अपने 65 वर्षों के सक्रिय राजनीतिक जीवन में 56 वर्ष वाजपेयी विपक्ष में रहे और नौ साल सत्ता में रहे। वे लोकसभा के लिए दस बार निर्वाचित हुए और राज्यसभा के लिए दो बार। वे मोरारजी देसाई मंत्रिमंडल में विदेश मंत्री रहे और बाद में तीन बार प्रधानमंत्री बने। लेकिन चाहे वे विपक्ष में रहे हों या सत्ता में, अटलजी ने आजादी के बाद से ही देश के विकास में मौलिक योगदान दिया। उनके स्वरों में पराजय को भी विजय के ऐसे गगन भेदी विश्वास में बदलने की ताकत थी कि जीतने वाला ही हार मान बैठे। सरकार बनी तो भी, सरकार एक वोट से गिरा दी गयी तो भी, भारत की राजनीति में अटल सर्वथा अटल थे और अटल ही रहेंगे।
“हमारी शुभकामनाएं आप के साथ हैं। हम देश के सेवा कार्य में जुटे रहेंगे। हम संख्या बल के सामने सर झुकाते हैं और आपको विश्वास दिलाते हैं कि जो कार्य हमने अपने हाथों में लिया है, जब तक वो राष्ट्र उद्देश्य पूरा नहीं कर लेते तब तक विश्राम से नहीं बैठेंगे, तब तक आराम से नहीं बैठेंगे। अध्यक्ष महोदय, मैं अपना त्यागपत्र राष्ट्रपति महोदय को देने जा रहा हूं।”
27 मई, 1996 को लोकसभा में ये वाक्य बोलकर प्रधानमंत्री पद से अपना इस्तीफ़ा देने वाले कोई और नहीं बल्कि अटल बिहारी वाजपेयी थे। यह अटल बिहारी वाजपेयी की 13 दिन वाली सरकार थी जो अपेक्षित बहुमत के न होने से गिर गई। भारत की राजनीति में 1996 के बाद का दौर ‘गठबंधन का दौर’ बोला जाता है। इस कालखंड में राजग यानी राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन और संप्रग यानी संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन बना। यानी मिल जुल कर सरकार बनाने का दौर।
1996 के लोकसभा चुनावों में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी ऐतिहासिक प्रदर्शन करते हुए 161 सीटें जीतकर सबसे बड़ी पार्टी बनी। अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बनें। जाहिर है, भाजपा बहुमत से दूर थी लेकिन चूंकि सबसे बड़ी पार्टी भी थी इसलिए तत्कालीन राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा ने सरकार बनाने का न्यौता भाजपा को दिया था।
इसके बाद विपक्षी खेमे में हलचल मचना स्वाभाविक था। विपक्ष ने सवाल किया कि आखिर भाजपा के पास बहुमत नहीं है तो वो सरकार क्यों बना रही है? इसका जवाब अटल बिहारी वाजपेयी ने संसद में भी और सदन के बाहर भी दिया। उन्होंने कहा था कि, “देश की स्थिति को देखकर, संसद में जितने भी दल हैं, उनके स्वरूप का ध्यान कर के, अगर संसद के सदस्य अपने विवेक से इस नतीजे पर पहुंचते हैं कि भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में जनादेश गया है, इन्हें सेवा का एक अवसर देना चाहिए तो फिर हमें लगता है कि अपना बहुमत सिद्ध करने में कठिनाई नहीं होगी।”
सदन में अपना ऐतिहासिक भाषण करते हुए अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था, “जब राष्ट्रपति ने मुझे सरकार बनाने के लिए बुलाया और कहा कि कल आपके मंत्रियों की शपथ-विधि होनी चाहिए, 31 मई तक अपना बहुमत सिद्ध कीजिए तो क्या मैं मैदान छोड़कर चला जाता? मैं पलायन कर जाता? क्या यह सत्य नहीं है कि हम (भाजपा) सबसे बड़े दल के रूप में उभरे हैं?
मैं राष्ट्रपति से ये कहता कि मुझे जरा बात कर लेने दीजिए? जब वे बोल रहे हैं कि कल आप की शपथ विधि होनी चाहिए और मुझे मौका दे रहे हैं बहुमत साबित करने का, तो मैंने तय किया कि जो मुझे समय मिल रहा है उसका मैं सदुपयोग करूंगा। मैं अन्य दलों से चर्चा करूंगा। उनके समर्थन को प्राप्त करने का प्रयास करूंगा। एक कॉमन प्रोग्राम के तहत हम आगे बढ़ सकें, ऐसा माहौल तैयार करूंगा। इसमें क्या आपत्ति थी? इसमें कहां सत्ता का लोभ है? यह अकेले मेरा नहीं बल्कि पार्टी का फैसला था।” वाजपेयी बोल रहे थे और पूरा देश उनको सुन रहा था। अपने भाषण के बाद अटल बिहारी वाजपेयी ने घोषणा कर दी कि वे अपना इस्तीफ़ा राष्ट्रपति को देने जा रहे हैं।
कहा जाता है कि इतिहास खुद को दोहराता है। 13 दिन की सरकार के नेतृत्वकर्ता अटल बिहारी वाजपेयी एक बार फिर से 1998 के लोकसभा चुनावों में भाजपा का नेतृत्व कर रहे थे। इस बार के परिणाम 1996 से अलग थे। इस बार भाजपा को 182 सीटें मिलीं। जहां पिछली बार भाजपा के 4 सहयोगी दल थे, वहीँ इस बार 13 राजनीतिक दल साथ आ चुके थे।
यह अटल बिहारी वाजपेयी का करिश्माई व्यक्तित्व था जिसके चलते उन्होंने 19 मार्च 1998 को दूसरी बार देश के प्रधानमंत्री पद की शपथ ली। हालांकि यह सरकार भी 13 महीने तक ही चली, लेकिन अटल व्यक्तित्व के धनी वाजपेयी ने हार नहीं मानी और 13 अक्टूबर 1999 को तीसरी बार प्रधानमंत्री पद की शपथ ली और पूर्णकालिक सरकार चलाई।
अटल जी के शासन में देश के विकास से लेकर सशक्तिकरण तक महत्वपूर्ण कार्य हुए। देश भर में सड़कों का जाल बिछाने के लिए स्वर्ण चतुर्भुज योजना लाई गयी तो वहीं लम्बे समय से राजनीतिक इच्छाशक्ति के अभाव में रुका परमाणु परीक्षण कर भारत की ताकत से विश्व को परिचित कराने का काम भी हुआ। इसके बाद लगे वैश्विक प्रतिबंधों का भी अटल जी ने दृढ़ता से सामना किया और भारत की अर्थव्यवस्था पर इसका कोई दुष्प्रभाव नहीं पड़ने दिया। पाकिस्तान ने हमला किया तो उसे मुंहतोड़ जवाब देने का काम भी किया गया।
गौर करें तो अपने 65 वर्षों के सक्रिय राजनीतिक जीवन में 56 वर्ष वाजपेयी विपक्ष में रहे और नौ साल सत्ता में रहे। वे लोकसभा के लिए दस बार निर्वाचित हुए और राज्यसभा के लिए दो बार। वे मोरारजी देसाई मंत्रिमंडल में विदेश मंत्री रहे और बाद में तीन बार प्रधानमंत्री बने। लेकिन चाहे वे विपक्ष में रहे हों या सत्ता में, अटलजी ने आजादी के बाद से ही देश के विकास में मौलिक योगदान दिया।
उनके स्वरों में पराजय को भी विजय के ऐसे गगन भेदी विश्वास में बदलने की ताकत थी कि जीतने वाला ही हार मान बैठे। सरकार बनी तो भी, सरकार एक वोट से गिरा दी गयी तो भी, भारत की राजनीति में अटल सर्वथा अटल थे और अटल ही रहेंगे।