सावरकर पहले व्यक्ति थे जिन्होंने 1905 में हुए बंग-भंग के विरोध में स्वदेशी की पैरवी करते हुए विदेशी वस्त्रों की होली जलाई थी। जिस प्रकार तिलक प्रौढ़ों के बीच लोकप्रिय थे, उसी प्रकार सावरकर 1906 तक स्वतंत्रता का स्वप्न सँजोने वाले युवाओं के बीच लोकप्रिय हो चुके थे।
आधुनिक राजनीतिक विमर्श में विनायक दामोदर सावरकर एक ऐसे नाम हैं, जिनकी उपेक्षा करने का साहस उनके धुर विरोधी भी नहीं जुटा पाते। वे एक क्रांतिकारी, समाजसुधारक, इतिहासकार, कवि, चिंतक, राजनेता और दार्शनिक के रूप में हमारे समक्ष उपस्थित होते हैं।
उनका हर रूप ध्यान आकर्षित करता है। हाँ, यह अवश्य है कि जहाँ उनके समर्थकों की बहुतायत है, वहीं उनके कतिपय विरोधियों की भी कमी नहीं। इसलिए यह आवश्यक है कि उनकी जयंती के अवसर पर उनका यथार्थपरक मूल्यांकन किया जाय।
28 मई, 1883 को उनका जन्म नासिक, महाराष्ट्र के एक पारंपरिक परिवार में हुआ। महज़ 9 वर्ष की आयु में उनकी माता राधाबाई जी का निधन हुआ और उसके कुछ वर्षों पश्चात उनके पिता भी चल बसे। उनका पालन-पोषण उनके बड़े भाई गणेश सावरकर ने किया। बचपन से ही उनमें देशभक्ति की भावना कूट-कूटकर भरी थी।
1904 में उन्होंने अभिनव भारत नामक संगठन की स्थापना की, जिसका उद्देश्य स्वतंत्रता-आंदोलन में भाग लेना और हिंदू समाज के भीतर आधुनिक सामाजिक चेतना का विकास करना था।
सावरकर पहले व्यक्ति थे जिन्होंने 1905 में हुए बंग-भंग के विरोध में स्वदेशी की पैरवी करते हुए विदेशी वस्त्रों की होली जलाई थी। जिस प्रकार तिलक प्रौढ़ों के बीच लोकप्रिय थे, उसी प्रकार सावरकर 1906 तक स्वतंत्रता का स्वप्न सँजोने वाले युवाओं के बीच लोकप्रिय हो चुके थे।
1906 में वे वक़ालत की पढ़ाई करने लंदन चले गए। वहाँ उनका संपर्क लाला हरदयाल और श्याम जी कृष्ण वर्मा से हुआ। वे वहीं इंडिया हॉउस में रहकर भारतीय नौजवानों के भीतर स्वतंत्रता की अलख जगाने का प्रयास करने लगे। तमाम पत्र-पत्रिकाओं में राष्ट्रभक्ति से ओत-प्रोत उनके लेख छपने लगे।
1 जुलाई 1909 को लंदन में कर्जन वायली की गोली मारकर हत्या कर दी गई। हत्या के आरोपी मदन लाल धींगरा को गिरफ्तार कर लिया गया, जिसके समर्थन में सावरकर ने लंदन टाइम्स में लेख लिखा। इधर भारत में भी एक ब्रिटिश कलक्टर जैक्सन की हत्या की गई, जिसका आरोप भी अभिनव भारत की गतिविधियों और विचारों के मत्थे मढ़ा गया। भारत में उनके दोनों भाइयों को गिरफ़्तार कर लिया गया।
बड़े भाई को आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई गई। 13 मई, 1910 को लंदन में सावरकर जी को भी गिरफ्तार कर लिया गया। 24 दिसंबर 1910 को उन्हें आजीवन कारावास की सज़ा दी गई। 31 दिसंबर 1911 को उन्हें दुबारा आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई गई।
वे साहसी इतने थे कि जलमार्ग द्वारा लंदन से भारत लाए जाने के क्रम में उन्होंने अंग्रेजों की गिरफ्त से भागने की योजना बनाई। जहाज़ के बाथरूम में बने छिद्र से उन्होंने समुद्र में छलांग लगा दी और तैरकर तट पर पहुँच गए।
फ्रांसीसी भाषा में अपनी बात न समझा पाने के कारण वहाँ उन्हें फ्रांसीसी सुरक्षाकर्मियों ने गिरफ्तार करके पुनः अंग्रेजों को सौंप दिया। उन्हें भारत लाकर मुक़दमा चलाया गया। 7 अप्रैल 1911 को उन्हें कालापानी की सज़ा सुनाते हुए अंडमान निकोबार के सेल्युलर जेल भेज दिया गया। दुर्दांत अपराधियों को कालापानी की सज़ा सुनाई जाती थी।
वहाँ उस समय केवल जंगल और जेल था, जिसमें बंद कैदियों को तरह-तरह की अमानुषिक यातनाएँ दी जाती थीं। उनसे कोल्हू पिरवाए जाते थे, रस्सियाँ बंटवाई जाती थीं, पत्थर तुड़वाए जाते थे। इन दुष्कर कार्यों को करते हुए उनकी हथेलियाँ लहूलुहान हो उठती थीं। सीलन भरी उन अँधेरी कैद-कोठरियों में ताज़ी हवा और धूप तो दूर, ठीक से खड़े होने और सोने की भी पर्याप्त जगह नहीं हुआ करती थीं।
ज्ञातव्य हो कि उस समय राजनीतिक कैदियों के लिए कुछ मूलभूत न्यूनतम सुविधाओं की शर्त्तें जुड़ी थीं, पर ब्रितानी हुकूमत पर यह संभवतः सावरकर का खौफ़ ही था कि उन्हें उन न्यूनतम सुविधाओं से भी वंचित रख इतना कठोरतम दंड दिया गया था।
4 जुलाई, 1911 से 21 मई, 1921 तक उन्हें कालेपानी की सज़ा काटनी पड़ी। उसके बाद तमाम शर्त्तों के साथ अंग्रेजों ने उन्हें रिहा तो किया, पर रिहा करने के बाद भी वे कई वर्षों तक महाराष्ट्र के रत्नागिरी ज़िले में नज़रबंद रहे।
परंतु सावरकर मानसिक रूप से दृढ़ संकल्पी व्यक्तित्व थे। उन्होंने रिहाई के पश्चात हिंदुओं में प्रचलित छुआछूत और अस्पृश्यता के विरुद्ध सुधारवादी आंदोलन चलाया। उन्होंने पतित पावन मंदिर की स्थापना कर उसमें सभी के बेरोक-टोक प्रवेश और पूजा का चलन प्रारंभ करवाया। वे अपने समय से इतने आगे थे कि उन्होंने ऊँच-नीच की जातिगत भावना को दूर करने के लिए विभिन्न जातियों के मध्य बेटी-रोटी के संबंधों की पैरवी की।
कालांतर में वे हिंदू महासभा के अध्यक्ष बने और हिंदुत्व के राजनीतिक दर्शन के प्रणेता और पथ-प्रदर्शक भी। उनका हिंदुत्व कोरी भावुकता या संकीर्णता पर आधारित नहीं रहा। अपितु वह तत्कालीन परिस्थितियों से उपजा उनका तर्कशुद्ध चिंतन व निष्कर्ष था।
वे मानते थे कि एक ओर जहाँ मुसलमान और ईसाई मज़हबी धारणाओं के कारण मुख्यधारा से भिन्न मार्ग अपना रहे हैं, वहीं यदि हिंदू समाज संगठित और दोषमुक्त हो जाए तो स्वतंत्रता शीघ्रातिशीघ्र पाई जा सकती है। वे विभाजन के धुर विरोधी और अखंड भारत के प्रबल समर्थक थे।
फूट डालो और राज करो की नीति पर चलते हुए तत्कालीन वायसराय ने जब भारत-विभाजन का फैसला लिया तो स्वातंत्र्यवीर सावरकर ही उन्हें इस कुटिल निर्णय के सबसे बड़े अवरोधक जान पड़े। उनकी मातृभूमि-पुण्यभूमि की अवधारणा भी व्यापकता लिए हुए थी।
साझी संस्कृति में विश्वास रखने वाले सभी व्यक्तियों के लिए उसमें जगह थी। और अंततः जब विभाजन हो ही गया तो उनके अभिनव भारत ने पाकिस्तान से भारत आने वाले विस्थापितों की सर्वाधिक सहायता की।
यह वीर सावरकर का सुदीर्घ चिंतन और वस्तुपरक विवेचन ही था कि उन्होंने प्रामाणिक तथ्यों एवं तर्कों के आलोक में 1857 के संघर्ष को प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की संज्ञा दिलाई। अन्यथा उनसे पूर्व तो अंग्रेज उसे ग़दर या सिपाही विद्रोह का नाम देकर ख़ारिज करते रहे थे।
उनकी उस पुस्तक की महत्ता इसी से प्रमाणित होती है कि सरदार भगत सिंह, रास बिहारी बोस, नेताजी सुभाषचंद्र बोस, राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन जैसे प्रखर देशभक्तों ने भी इस पुस्तक के प्रभाव को किसी-न-किसी रूप में स्वीकार किया है।
आज भले कांग्रेस सावरकर का तरह-तरह से अपमान करती हो, लेकिन स्वातंत्र्य वीर सावरकर की महत्ता यह है कि स्वयं इंदिरा गाँधी ने उनकी मृत्यु के उपरांत उन पर डाक-टिकट ज़ारी किया था तथा उनके जेल से छूटने के पश्चात तत्कालीन कांग्रेस नेतृत्व ने अनेक बार उन्हें कांग्रेस में शामिल होने का न्योता भी दिया था।
किसी एक या दो घटनाओं को परिप्रेक्ष्य एवं संदर्भों से काटकर मनमानी व्याख्या करते हुए अपने राष्ट्रनायकों का अपमान मूढ़ता का परिचायक है। सच यही है कि वीर सावरकर एक मौलिक चिंतक, महान देशभक्त और दूरदर्शी राजनेता थे।
(ये लेखक के निजी विचार हैं।)