विपक्षी दलों की सरकारों द्वारा सीएए का विरोध केवल और केवल कोरी राजनीती है, क्योंकि सीएए पूरी तरह से केंद्र सरकार का विषय है। इस पर राज्य कोई फैसला ले ही नहीं सकते। भारत का नागरिक कौन होगा, यह तय करने का अधिकार सिर्फ केन्द्र सरकार को है न कि राज्यों सरकार को इसलिए सीएए को मानने के लिए राज्य सरकारें संवैधानिक रूप से बाध्य हैं।
हाल ही में देश के नामी वकील तथा कांग्रेस के वरिष्ठ नेता व पूर्व कानून मंत्री कपिल सिब्बल ने नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) को लेकर महत्वपूर्ण बात कही। उन्होंने कहा कि, संसद से पारित हो चुके नागरिकता संशोधन कानून को लागू करने से कोई राज्य किसी भी तरह से इनकार नहीं कर सकता और यदि कोई राज्य ऐसा करता है तो यह असंवैधानिक होगा।
दरअसल संवैधानिक दृष्टि से किसी भी राज्य के पास से सीएए के खिलाफ प्रस्ताव पास करने और सीएए लागू ना करने का अधिकार ही नहीं है। यदि हम सीएए की संवैधानिकता और राज्यों पर सीएए के अधिकारों की समीक्षा करें तो पाएंगे कि सीएए को लेकर विभिन्न राज्य सरकारों द्वारा किए गए दावे राजनैतिक हैं और बिना किसी कानूनी सलाह के किये गए हैं, क्योंकि राज्य सरकारों को यह अधिकार ही नहीं है कि वो केंद्रीय सूची में वर्णित किसी विषय में निर्मित कानून को चुनौती दे सकें या उसके खिलाफ विधानसभा मे कोई प्रस्ताव पास कर सकें।
नागरिकता भारतीय सविंधान की 7वीं अनुसूची में वर्णित केन्दीय सूची का विषय है और संविधान के अनुच्छेद 246 (1 ) तहत केंद्रीय सूची में वर्णित विषयों पर कानून बनाने और उसे लागू करने का अधिकार सिर्फ और सिर्फ भारत की संसद को है। साथ ही संविधान के अनुच्छेद 11 में भी स्पष्ट रूप से लिखा है कि नागरिकता को लेकर कानून बनाने का अधिकार केवल भारतीय संसद को है।
राज्यों की विधानसभाएं सिर्फ राज्य सूची के विषयों पर ही कानून बनाने का अधिकार रखती हैं। संविधान के अनुच्छेद 245 और 246 में भी संसद के कानून बनाने की शक्ति को विस्तार से स्पष्ट किया गया है।
देश के 29 राज्यों में से इस वक्त 16 में भारतीय जनता पार्टी या उसके सहयोगी दलों की सरकारें हैं। इन राज्यों में सरकार के स्तर पर इसका कोई विरोध नहीं है। वहीं दूसरी ओर पश्चिम बंगाल, पंजाब और केरल के मुख्यमंत्रियों ने इसे अपनाने से इनकार किया है। इसके अलावा छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश ने कहा है कि वे इसे लागू नहीं करेंगे। इन दोनों राज्यों में कांग्रेस की सरकारें हैं। यह राज्य महज केंद्र सरकार का विरोध भर करने के लिए अपनी अपनी विधानसभाओ से प्रस्ताव पारित करवा रहे हैं या इसे अपने राज्यों में लागू नहीं करने की बात कर रहे हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि सीएए के विरोध के बहाने ये लोग अपनी तुष्टिकरण की राजनीती करने में लगे हैं।
भारतीय नागरिकता कानून, 1955 में लागू हुआ था, जिसमें किसी विदेशी नागरिक को किन शर्तों के आधार पर भारत की नागरिकता दी जाएगी इसके प्रावधान थे। इस कानून में हाल ही में संशोधन किया गया। अब यह सिटीजनशिप अमेंडमेंट एक्ट (सीएए) हो गया है। इसमें पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से भारत आने वाले हिंदू, सिख, जैन, पारसी, बौद्ध और ईसाई धर्म के शरणार्थियों को नागरिकता देने का प्रावधान किया गया है। इन तीन देशों से आने वाले इन 6 धर्मों के शरणार्थियों को भारतीय नागरिक बनने के लिए 11 साल की जगह अब भारत में 5 साल रहना जरूरी होगा।
जो राज्य सरकारें इस कानून का विरोध कर रही हैं, उनका कहना है कि भारत धर्मनिरपेक्ष देश है इसलिए हम किसी भी धर्म को इस कानून से अलग नहीं रख सकते किन्तु भारत सरकार ने यह स्पष्ट कर दिया है कि हम सिर्फ पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान के अल्पसंख्यक जिनका वर्षो से धार्मिक उत्पीड़न हो रहा है, उन्हें नागरिकता देने हेतु यह कानून लाए हैं। संसद में सीएए पर बहस के दौरान देश के गृहमंत्री सरकार की ओर से यह स्पष्ट कर चुके हैं कि सवैंधानिक अध्ययन के बाद ही यह कानून बना है इसलिए राज्य सरकारों का इसे लागू न करने को कहना तथा अपनी विधानसभाओं में इसके विरोध में प्रस्ताव पारी करना उनकी संवैधानिक अज्ञानता को ही दर्शाता है।
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि राज्य सरकारें सिर्फ सीएए के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट जा सकती हैं, लेकिन सुप्रीम कोर्ट भी नागरिकता संशोधन अधिनियम के खिलाफ तभी फैसला सुनाएगा, जब वह सीएए को संविधान या मौलिक अधिकारों के विरुद्ध पाएगा। इसके अलावा नागरिकता संशोधन कानून को खत्म करने या इसमें परिवर्तन करने का कोई विकल्प नहीं है।
अंततः इन सभी विरोध करने वाले राज्यों को नागरिकता संशोधन अधिनियम को लागू करना ही होगा। क्योंकि अनुच्छेद 256 और 257 के तहत किसी भी राज्य के लिए केंद्रीय कानून को नहीं मानना कानूनी रूप से संभव नहीं है साथ ही संविधान का अनुच्छेद 249 संसद को राष्ट्रहित में राज्यों से संबंधित विषयों पर भी कानून बनाने का अधिकार देता है और केंद्र सरकार अनुच्छेद 356 के तहत राष्ट्रपति से यह सिफारिश कर सकती है कि कोई राज्य विशेष संवैधानिक प्रावधानों को अमल में नहीं ला रहा है और वहां राष्ट्रपति शासन लगाया जाना चाहिए तब इन विरोध करने वाले राज्यों के लिए मुश्किल खड़ी हो जाएगी।
कुल मिलकर देखा जाए तो विपक्षी दलों की सरकारों द्वारा सीएए का विरोध केवल और केवल कोरी राजनीती है, क्योंकि सीएए पूरी तरह से केंद्र सरकार का विषय है। इस पर राज्य कोई फैसला ले ही नहीं सकते। भारत का नागरिक कौन होगा, यह तय करने का अधिकार सिर्फ केन्द्र सरकार को है न कि राज्यों सरकार को इसलिए सीएए को मानने के लिए राज्य सरकारें संवैधानिक रूप से बाध्य हैं।
(ये लेखक के निजी विचार हैं।)