कुल मिलाकर अब आम आदमी पार्टी के लिए सबसे बड़ी अदालत, जनता की अदालत है, जहाँ से पार्टी को पांच साल तक दिल्ली की सेवा करने का फरमान मिला था। यह विकल्प तो पार्टी के लिए खुला हुआ है। अगर आने वाले 6 महीने में इन 20 सीटों पर चुनाव होता है, तो इन विधायकों को जनता के सामने फिर से जाना होगा और बताना होगा कि उन्होंने इलाके के विकास के लिए क्या कुछ ख़ास किया। आम आदमी पार्टी को खुद अपनी लोकप्रियता पर कितना यकीन है तथा जनता को उसके शासन पर कितना विश्वास है, इसका एक बड़ा टेस्ट होने वाला है। मगर जिस जनता की बात केजरीवाल अक्सर करते रहते हैं, उसके सामने हाजिरी लगाने में उन्हें इतना डर क्यों लग रहा ?
लाभ के पद मामले में आम आदमी पार्टी के 20 विधायकों की सदस्यता चली गई। दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार बनने के बाद अरविन्द केजरीवाल सरकार ने एक ऐसा हैरानीजनक कदम उठाया था, जिसने राजनीतिक मर्यादा और शुचिता की धज्जियां उड़ा दीं। आज अगर आम आदमी पार्टी के विधायकों के फज़ीहत के लिए कोई ज़िम्मेदार है तो सबसे ज्यादा अरविन्द केजरीवाल ही हैं।
केजरीवाल ने 2015 में इन 21 विधायकों को 7 मंत्रियों के साथ संसदीय सचिव के रूप में लगा दिया। इस फैसले को पहले एक एनजीओ राष्ट्रीय मुक्ति मोर्चा ने दिल्ली हाई कोर्ट में चुनौती देते हुए संसदीय सचिवों की नियुक्ति को असंवैधानिक बताया गया। केजरीवाल के इस कदम को दिल्ली के एक वकील प्रशांत पटेल ने राष्ट्रपति के पास भेज कर चुनौती दी। इन सबके बाद ये मामला सुर्ख़ियों में आया।
केजरीवाल के इस फैसले को राजनीतिक और कानूनी मर्यादा के दायरे में देखा जाए तो यह प्रथमदृष्टया एक गैरजिम्मेदाराना कदम प्रतीत होता है। देश की सियासत में आम आदमी पार्टी का आगमन ही एक नए और वैकल्पिक राजनीतिक प्रयोग के तौर पर हुआ था। दिल्ली ने इस सियासत को इसलिए चुना था कि देश की सियासत को एक नई दिशा मिले, जनता को केंद्र में रखकर सत्ता का विकेंद्रीकरण होगा। लेकिन, सत्ता मिलते ही दिल्ली में आम आदमी पार्टी ने एक नयी हवा चला दी। जो भी सरकार के नजदीक थे, सरकार के करीबी थे, उन्हें पदों से नवाज़ा गया।
बहरहाल, अब इन विधायकों का क्या होगा? एक पुरानी कहावत है – माया मिली न राम दुविधा में गया प्राण। ये कहावत इस वक़्त आम आदमी पार्टी के इन विधायकों पर एकदम खरी साबित हो रही है। राष्ट्रपति के निर्णय के बाद इनकी विधायकी अब नहीं रही, संसदीय सचिव का पद तो छूट चुका ही है। हाँ, मौलिक अधिकारों के उल्लंघन का आधार बनाकर ये विधायक सुप्रीम कोर्ट का रुख कर सकते हैं। यह विधायक संविधान के अनुच्छेद 32 और 226 का हवाला देकर आदेश की वैधानिकता को चुनौती दे सकते हैं। लेकिन, उम्मीद नहीं है कि इनकी विधायकी इन्हें इस तरह वापस मिल सकेगी।
कुल मिलाकर अब आम आदमी पार्टी के लिए सबसे बड़ी अदालत, जनता की अदालत है, जहाँ से पार्टी को पांच साल तक दिल्ली की सेवा करने का फरमान मिला था। यह विकल्प तो पार्टी के लिए खुला हुआ है। अगर आने वाले 6 महीने में इन 20 सीटों पर चुनाव होता है, तो इन विधायकों को जनता के सामने फिर से जाना होगा और बताना होगा कि उन्होंने इलाके के विकास के लिए क्या कुछ ख़ास किया। आम आदमी पार्टी को खुद अपनी लोकप्रियता पर कितना यकीन है तथा जनता को उसके शासन पर कितना विश्वास है, इसका एक बड़ा टेस्ट होने वाला है।
20 विधायकों की सदस्यता रद्द होने के बाद अब बीजेपी और कांग्रेस दोनों ही आक्रामक तौर पर प्रचार करने में जुट जाएँगे ताकि केजरीवाल सरकार को एक्सपोज़ किया जा सके। आम आदमी पार्टी का शासन कितना बेहतर रहा है, इसपर मुहर लगाने के लिए दिल्ली की जनता भी बेताब है। मगर जिस जनता की बात केजरीवाल अक्सर करते रहते हैं, उसके सामने हाजिरी लगाने में उन्हें इतना डर क्यों लग रहा ?
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)