मोहन भागवत ने सेना और संविधान दोनों के प्रति सम्मान व्यक्त किया है। उनके कथन में संविधान सम्मत शब्द है। इसका साफ मतलब है कि वह संविधान को सर्वोच्च मानते हैं। जो कार्य संविधान सम्मत हो उसी को करने की बात पर उनका आग्रह है। मतलब संविधान के दायरे में सरकार या सेना निर्णय करे। संघ के स्वयं सेवक देश सेवा से पीछे नहीं हटेंगे। यह संघ के स्वयं सेवकों की राष्ट्रीय प्रेरणा है, जो उन्हें आपदा पीड़ित लीगों की सहायता हेतु ले जाती है। बाढ़, भूकम्प, रेल या विमान दुर्घटना आदि में संघ के स्वयं सेवक सबसे पहले पहुंचने वालों में शामिल रहते हैं।
मीडिया का एक वर्ग राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रति सदैव असहिष्णुता से प्रेरित रहता है। संघ से संबंधित किसी भी समाचार का अर्थ से अनर्थ करने में उसे आनंद आता है। इस जुनून में उसे सेना, समाज और संविधान की मर्यादा का भी ध्यान नहीं रहता। वह भूल जाते हैं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एक राष्ट्रवादी संगठन है। देश की रक्षा में लगे सभी लोगों के प्रति उसका सम्मान भाव रहता है।
लेकिन संघ प्रमुख मोहन भागवत के बयान को गलत अर्थ में पेश किया गया। उनका बयान आपद परिस्थितियों में समाज के सहयोग से संबंधित था। उनके अनुसार इसके लिए संघ के स्वयं सेवकों को तीन दिन में तैयार किया जा सकता है, जबकि शेष समाज को सेना की तरह तैयार करने में छह महीने का समय लगेगा। इस कथन में कुछ भी अनुचित नहीं था। संघ की शाखाओं में पथ-संचलन का अभ्यास सुरक्षा बलों की परेड जैसा होता है। शरीर को चुस्त-दुरुस्त रखने के लिए योग व अन्य शारीरिक अभ्यास होते हैं। इन सबसे ऊपर अनुशासन और समय की पाबंदी भी सुरक्षा बलों की भांति होती है। शाखा लगने का समय निर्धारित होता है। निर्धारित समय में प्रार्थना होती है। यह दिनचर्या में शामिल हो जाता है।
शाखाओं में दिए जाने वाले आदेश सर संघचालक को भी मानने होते हैं। यह अनुशासन का तकाजा है। मोहन भागवत अक्सर संघ के आलोचकों से एक बात कहते हैं, वह यह कि आलोचकों को एक बार शाखा में अवश्य आना चाहिए। यहाँ उन्हें पता चलेगा कि शाखा में राष्ट्र को ही सर्वोच्च मानने का संस्कार दिया जाता है। इसमें सीमा पर देश की रखवाली करने वालों के प्रति सम्मान का भाव स्वाभाविक रूप से समाहित होता है। मातृभूमि की ही प्रार्थना की जाती है। राष्टीय गान में किस प्रकार खड़े होना चाहिए, यह भी शाखा में आने वाले सीख जाते हैं।
ऐसा नहीं कि मोहन भागवत ने युद्ध की स्थिति में समाज के सहयोग और तैयारी की बात ऐसे ही कह दी । संघ ऐसा करके दिखा भी चुका है। टैंक, बन्दूक चलाने या लड़ाकू विमान उड़ाने आदि से ही सैनिकों का सहयोग नहीं होता। बेशक यह कार्य तो सैनिकों को ही करना है। फिर भी ऐसे अनेक कार्य होते हैं, जो आपद काल में सामान्य नागरिक भी कर सकते हैं। शहरों के ट्रैफिक संभालने से लेकर सैनिकों को रसद आदि पहुँचाने में नागरिक सहयोग कर सकते हैं।
1962 और 1965 के युद्ध में संघ के स्वयंसेवक ऐसा कर चुके हैं। यही कारण था कि उसके बाद गणतंत्र दिवस की नई दिल्ली राजपथ की परेड में शामिल होने के लिए संघ के स्वयंसेवकों को बुलाया गया था। यही बात स्वयंसेवकों की दिनचर्या का हिस्सा है। इसीलिए मोहन भागवत ने कहा कि सेना संघ के स्वयंसेवकों को आवश्यकता के अनुरूप सहयोग के संबन्ध में कुछ सिखाये तो वह तीन दिन में सीख लेंगे, जबकि अन्य लोगों को सीखने में अधिक समय लगेगा। क्योंकि, उनकी दिनचर्या में इससे संबंधित शारीरिक कार्यक्रम शामिल नहीं होते। भागवत के कहने का यही मतलब था।
संघ के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख मनमोहन वैद्य ने इसे स्पष्ट भी किया है। उन्होंने कहा कि भागवत ने सेना और स्वयंसेवको की तुलना की ही नहीं थी, उन्होंने सामान्य समाज और स्वयंसेवकों की तुलना की थी। संघ प्रमुख के कथन का अभिप्राय यह था कि ऐसी परिस्थितियां आने पर संविधान और क़ानून की आगया हुई तो सेना सामान्य समाज को छह महीने में तैयार कर सकेगी, किन्तु स्वयं सेवकों को मात्र तीन दिन में तैयार किया जा सकेगा।
जाहिर है, मोहन भागवत ने सेना और संविधान दोनों के प्रति सम्मान व्यक्त किया है। उनके कथन में संविधान सम्मत शब्द है। इसका साफ मतलब है कि वह संविधान को सर्वोच्च मानते हैं। जो कार्य संविधान सम्मत हो उसी को करने की बात पर उनका आग्रह है। मतलब संविधान के दायरे में सरकार या सेना निर्णय करे। संघ के स्वयं सेवक देश सेवा से पीछे नहीं हटेंगे। यह संघ के स्वयं सेवकों की राष्ट्रीय प्रेरणा है, जो उन्हें आपदा पीड़ित लीगों की सहायता हेतु ले जाती है। बाढ़, भूकम्प, रेल या विमान दुर्घटना आदि में संघ के स्वयं सेवक सबसे पहले पहुंचने वालों में शामिल रहते हैं।
ऐसा नहीं कि वह वहां तैनात सुरक्षा बलों का कार्य करने लगते है। लेकिन राहत कार्यों में सहायता अवश्य करते है। मोहन भागवत के बयान की यही मूल भावना है। लेकिन, संघ के प्रति नफरत रखने वालों ने इस मूल भावना को ही नजरअंदाज कर दिया। उन्होंने बयान का गलत अर्थ निकालकर उसे पेश किया। मनमोहन वैद्य इसीलिए कहते हैं कि भाषण की रिकार्डिंग को दुबारा सुनना चाहिए। लेकिन आलोचक इसकी जहमत नहीं उठा सकते, क्योंकि इससे उनके हाथ से राजनीति का मौका निकल जायेगा।
खासतौर पर कांग्रेस के नेता तो जैसे तैयार बैठे थे। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने इसे देश के लिए जान देने वालों के अपमान से जोड़ दिया। आजम खां दो सेनाओं के विचार तक पहुच गए। कई नेता सेना की बहादुरी बयान करने लगे। जिसकी जितनीं समझ थी या राजनीति के हिसाब से जिसको जितना सुविधाजनक लगा, वह वहां तक पहुंच गया। जबकि भागवत ने तो ऐसा कुछ कहा ही नहीं था, जिसकी आलोचना की जाए। संघ को इस प्रकार की राजनीति करने वालों से राष्ट्रभाव सीखने की जरूरत नहीं है।
(लेखक हिन्दू पीजी कॉलेज में एसोसिएट प्रोफेसर हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)