मुस्लिम समाज के यथार्थ को बेपर्दा करते अपने उपन्यास “आधा गाँव” में राही मासूम रज़ा एक जगह लिखते हैं, ‘मर्द हैं तो ताक-झांक भी करेंगे, रखनियां भी रखेंगे।’ इन पंक्तियों के मर्म को जरा समझिए। रज़ा एक तरह से कह रहे हैं कि मुस्लिम समाज का मर्द कुछ भी करे उसे सब माफ है। मुसलमान औरत एक बार में तीन तलाक बोलने वाले अपने पति के जुल्मों-सितम से सदियों से जूझ रही है।अच्छी बात ये है कि अब इस देश की मुस्लिम औरतें भी जाग उठी हैं। ये भी अब गुलामी की जंजीर को तोड़ने का मन बना चुकी हैं। अब इन्हें नामंजूर है कि इनके शौहर इन्हें तीन बार तलाक कहकर जब चाहें इनकी जिंदगी को बर्बाद कर दें।
लोकसभा में पेश तीन तलाक संबंधी मुस्लिम महिला विवाह अधिकार संरक्षण विधेयक को ध्वनिमत से पारित कर दिया गया है। अब उम्मीद है कि ये राज्यसभा में भी पारित हो जाएगा। यानी अब हर पल तलाक के भय में जीवन व्यतीत करने वाली मुस्लिम औरतें चैन से जिंदगी बसर कर सकेंगी। तीन तलाक को दंडनीय अपराध की श्रेणी में रखते हुए तीन वर्ष तक कारावास और जुर्माने का प्रावधान किया गया है। इस बिल पर चर्चा का जवाब देते हुए कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने कहा कि अगर गरीब और परित्यक्ता मुस्लिम महिलाओं के पक्ष में खड़ा होना अपराध है, तो ये अपराध हम बार-बार करेंगे।
और जैसी कि आशंका थी बिल के विरोध में अपने को मुसलमानों का रहनुमा कहने वाले असदुद्दीन ओवैसी ने सदन से वॉक आउट किया। मुसलमान औरतों के हक में एक अहम फैसला देश ले रहा है, पर ओवैसी साहब अवरोध खड़े कर रहे हैं। जरा देख लीजिए मुसलमानों के इन फर्जी रहनुमाओं को। मुसलमान औरत की व्यथा को जानने के लिए शानी के उपन्यास ‘काला जल’ में मुसलमान परिवार में बहू पर होने वाली शब्द बाणों की वर्षा का उल्लेख समीचीन होगा।
शानी बताते हैं कि किस तरह से बहू को तानें सुनने पड़ते हैं। ‘काला जल’ को पढ़ चुके पाठक जानते हैं कि किन कठोर हालातों में मुसलमान औरत को शादी के बाद अपने ससुराल में रहना होता है। उसके सिर पर तलाक की तलवार लटकी रहती है। अब उस त्रासदी और पीड़ा से उन्हें मुक्ति मिल जाएगी।
अगर आपको भारत में मुस्लिम औरतों की स्थिति को जानना है तो अब्दुल बिस्मिल्लाह का उपन्यास “झीनी-झीनी बीनी चदरिया” पढ़ लेना जरूरी है। इसमें मुसलमान परिवारों का चित्रण किया गया है, जहां नारी दूसरे या कहें कि तीसरे दर्जे के इंसान के रूप में रहती हैं। इसमें एक जगह लेखक एक पात्र से कहलवाता है, ‘औरत की आखिर हैसियत ही क्या है? औरत का इस्तेमाल ही क्या है? चूल्हा-हांड़ी करे, साथ में सोये, बच्चे जने और पाँव दबाये। इनमें से किसी काम में कोई गड़बड़ की तो बोल देंगे, तलाक, तलाक, तलाक।’
नई उम्मीद
अब उस अंधेरे में जिंदगी जीने को अभिशप्त मुसलमान औरतों के लिए नई उम्मीद पैदा हुई है। पर अफसोस कि अपने को मुसलमानों का रहबर और रहनुमा कहने वाले मुस्लिम नेता यही चाहते रहे कि तीन तलाक पर पुरानी व्यवस्था बनी रहे। ये मुसलमान औरतों को मध्ययुगीन काल में ऱखना चाहते हैं। तीन तलाक के मसले पर सरकार के प्रगतिशील रुख का ये बेशर्मी से विरोध करते रहे।
कायदे से इनसे पूछा जान चाहिए कि इन्हें यहां तीन तलाक का समर्थन करने और गाय का मांस खाने के लिए सरकार से युद्ध के अलावा भी कुछ और आता है क्या? इनसे पूछा जाना चाहिए कि अगर तमाम मुस्लिम देशों ने इस कानून को ख़त्म कर दिया है और इसमें उनका इस्लाम आड़े नहीं आया तो फिर आपको कैसे लगता है कि इससे इस देश में मुस्लिमों के अधिकारों या उनके धर्म पर कोई आंच आ जायेगी? ओवैसी साहब ने इस सवाल का जवाब कभी नहीं दिया।
लाजवाब एम. जे. अकबर
और तो और, ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के नेता मौलाना मोहम्मद वली रहमानी कहते रहे हैं कि प्रधानमंत्री मोदी यूनिफार्म सिविल कोड लाकर देश को तोड़ने की कोशिश कर रहे हैं। मतलब कि सदियों से सताई जा रही औरतों को हक देने की बात शुरू हुई तो इन मौलानाओं को तकलीफ चालू हो गई। इस अमह मसले पर चर्चा के दौरान विदेश राज्यमंत्री एमजे अकबर ने ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड को आड़े हाथों लेते हुए पूछा कि उसकी क्या विश्वसनीयता है? किसने उन्हें मुस्लिम समुदाय के प्रतिनिधि के रूप में चुना। इस्लाम खतरे में है, इसका प्रयोग आजादी से पहले किया जाता था, अब इसका प्रयोग समाज को बांटने और जहर फैलाने के लिए किया जा रहा है।
मर्द तो ताक-झांक करेंगे
“आधा गाँव” में राही मासूम रज़ा एक जगह कहते हैं, ‘मर्द हैं तो ताक-झांक भी करेंगे, रखनियां भी रखेंगे।’ इन पंक्तियों के मर्म को जरा समझिए। रजा एक तरह से कह रहे हैं कि मुस्लिम समाज का मर्द कुछ भी करे उसे सब माफ है। मुसलमान औरत एक बार में तीन तलाक बोलने वाले अपने पति के जुल्मों-सितम से सदियों से जूझ रही है।अच्छी बात ये है कि अब इस देश की मुस्लिम औरतें भी जाग उठी हैं। ये भी अब गुलामी की जंजीर को तोड़ने का मन बना चुकी हैं। अब इन्हें नामंजूर है कि इनके शौहर इन्हें तीन बार तलाक कहकर जब चाहें इनकी जिंदगी को बर्बाद कर दें।
बेशक देश की मुसलमान औरतों की स्थिति बाकी धर्मों की औरतों से काफी बदतर है। कहने को इस्लाम में माँ के पैरों के नीचे जन्नत है और उसकी नाफरमानी बहुत बड़ा गुनाह है। बहन की शक्ल में उसकी आबरू की खातिर भाई की जान कुर्बान हो सकती है और बीवी की शक्ल में वह मर्द के लिए सबसे कीमती तोहफा है। परन्तु, मुस्लिम औरत तो पुरुष की आश्रिता ही बनकर रह गयी है।
कहने को इस्लाम के अधिकांश नियम एवं कानून नारी की सुरक्षा का विचार कर बनाए गए थे। क्या कोई इस सच्चाई को झुठला सकता है कि आज अपने देश में मुसलमान औरतें पूरी तरह से अपने पिता,पति और भाइयों पर ही आश्रित हैं? दीन-धर्म की आड़ में नाइंसाफी भले ही दुनिया की रवायत रही हो, लेकिन अब किसी अदृश्य शक्ति का खौफ दिखाकर जागरूक होते नागरिकों का शोषण संभव नहीं रह गया है। तीन तलाक जैसी कुप्रथा की चपेट में आकर अचानक बेसहारा हो चुकी तमाम महिलाएं अब अपने धर्म के अलंबरदारों से सवाल कर रही हैं।
जानवरों सा जीवन
ये सच है कि शादी, तलाक़ और गुजारा भत्ता के लिए कोई सही नियम न होने की वजह से अधिकतर मुसलमान औरतों को जानवरों से बदतर जिंदगी बितानी पड़ती है। कोई माने या न माने, पर मुसलमान औरतों के हक में मुस्लिम समाज का रुख वास्तव में बहुत ही भेदभावपूर्ण रहा है। आज मुसलमानों के पिछड़े होने का सबसे बड़ा कारण उस समाज की औरतों का पिछड़ापन ही है।
निस्संदेह मुस्लिम औरतें आर्थिक रूप से स्वावलंबी नहीं हैं। वह आर्थिक रूप से पुरुष पर आश्रित हैं। अंधेरे और घुटन में सांसें ले रही हैं। शिक्षा क्षेत्र में प्रवेश करने वाली औरतों में मुसलमान लड़कियों की संख्या बेहद मामूली है। तलाक के वास्तविक अर्थ, सही नियमों एवं शर्तों को भली-भाँति समझे बिना ही मर्दों ने औरतों पर तलाक से संबंधित नियम थोप दिए हैं, सिर्फ अपनी सुविधा के वास्ते। बहरहाल, अब मुसलमान औरतों को नरक और अपमान से मुक्ति मिलने वाली है। बेशक, अब वे भी जीवन के सभी क्षेत्रों में आगे बढ़ेंगी।
(लेखक यूएई दूतावास में सूचनाधिकारी रहे हैं। वरिष्ठ स्तंभकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)