इक्कीसवीं सदी की जवानी परवान पर थी। ‘उत्तम प्रदेश’ में ‘समाजवादी प्रजातंत्र’ का ज़बर्दस्त जलवा था। जलवा भी ऐसा-वैसा नहीं! बस यूं समझ लीजिए कि ‘काम’ बोलता था। ‘प्रजातंत्र’ के ‘प्रजापति’ लोगों का ‘काम’ सब पराकाष्ठाएं पार कर चुका था। ‘काम’ बोलता रहा और ‘उत्तम प्रदेश’ में ‘प्रजातंत्र’ कब ‘प्रजापति-तंत्र’ में तब्दील हो गया, किसी को पता भी नहीं चला। वहां की सरकार में ‘प्रजापति’ की जगह पक्की रहती थी, क्योंकि वे सरकार के भी ‘सरकार’ के ‘बापजी’ की नाक में घुसकर उसका बाल बन गये थे। इसलिए राजनीतिक विरोधी भले उन्हें ‘माफिया’ कहते थे या ‘प्रजा’ बलात्कार के आरोप लगाती थी; समाजवादी प्रजातंत्र के सिपाही लोग जगह-जगह फूल-मालाओं से उनका अभिनंदन करते, उनके स्वागत में तोरण द्वार लगाते और शिलापट्टों पर उनका नाम स्वर्णाक्षरों में खुदवाते।
सुना है कि एक बार उस ‘समाजवादी प्रजातंत्र’ की सरकार के ‘सरकार’ ने उन्हें सरकार से बाहर करने की हिम्मत दिखाई, लेकिन मामला सीधे ‘बापजी’ के पास पहुंच गया। इसपर, ‘बापजी’ ने उन्हें ललकारते हुए कहा कि, “किस बाप के लाल की मजाल है कि मेरे नाक का बाल उखाड़ ले।” ‘बापजी’ के तेवर देखकर ‘सरकार’ थोड़े सहम गए, फिर भी हिम्मत जुटाते हुए बोले- “बापू, तुम्हारी नाक का यह बाल बहुत बड़ा हो गया है, बाहर निकल आया है, घिनौना दिखने लगा है। तुम दिन में दो-चार बार कुछ न कुछ सुड़क ही देते हो, जिससे यह बजबजाने लगा है। इसपर मक्खियां बैठने लगी हैं। यह हमारी और तुम्हारी दोनों की सेहत के लिए हानिकारक हो गया है। इसलिए अब इसे उखाड़ ही दो।”
चुनावी बयार, जो कि इस बार फगुआ की अगुवा हवा की तरह आई थी, उसमें ‘सरकार’ की भी शर्मो-हया समाप्त हो चुकी थी। उन्होंने अपना नारा ही बना लिया- “काम बोलता है।“ उन्हें यकीन था कि इस नारे से नौजवान बहुत आकर्षित होंगे। उन्होंने स्वयं ‘प्रजापति’ का प्रचार किया और उसे भारी मतों से विजयी बनाने की अपील की, ताकि आगे भी ‘प्रजा’ का बलात्कार होता रहे और ‘उत्तम प्रदेश’ के चप्पे-चप्पे से ‘काम’ बोलता रहे।
‘बापजी’ भड़क गए। बोले- “इत्ता समझाया, समझते नहीं? ‘प्रजापति’ मेरी नाक का बाल है और जो मेरी नाक का बाल उखाड़ने की कोशिश करेगा, मैं उसकी दोनों भुजाएं उखाड़ दूंगा। पुराना पहलवान हूं। रिश्ते-नाते भूल जाऊंगा।” हालांकि ऐसा कहते हुए एकबारगी उनके मन में यह ख्याल ज़रूर आया कि वह भी कोई रिश्ता ही है, जिसके चलते नाक के इस घिनौने हो चुके बाल को भी वह उखाड़ना नहीं चाहते।
इसके बाद, जो-जो हुआ, उन सबकी चर्चा करने की यहां ज़रूरत नहीं है। बस यह जान लीजिए कि ‘प्रजापति’ ‘समाजवादी प्रजातंत्र’ का ध्वजावाहक बना रहा। जब ‘प्रजातंत्र’ का चुनावी महापर्व मनाया जाने लगा, तो सरकार ने ‘बापजी’ के आदेश पर उसे भी टिकट दिया। ज़ाहिर है, उनकी नाक का यह बाल चुनावी बयार में समाजवादी झंडे की तरह फहरा रहा था।
चुनावी बयार, जो कि इस बार फगुआ की अगुवा हवा की तरह आई थी, उसमें ‘सरकार’ की भी शर्मो-हया समाप्त हो चुकी थी। उन्होंने अपना नारा ही बना लिया- “काम बोलता है।“ उन्हें यकीन था कि इस नारे से नौजवान बहुत आकर्षित होंगे। उन्होंने स्वयं ‘प्रजापति’ का प्रचार किया और उसे भारी मतों से विजयी बनाने की अपील की, ताकि आगे भी ‘प्रजा’ का बलात्कार होता रहे और ‘उत्तम प्रदेश’ के चप्पे-चप्पे से ‘काम’ बोलता रहे।
यहां तक की कहानी को इंटरवल से पहले की कहानी समझा जा सकता है। इंटरवल के बाद कहानी में अचानक ट्विस्ट आता है। ‘प्रजापति’ के बलात्कार से पीड़ित ‘प्रजा’ कोर्ट पहुंच जाती है। कोर्ट को लगा कि ‘प्रजा’ के आरोपों की जांच होनी चाहिए और इसके लिए ज़रूरी है कि ‘प्रजापति’ को पकड़ा जाए। उसने उसे पकड़कर फौरन सलाखों में डालने का आदेश दे दिया।
फिर क्या था? ‘प्रजापति’ को लगा कि अब तो सचमुच ‘काम’ बोल उठा है। और इस कदर बोल उठा है कि कहीं अपना ही काम तमाम न हो जाए। इस डर से उसकी सारी हेकड़ी गुम हो गई और ‘उत्तम प्रदेश’ के ‘समाजवादी प्रजातंत्र’ में निडर घूमने वाला वह ‘प्रजापति’ किसी बिल में छिप गया।
हालांकि उसके छिपने की जगह पुलिस को अच्छी तरह मालूम थी, लेकिन पुलिस तो सरकार की एजेंट होती है, इसलिए उसका फ़र्ज़ था कि वह अपनी सरकार के ‘सरकार’ के ‘बापजी’ के नाक के बाल की हर हालत में रक्षा करे। इसलिए किसी ने कहा कि ‘प्रजापति’ फरार है, किसी ने कहा कि विदेश भागने की तैयारी में है। लेकिन अंदर की बात यह थी कि ‘सरकार’ और ‘बापजी’ दोनों उसे किसी भी तरह बचाने पर आमादा थे।
पुलिस के जो अफसर इस बात की जांच कर रहे थे कि ‘प्रजापति’ का ‘काम’ बोलता है या नहीं, सुनने में आया कि वही पीड़ित ‘प्रजा’ को काम तमाम करने की धमकी देने लगे। अंदरखाने हर तरफ़ चर्चा थी कि ‘समाजवादी प्रजातंत्र’ के जो चार मुख्य स्तम्भ हैं, उनकी छाया में पुलिस के पास भी ‘प्रजापतियों’ के प्रति सहिष्णुता भाव रखने के सिवा कोई विकल्प नहीं है। इस ‘समाजवादी प्रजातंत्र’ के चार मुख्य स्तम्भों में-
1. नंबर एक पर ‘बापजी’ बने हुए थे। ‘प्रजा’ के साथ बलात्कार की किसी भी घटना पर ‘बापजी’ की यह सार्वजनिक राय थी कि “लड़कों से गलतियां हो जाती हैं, तो क्या उन्हें फांसी चढ़ा दोगे?”
2. नंबर दो पर सरकार के ‘सरकार’ का जलवा था। उनका तो नारा ही था- “काम बोलता है।“ हालांकि वे स्वयं इस नारे की व्याख्या कुछ अलग अर्थों में किया करते थे, लेकिन ‘उत्तम प्रदेश’ के बारे में जानने वाले लोग जानते थे कि इस नारे का असली अर्थ क्या है।
3. नंबर तीन पर ‘मुग़ल-ए-आज़म’ थे। माना जाता था कि ‘समाजवादी प्रजातंत्र’ में मुगल वोटों की चाभी उन्हीं के पास थी, इसलिए वह कभी भारत माता को डायन कहते थे, कभी कश्मीर को भारत का हिस्सा मानने से इनकार करते थे, इसके बावजूद ‘सरकार’ और ‘बापजी’ दोनों स्वयं भी उनकी इबादत में लगे रहते थे। बलात्कार के मामलों पर उनकी राय जगज़ाहिर थी। वह खुलकर बलात्कारी ‘प्रजापतियों’ का पक्ष लेते थे और उल्टे पीड़ित ‘प्रजा’ से ही कहते थे कि “अगर बदनामी से शोहरत लेगी, तो आगे मुंह कैसे दिखाएगी?” इतना ही नहीं, जब उन्हें कुछ नहीं सूझता, तो ‘प्रजातंत्र’ के ‘प्रजापतियों’ पर लगे बलात्कार के आरोपों को राजनीतिक साज़िश करार दिया करते। ऐसे ही एक मामले में उन्हें कोर्ट में माफी भी मांगनी पड़ी थी।
4. नंबर चार पर ‘सिम्पल भाभी’ थीं। वे खुलेआम कहती थीं कि ‘सरकार’ ने पार्क तो प्रेमियों के लिए बनवाए हैं। ‘उत्तम प्रदेश’ में एंटी रोमियो स्क्वाड बनाए जाने के विचार का वे डटकर विरोध करती थीं।
इस प्रकार, संदेश स्पष्ट था। ‘प्रजापति’ इस ‘समाजवादी प्रजातंत्र’ के पांचवें स्तम्भ बन चुके थे। ‘प्रजातंत्र’ ‘प्रजापति-तंत्र’ बन चुका था। पुलिस ‘मुगल-ए-आज़म’ की भैंस ढूंढने में मशगूल थी और पीड़ित ‘प्रजा’ सचमुच मुंह दिखाने के काबिल नहीं बची थी। ‘उत्तम प्रदेश’ बलात्कारियों का स्वर्ग बन गया था। वहां चप्पे-चप्पे से ‘काम’ सचमुच बोलने लगा था।
डिस्क्लेमर – इस कहानी के सभी पात्र काल्पनिक हैं। उनका किसी भी जीवित या मृत पात्र से कोई लेना-देना नहीं। अगर किन्हीं को इस कहानी के पात्रों में अपनी छवि दिखाई देती है, तो इसके लिए ख़ुद वही ज़िम्मेदार होंगे, मैं नहीं।
(लेखक पेशे से पत्रकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)