अर्नब का दोष केवल इतना है कि उन्होंने राष्ट्र की आकांक्षाओं, आवश्यकताओं और भावनाओं को स्वर दिया। क्या ये अपराध है? प्रशस्ति-गायन पर पुरस्कृत-उपकृत करने और विरोध या असहमति पर दंडित किए जाने की परिपाटी स्वस्थ और लोकतांत्रिक तो कदापि नहीं! लोकतंत्र में सभी को अपनी बात कहने की आज़ादी है। संविधान अभिव्यक्ति की आज़ादी देता है। असहमति या विरोध की क़ीमत गिरफ़्तारी तो नहीं।
लोकतंत्र में मीडिया को चौथा स्तंभ माना जाता है। लोकतांत्रिक मूल्यों को मजबूती प्रदान करने में मीडिया की विशेष भूमिका होती है। उसका उत्तरदायित्व निष्पक्षता से सूचना पहुँचाने के साथ-साथ जन सरोकार से जुड़े मुद्दे उठाना , जनजागृति लाना, जनता और सरकार के बीच संवाद का सेतु बनना और जनमत बनाना भी होता है। सरोकारधर्मिता मीडिया की सबसे बड़ी विशेषता रही है।
स्वतंत्रता-पूर्व से लेकर स्वातन्त्रयोत्तर काल तक भारतवर्ष में पत्रकारिता की बड़ी समृद्ध विरासत एवं परंपरा रही है। उच्च नैतिक मर्यादाओं एवं नियम-अनुशासन का पालन करते हुए भी पत्रकारिता जगत ने जब-जब आवश्यकता पड़ी लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा में कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखी।
सत्य पर पहरे बिठाए जाने की निरंकुश सत्ता की हर कोशिश को नाकाम करने में मीडिया ने हमेशा बड़ी भूमिका निभाई है। आपातकाल के काले दौर में भी मीडिया ने अपनी स्वतंत्र एवं निर्भीक आवाज़ को कमज़ोर नहीं पड़ने दिया। पत्रकारिता के गिरते स्तर पर बढ़-चढ़कर बातें करते हुए हमें मीडिया की इन उपलब्धियों और योगदान को कभी नहीं भुलाना चाहिए।
अर्नब का दोष केवल इतना है कि उन्होंने राष्ट्र की आकांक्षाओं, आवश्यकताओं और भावनाओं को स्वर दिया। क्या ये अपराध है? ऐसे में केवल अर्नब ही सत्ता के आसान शिकार और कोपभाजन क्यों? प्रशस्ति-गायन पर पुरस्कृत-उपकृत करने और विरोध या असहमति पर दंडित किए जाने की परिपाटी स्वस्थ और लोकतांत्रिक तो कदापि नहीं! लोकतंत्र में सभी को अपनी बात कहने की आज़ादी है। संविधान अभिव्यक्ति की आज़ादी देता है। असहमति या विरोध की क़ीमत गिरफ़्तारी तो नहीं।
महाराष्ट्र पुलिस-प्रशासन ने जिस प्रकार मुँह अँधेरे रिपब्लिक चैनल के प्रमुख अर्नब गोस्वामी को एक पुराने एवं लगभग बंद पड़े प्रकरण में गिरफ़्तार किया है, वह उसकी मंशा एवं कार्यप्रणाली पर सवाल खड़े करता है। पूरा देश मुंबई पुलिस से सुशांत सिंह के आत्महत्या प्रकरण में न्याय की बाट जोह रहा था, घोर आश्चर्य है कि उस मामले में कोई न्याय न देकर उसने … चौपट राजा की तर्ज़ पर सवाल पूछने वाले को ही उठाकर जेल की कालकोठरी में डाल दिया।
एक पुराने मामले में किसी अन्य व्यक्ति को ख़ुदकुशी के लिए उकसाने के लचर आरोप में अर्नब को गिरफ्तार करने की महाराष्ट्र सरकार एवं मुंबई पुलिस की नीयत जनता ख़ूब समझती है। अर्नब गोस्वामी का कोई आपराधिक अतीत नहीं, वे कोई सजायाफ्ता मुज़रिम या आतंकी नहीं हैं, बल्कि वे एक ट्रेंड सेटर पत्रकार हैं, जिनका यूपीए के घपलों-घोटालों को उजागर करने में अभूतपूर्व योगदान है। जिनके साक्षात्कार ने सिद्ध कर दिया था कि प्रधानमंत्री बनने के ख़्वाब देखनेवाला युवराज दरअसल अपरिपक्व है।
और ऐसे महत्त्वाकांक्षी, वंशवादी अपरिपक्व युवराजों को एक आम प्रतिभशाली नागरिक द्वारा प्रश्न पूछा जाना अस्वीकार्य है। सत्ता के अहंकार के कारण वे इसे एक मामूली पत्रकार की हैसियत से जोड़कर देखते हैं। वे आज भी राजा की ग्रन्थि पाले बैठे हैं। उन्हें नहीं मालूम कि देश आजाद हो चुका है।
सुबह-सुबह मय दल-बल पुलिस का अर्नब के घर धमक पड़ना और बिना किसी पूर्व सूचना या कारण बताए उन्हें गिरफ़्तार करके घसीटकर ले जाना, पूछ-ताछ की फ़ौरी कार्रवाई कम और प्रतिशोधात्मक कार्रवाई अधिक प्रतीत होती है। यह औक़ात दिखाने की मानसिकता से उपजी घोर अहंकारी प्रतिक्रिया है।
यदि महाराष्ट्र सरकार को लगता है कि रिपब्लिक चैनल उसकी छवि धूमिल कर रहा है तो उन्हें अन्य चैनलों एवं माध्यमों के ज़रिए जनता तक अपनी बात पहुँचानी चाहिए। छवि चमकाने के लिए अर्नब को गिरफ़्तार करके ज़बरन उनकी आवाज़ को दबाने की कहाँ आवश्यकता है? और आश्चर्य है कि अर्नब की गिरफ़्तारी पर बहुत-से चैनल और मीडिया घराने चुप हैं।
क्या व्यावसायिक मुनाफ़ा सभी सरोकारों पर भारी पड़ता है? सनद रहे कि ऐसी चुप्पी सत्ता को निरंकुश एवं अराजक बनाती है और असहमति, आलोचना, विरोध को हमेशा-हमेशा के लिए ख़ारिज करती है। क्या स्वस्थ लोकतंत्र में असहमति एवं आलोचना के लिए कोई स्थान नहीं होना चाहिए?
यदि अर्नब ने कुछ ग़लत किया है तो न्यायिक प्रक्रिया के अंतर्गत पारदर्शी तरीके से कार्रवाई होनी चाहिए, न कि जोर-जबरदस्ती से। यदि निष्पक्षता पत्रकारिता का धर्म है तो कार्यपालिका एवं सरकार का तो यह परम धर्म होना चाहिए। उसे तो अपनी नीतियों एवं निर्णयों के प्रति विशेष सतर्क एवं सजग रहना चाहिए। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर स्वविवेक का नियंत्रण तो ठीक है, परंतु उस पर सरकारी पहरे बिठाना, उसे डरा-धमकाकर चुप कराना संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकारों का सीधा हनन है। और लोकतंत्र के सभी शुभचिंतकों एवं प्रहरियों को ऐसे किसी भी कृत्य का विरोध करना चाहिए।
लोकतांत्रिक मूल्यों में इस देश की आस्था अक्षुण्ण है। जब इसने आपातकाल थोपने वालों को जड़-मूल समेत उखाड़ फेंका तो वंशवादी पिट्ठू क्या बला हैं? जो इस मौके पर चुप हैं, समय उनके भी अपराध लिख रहा है। अगर आज अर्नब पर मौन रहे तो कल आपकी और परसों हमारी बारी है। महाकवि दिनकर के शब्दों में……
समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध।
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके भी अपराध।।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं।)