ऐतिहासिक भाषण में भारतीय संस्कृति और सभ्यता को विश्व पटल पर रखते हैं।
विश्व धर्म संसद के पश्चात स्वामीजी ने अपनी तूफानी यात्रा शुरू कर दी थी। पश्चिम के अपने पहले प्रवास (1893-1897) के दौरान वे योग और वेदांत पर सैकड़ों व्याख्यान देते और कक्षाएं भी लेते हैं तथा योग मुद्राएं भी सिखाते हैं। अपनी अमेरिका यात्रा के दौरान उन्होंने लगभग बारह राज्यों का प्रवास किया – इलिनोइल, मिशिगन, मिनिसोटा, विस्कोनसिन, आइओवा, टेनिसी, न्यूयॉर्क, मैन, मैरीलैण्ड, पेंसिल्वेनिया आदि। अमेरिका के बाद वो इंग्लैंड जाते हैं और फिर वापस भारत आते हैं।
स्वामी विवेकानंद अपने लाहौर प्रवास, जो उस समय भारत का हिस्सा था, के दौरान दिए गए भाषण ‘कॉमन बेसिस ऑफ़ हिन्दुइज्म’ में कहते हैं कि, ‘’प्रत्येक राष्ट्र का लक्ष्य निर्धारित है, संसार को देने के लिए सन्देश है, किसी विशेष संकल्प की पूर्ति करना है”। स्वामी विवेकानंद का यह भी मानना है कि अगर यह सनातन विचार सब तक पहुंचाना है, तो हर भारतीय को ऋषि बनना पड़ेगा।
27 सितम्बर, 2014 को संयुक्त राष्ट्र महासभा में अपने भाषण के दौरान भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने योग के विषय को रखते हुए कहा, “योग भारत की प्राचीन परंपरा का एक अमूल्य उपहार है यह दिमाग और शरीर की एकता का प्रतीक है; मनुष्य और प्रकृति के बीच सामंजस्य है; विचार, संयम और पूर्ति प्रदान करने वाला है तथा स्वास्थ्य और भलाई के लिए एक समग्र दृष्टिकोण को भी प्रदान करने वाला है। यह व्यायाम के बारे में नहीं है, लेकिन अपने भीतर एकता की भावना, दुनिया और प्रकृति की खोज के विषय में है। हमारी बदलती जीवन-शैली में यह चेतना बनकर, हमें जलवायु परिवर्तन से निपटने में मदद कर सकता है। तो आयें एक अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस को गोद लेने की दिशा में काम करते हैं।”
इस भाषण के बाद 11 दिसम्बर, 2014 को संयुक्त राष्ट्र में 177 सदस्य देशों द्वारा 21 जून को “अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस” के रूप में मनाने के प्रस्ताव को मंजूरी दे दी जाती है। तबसे 21 जून को हर वर्ष पूरी दुनिया योग मुद्राएं करती है, लेकिन निगाहें हमेशा भारत पर रहती है, जिसने इस विशेष ज्ञान को उत्पन्न किया है।
गौर करें तो भारत में जीवन को टुकड़ों में नहीं देखा जाता, आध्यात्मिकता ही जीवन का केंद्र है, जीवन का हर पहलू यहाँ आध्यात्मिकता से जुड़ा हुआ है। यह देश ही मूलतः आध्यात्मिक है।
भारत सालों से एक तरह के विस्तार की बात करते आया है। महोपनिषद् का यह श्लोक देखिये – ‘अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम् | उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ||’ अर्थात् यह अपना बन्धु है और यह अपना बन्धु नहीं है, इस तरह की गणना छोटे चित्त वाले लोग करते हैं। उदार हृदय वाले लोगों के लिए तो (सम्पूर्ण) धरती ही परिवार है।
भारत के लिए विस्तार का अर्थ सीमाओं को बढ़ाने वाला विस्तार नहीं है, वो तो आत्मीयता और आध्यात्मिक विस्तार की बात करता है, उसी आध्यात्मिकता के बलबूते पर इतने बड़े भूखंड और इतनी विविधता होने के बावजूद भारत वर्षो से एकता के सूत्र में बंधा हुआ है। यहाँ हर व्यक्ति में आध्यात्मिकता विद्यमान है।
कु. निवेदिता भिड़े दीदी (उपाध्यक्ष विवेकानंद केंद्र, कन्याकुमारी) अपनी पुस्तक ‘योग : एकात्म दर्शन पर आधारित जीवन पद्धति’ में लिखती हैं कि, “भारत का विश्व के लिए सर्वश्रेष्ठ उपहार योग है”। तत्वतः योग यानी तादात्मयता, बुद्धि की आत्मा के साथ, व्यक्ति की परिवार के साथ, परिवार की समाज के साथ, समाज की राष्ट्र के साथ और राष्ट की पूरी सृष्टि के साथ”।
इसबार का योग दिवस भारत ही नहीं, पूरे विश्व के लिए अलग है। पिछले कुछ महीनों से कोरोना महामारी की वजह से दुनिया जहां एक तरफ आर्थिक संकट से गुज़र रही है, वहीं दूसरी तरफ एक बिंदु जो अब ज्यादा प्रखरता से उभर के सामने आ रहा है, वो है मानसिक तनाव की समस्या।
पश्चिमी देशों ने हमेशा से शरीर और व्यक्ति को केंद्र में रखा है। जितना मैं और मेरा जैसे विषयो पर विचार किया जाएगा, मानसिक तनाव मनुष्य को उतना ही अपनी गिरफ्त में लेता जाएगा। मनुष्य का भौतिक और शारीरिक अस्तित्व क्या है पूरी सृष्टि में ? मात्र एक छोटे से अंश हैं हम। इसीलिए इस शरीर से ऊपर आकर मन और मस्तिष्क को संचालन करने के लिए अधिक समय देना पड़ेगा। योग मात्र आसन, प्राणायाम और मुद्राएं ही नहीं, बल्कि योग जीवन जीने की पद्धति है।
योग आपको उसी शारारिक और भौतिक अस्तित्व से ऊपर उठाकर मानव की उच्चतम क्षमता की ओर ले जाता है। और योग द्वारा जो भी कुछ मनुष्य को मिलता है, वो अधिकतर समाज को देने में ही विश्वास करता है। गौतम बुद्ध ने जो ज्ञान प्राप्त किया वो उन्होंने समाज के बीच रखा, ठाकुर रामकृष्ण परमहंस अपने शिष्यों को कभी व्यक्तिगत सिद्धि की शिक्षा नहीं देते थे, बल्कि जो योग और साधना से मिला वह समाज को सेवा के माध्यम से देना है, यही विचार देते थे।
इसीलिए अब भारत के पास मौका है कि कोरोना जैसे महासंकट में अपने प्राचीन ज्ञान योग को सम्यक रूप से जाने, समझे और धारण करे, साथ ही साथ विश्व भी इस विशेष ज्ञान योग के द्वारा मार्गदर्शन करे।
(लेखक विवेकानंद केंद्र के उत्तर प्रान्त के युवा प्रमुख हैं और दिल्ली विश्वविद्यालय से इतिहास में परास्नातक की डिग्री प्राप्त की तथा जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से वैदिक संस्कृति में सीओपी कर रहे हैं। यह उनके निजी विचार हैं।)