कर्नाटक में हिन्दी का विरोध तब सही माना जा सकता था, यदि वहां कन्नड़ की अनदेखी हो रही होती। कर्नाटक में कन्नड़ भाषा के साथ भेदभाव तो हो नहीं रहा है। दरअसल राज्य के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया हिन्दी विरोध का प्रत्यक्ष और परोक्ष समर्थन करके कन्नड़-भाषियों की पहचान की लड़ाई को हवा देने का खतरनाक खेल खेलने में लगे हैं। जब तमिलनाडू में हिन्दी विरोधी आंदोलन चल रहा था, तब भी कर्नाटक में हिन्दी को लेकर कभी विरोधी स्वर सामने नहीं आया था। अगर अब वहां पर हिन्दी का विरोध हो रहा है, तो समझ लीजिए कि इसके पीछे राजनीतिक मंशा से कुछ शक्तियां काम कर रही हैं।
मेघालय के राज्यपाल गंगा प्रसाद ने बीते दिनों राज्य विधानसभा के बजट सत्र में अपना भाषण हिन्दी में देकर मानो कोई अपराध कर दिया है! वे जब अपना भाषण हिन्दी में पढ़ रहे थे, तब ही विरोध शुरू हो गया था। बिहार से संबंध रखने वाले गंगा प्रसाद के भाषण समाप्त करने के बाद कांग्रेस के ईस्ट शिलांग से विधायक एमाप्रीन लिंगदोहने विरोध में वाक आउट कर गए, जबकि एक अन्य सदस्य राज्यपाल के भाषण के दौरान टोका-टोकी करते रहे।
हालांकि सदन में राज्यपाल के भाषण के अंग्रेजी अनुवाद की प्रतियां सदस्यों को बांट दी गईं थीं, फिर भी विरोध जारी रहा। विरोध करने वालों का कहना था कि राज्यपाल ने हिन्दी में भाषण देकर एक गलत परम्परा की शुरूआत की है। इसे हिन्दी थोपना बताया जा रहा है। क्या इस देश में हिन्दी में भाषण देने को हिन्दी थोपना माना जाए? क्या हिन्दी में भाषण का विरोध करने वाले बहुत बड़े अंग्रेजीदां हैं? उन्हें घोर आपत्ति है कि अंग्रेजी के बजाय हिन्दी में भाषण दिया गया मेघालय विधानसभा में? क्या हिन्दी इस देश की भाषा नहीं है?
अकारण विरोध हिन्दी का
आपने गौर किया होगा कि देश के कुछ राज्यों में हिन्दी का अकारण विरोध किया जाने लगा है। इस विरोध में अपना ‘योगदान’ देने में कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया से लेकर कांग्रेस के राज्यसभा सदस्य शशि थरूर भी पीछे नहीं हैं। मिजोरम में भी राज्यपाल के हिन्दी में भाषण देने पर सबसे ज्यादा पीड़ा कांग्रेसी विधायकों को ही हुई। पिछले वर्ष कर्नाटक में हिंदी का विरोध हुआ। बेंगलुरु मेट्रो के दो स्टेशनों पर हिंदी में लिखे गए नामों पर कालिख पोती गई। ये घटनाए चिकपेटे और मैजेस्टिक स्टेशन की हैं।
यह काम कर्नाटक रक्षणा वेदिके (केआरवी) नामक संगठन ने किया था। केआरवी ने ही बेंगलुरु मेट्रो से उसके सभी स्टेशनों से हिन्दी साइन बोर्ड को हटा देने की मांग की थी। संगठन ने हिन्दी की घोषणाओं को भी बंद कर देने की मांग रखी थी। अपनी मांग के समर्थन में उसका तर्क था कि केरल और महाराष्ट्र की मेट्रो ट्रेनों में हिन्दी भाषा का इस्तेमाल नहीं होता तो बेंगलुरु मेट्रो ऐसा क्यों कर रहा है। उसकी इस मांग का कर्नाटक के कुछ राजनीतिक दल भी समर्थन कर रहे थे। बेंगलुरु मेट्रो, केंद्र और कर्नाटक सरकार की संयुक्त परियोजना है। इसके चलते उस पर केंद्र सरकार का ‘त्रिभाषा सूत्र’ अपने आप लागू हो जाता है। इसके तहत कन्नड़, हिंदी और अंग्रेजी में सूचनाएं लिखना और प्रकाशित करना जरूरी है।
कर्नाटक में हिन्दी का विरोध तब सही माना जा सकता था, यदि वहां कन्नड़ की अनदेखी हो रही होती। कर्नाटक में कन्नड़ भाषा के साथ भेदभाव तो हो नहीं रहा है। दरअसल राज्य के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया हिन्दी विरोध का प्रत्यक्ष और परोक्ष समर्थन करके कन्नड़-भाषियों की पहचान की लड़ाई को हवा देने का खतरनाक खेल खेलने में लगे हैं। जब तमिलनाडू में हिन्दी विरोधी आंदोलन चल रहा था, तब भी कर्नाटक में हिन्दी को लेकर कभी विरोधी स्वर सामने नहीं आया था। अगर अब वहां पर हिन्दी का विरोध हो रहा है, तो समझ लीजिए कि इसके पीछे राजनीतिक मंशा से कुछ शक्तियां काम कर रही हैं।
थरूर का हिन्दी विरोध
और कांग्रेस के सांसद और पूर्व विदेश राज्य मंत्री शशि थरूर तो आजकल खुलकर कहने लगे हैं कि देश में हिन्दी गैर-हिन्दी भाषियों पर थोपी जा रही है। शशि थरूर विद्वान् व्यक्ति हैं। उनके अंग्रेजी ज्ञान पर भी कोई प्रशनचिन्ह नहीं लगा सकता। मगर, वे लगभग अकारण हिन्दी का विरोध करने हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने दावोस में जब विश्व आर्थिक सम्मेलन में हिन्दी में ओजस्वी भाषण दिया था, तब शशि थरूर को ये सही नहीं लगा। जयपुर में आयोजित लिट फेस्टिवल के दौरान शशि थरूर कहने लगे कि मोदी जी को दावोस में अंग्रेजी में अपनी बात रखनी चाहिए थी। क्यों? उनका तर्क था कि हिन्दी में भाषण देने से उनकी बात को विश्व मीडिया ने जगह नहीं दी। उनके हिन्दी विरोध का एक और उदाहरण लीजिए।
पिछली जनवरी में लोकसभा में संयुक्त राष्ट्र में हिन्दी को आधिकारिक भाषा बनाने के मुद्दे पर हुई तीखी बहस के दौरान विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने शशि थरूर को कसकर सुनाई थी। बहस के दौरान थरूर ने हिन्दी को आधिकारिक भाषा बनाने के मुद्दे पर इसकी जरूरत पर सवाल उठाया, तो वहीं सुषमा स्वराज ने अपने जवाब में उन्हें ‘अज्ञानी (इग्नोरेंट)’ तक कहा। क्या वे हिन्दी का विरोध करके अपने आप को बहुत महान चिंतक और विद्वान मानने लगे हैं? उन्हें फिलहाल खुद नहीं पता कि वे हिन्दी के पक्ष में खड़े हैं या विरोध में। वे हिन्दी धाऱा प्रवाह बोल लेते हैं। उनके गृह राज्य केरल में हिन्दी का कभी विरोध नहीं हुआ। वहां पर हिन्दी की स्वीकार्यता निर्विवाद है।
शशि थरूर को पता नहीं मालूम है या नहीं कि केरल हिन्दी फिल्मों का दीवाना है। मलयाली बहुत चाव से देखते हैं हिन्दी फिल्में। ऋतिक रोशन और कैटरीना कैफ की फिल्म ‘बैंग बैंग’ केरल में एक सप्ताह के अंदर चार करोड़ रुपये की कमाई कर राज्य में सबसे ज्यादा सफल हिन्दी फिल्म बन गई थी। तब फिल्म की सफलता से खुश ऋतिक ने ‘यूट्यूब’ पर साझा किए वीडियो में कहा था, “केरल में अपनी फिल्म को मिली प्रतिक्रिया देखकर मैं भावविभोर हूं।” बैंग बैंग केरल में कुल 105 सिनेमाघरों एक साथ में प्रदर्शित की गई थी और सिर्फ़ कोच्चि में ही इसके 40 शो हुए थे। अब आप समझ लें केरल में हिन्दी की स्थिति को।
इसके अलावा केरल में हिन्दी का प्रचार-प्रसार करने के लिए हिन्दी की छोटी-बड़ी सभी परीक्षाओं को संचालित करना, हिन्दी की पुस्तकें एवं पत्र-पत्रिकाएँ प्रकाशित करना तथा हिन्दी नाटकों को अभिनीत करना, केरल हिन्दी प्रचार सभा के मुख्य उदेश्य रहे हैं। इसकी ओर से हिन्दी, मलयालम और तमिल भाषाओं में ‘राष्ट्रवाणी’ नाम की एक त्रिभाषा साप्ताहिक पत्रिका का भी प्रकाशन भी किया जाता है।
एक तरफ शशि थरूर हिन्दी का कसकर विरोध करते हैं, वहीं दूसरी तरफ उनकी नयी पुस्तक “अन्धकार काल : भारत में ब्रिटिश साम्राज्य” का लोकार्पण होता है। उसमें वे हिन्दी में बोलते हैं। इस पुस्तक में शशि थरूर ने यह साबित किया है कि ब्रिटिश शासन काल भारत के लिए कितना विनाशकारी था। पुस्तक विमोचन के दौरान शशि थरूर हिन्दी-अंग्रेज़ी के भाषायी सवाल पर कहने लगे कि अंग्रेजी पूरे भारत की लिंक भाषा है, जो भारत को एक फ्रेम में रखती है। अब उनकी इस राय से सहमत होने का तो कोई सवाल ही नहीं है।
थरूर को अंग्रेजी भारत की लिंक भाषा लग रही है। जबकि महात्मा गांधी कहते थे, “हिन्दी भारत की भाषा है। भारत के लिए देवनागरी लिपि का ही व्यवहार होना चाहिए, रोमन लिपि का व्यवहार यहां हो ही नहीं सकता। अखिल भारत के परस्पर व्यवहार के लिए ऐसी भाषा की आवश्यकता है, जिसे जनता का अधिकतम भाग पहले से ही जानता-समझता है। और हिन्दी इस दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ है।” गांधी जी से ज्यादा इस देश को कोई नहीं जान-समझ सकता। उनकी हिन्दी को लेकर इस तरह की राय थी। अब शशि थरूर ज्ञान दे रहे हैं कि अंग्रेजी ही भारत की संपर्क भाषा है।
वे ये ना भूलें कि दक्षिण भारत में हिन्दी की सेवा करने में केरल में 1934 में केरल हिन्दी प्रचार सभा, आंध्र में 1935 में हिंदी प्रचार सभा, हैदराबाद और कर्नाटक में 1939 में कर्नाटक हिन्दी प्रचार समिति, 1943 में मैसूर हिंदी प्रचार परिषद तथा 1953 में कर्नाटक महिला हिन्दी सेवा समिति की स्थापना हो गई थी। बहरहाल, यह तो स्पष्ट है कि कांग्रेस और उसके नेता अलग-अलग प्रकार से लगभग देश भर में हिंदी का विरोध करने में लगे हैं।
(लेखक यूएई दूतावास में सूचनाधिकारी रहे हैं। वरिष्ठ स्तंभकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)