राम मंदिर मामले में अभी तक 13 पक्षकार ऐसे हैं जो कोर्ट जा चुके हैं। 2011 से मामले में यथास्थिति के आदेश थे और अब नियमित सुनवाई का क्रम आरंभ हुआ है। मगर ऐसे में सिब्बल का इसे टालने की अपील करना न केवल सिब्बल बल्कि कांग्रेस पर भी कई सवाल खड़े करता है। कांग्रेस को स्पष्ट करना चाहिए कि आखिर सिब्बल ने यह मांग किस आधार पर की है और सिब्बल की मांग पर पार्टी की क्या राय है।
बहुचर्चित अयोध्या मामले की सुनवाई सुप्रीम कोर्ट में चल रही है। पिछले सप्ताह विशेष पीठ द्वारा इसकी सुनवाई के दौरान कुछ ऐसा हुआ कि राजनीतिक महकमों का इधर ध्यान खिंच गया। कांग्रेस नेता और वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने अयोध्या मामले की सुनवाई को 2019 लोकसभ चुनाव तक आगे बढ़ाने की अपील की। इसके पीछे उन्होंने तर्क दिया कि इसपर राजनीति हो सकती है।
लेकिन शायद उन्हें अंदाजा नहीं था कि उनके इस बयान से कितना बवाल खड़ा हो जाएगा। जिस कांग्रेस के सुर में सुर मिलाकर सिब्बल बड़बोलापन दिखाने से बाज नहीं आए, उसी कांग्रेस ने उन्हें आड़े हाथों लिया। सूत्रों के अनुसार उन्हें गुजरात चुनाव प्रचार से दूर रखा गया है। हालांकि वे कांग्रेस ने उनकी अदालती दलीलों पर अभी अपना रुख पूरी तरह से स्पष्ट नहीं किया है।
बहरहाल, अपनी दलीलों से अल्पसंख्यकों को प्रभावित करने में भी कपिल सिब्बल ना केवल नाकाम रहे, बल्कि असहज स्थिति का भी उन्हें सामना करना पड़ गया। वक्फ बोर्ड ने ही उनके बयान को दरकिनार कर बयान कर दिया कि सिब्बल ने सुप्रीम कोर्ट में गलतबयानी की और इससे मामले का कोई हल नहीं निकलने वाला। सिब्बल भले ही स्वयं को वकील मानते हों, लेकिन वकालत में उन पर राजनीति पूरी तरह से हावी रहती है और विधि व्यवसायी के वेश में वे राजनीतिक विचारधारा के हित साधन का प्रयास करने से नहीं चूकते। लेकिन उनका यह दांव इस बार उल्टा पड़ा गया।
सुन्नी वक्फ बोर्ड ने साफ तौर पर कह दिया कि सिब्बल राजनीति करते हैं, हमारा यह काम नहीं है। हम किसी भी राजनीति में नहीं पड़ना चाहते। यह मसला दोनों कौम का है, हिंदू और मुसलमान दोनों ही वर्ग इस मसले का हल चाहते हैं, लेकिन अब इस पर राजनीति नहीं होनी चाहिये। इसके बाद सिब्बल ने दावा किया कि वे सुन्नी वक्फ बोर्ड के वकील नहीं हैं, लेकिन ये कहके भी वे फंसते ही नजर आ रहे। क्योंकि, सुन्नी वक्फ बोर्ड की तरफ से कहा गया कि सिब्बल हमारे वकील हैं और वे एक नेता भी हैं।
असल में, संवेदनशील मुद्दों को लेकर कोई भी राजनीतिक पार्टी लापरवाही भरा कदम नहीं उठा सकती। जहां तक सिब्बल का सवाल है, उनकी छवि ही ऐसी है कि वे तिल का ताड़ बनाने में माहिर हैं। लोकप्रियता पाने के लिए और माहौल बिगाड़ने के लिए वे संवेदनशील मुददों को भी भड़काने से पहले नहीं सोचते।
बहरहाल, मामले की सुनवाई फिर से फ़रवरी तक के लिए टल गई है। अब इसकी अगली सुनवाई 8 फरवरी 2018 को होनी है। इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने प्रकरण से संबंधित लगभग बीस हजार पृष्ठों के कागजात जमा करवाने को कहा है। सुन्नी वक्फ बोर्ड के वकील कपिल सिब्बल कोर्ट के इस रूख पर भी सवाल उठाते हुए कहा कि बहुत कम समय में इतने सारे कागजात प्रस्तुत करना संभव नहीं है। उन्होंने ये भी कहा कि ये सारे कागज अन्य पक्षकारों को भी उपलब्ध नहीं करवाए गए हैं। इसके आधार पर ही सिब्बल ने मामले को टालना चाहा और इसे अनावश्यक रूप से आगामी लोकसभा चुनाव से जोड़कर देखने की कोशिश की। उनकी इस दलील को कोर्ट ने सिरे से खारिज कर दिया है।
जहां तक बोर्ड की बात है, बोर्ड स्वयं कह चुका है कि अयोध्या की विवादित ज़मीन हिंदुओं को दी जा सकती है। मस्जिद के निर्माण के लिए लखनऊ में भी स्थान दिया जा सकता है। चूंकि यह मामला अभी कोर्ट में विचाराधीन है, इसलिए अदालत के फैसले के पहले इस पर कुछ भी स्पष्ट रूप से कहना उचित नहीं होगा, लेकिन अभी तक के घटनाक्रमों को देखकर तो यही प्रतीत होता है कि देश की जनता, हिंदू मुस्लिम वर्ग सभी इस मामले का शांतिपूर्वक हल चाहते हैं, लेकिन कांग्रेस इसे अनावश्यक रूप से अराजकता का मुद्दा बनाने पर तुली है।
यह तो अच्छा हुआ कि सिब्बल की निराधार दलील को कोर्ट ने खारिज कर दिया और स्वयं वक्फ बोर्ड ने ही उससे किनारा कर लिया अन्यथा सिब्बल ने एक संवेदनशील मुद्दे को देश की राजनीति से जोड़ने की तैयारी तो कर ही ली थी। यह भी एक संयोग ही है कि अयोध्या मामले की नियमित सुनवाई भी 6 दिसंबर के एक दिन पहले ही आरंभ हुई। इस मामले में चली लंबी सुनवाई के बाद वर्ष 2010 में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने अहम निर्णय दिया था। अदालत ने विवादित भूमि को तीन समान भागों में विभाजित करने का फैसला दिया था जिसमें एक-एक हिस्सा रामलला, निर्मोही अखाड़ा एवं केंद्रीय सुन्नी वक्फ बोर्ड को दिए जाने की बात कही गई थी। यह बात अलग है कि इस फैसले पर भी असहमति के स्वर उठे और मामला सुप्रीम कोर्ट तक ले जाया गया।
मामले में अभी तक 13 पक्षकार ऐसे हैं जो कोर्ट जा चुके हैं। 2011 से मामले में यथास्थिति के आदेश थे और अब नियमित सुनवाई का क्रम आरंभ हुआ है। मगर ऐसे में सिब्बल का इसे टालने की अपील करना न केवल सिब्बल बल्कि कांग्रेस पर भी कई सवाल खड़े करता है। कांग्रेस को स्पष्ट करना चाहिए कि आखिर सिब्बल ने यह मांग किस आधार पर की है और सिब्बल की मांग पर पार्टी की क्या राय है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)