दीनदयाल उपाध्याय ने जौनपुर लोकसभा चुनाव जीतने के लिए जातिवादी समीकरणों का सहारा लेने से इनकार कर दिया था। उनका कहना था कि ऐसा करने से दीनदयाल तो जीत सकता है, लेकिन जनसंघ पराजित हो जाएगा। बात सच थी। दीनदयाल जी खुद चुनाव जीतने को जातिवाद का सहारा लेते तो लोकमत परिष्कार के उनके अभियान का क्या होता। वह इसकी अलख जगा रहे थे। लोगों को बता रहे थे कि लोकमत का परिष्कार न होने से लोकतंत्र कमजोर हो जाता है।
पं. दीनदयाल उपाध्याय ने स्वस्थ लोकतंत्र के लिए लोकमत के परिष्कार का सुझाव दिया था। उस समय देश की राजनीति में कांग्रेस का वर्चस्व था। उसके विकल्प की कल्पना भी मुश्किल थी। दीनदयाल जी से प्रश्न भी किया जाता था कि जब जनसंघ के अधिकांश उम्मीदवारों की जमानत तक जब्त हो जाती है, तो चुनाव में उतरने की जरूरत ही क्या है। दीनदयाल उपाध्याय का चिंतन सकारात्मक था। उनका कहना था कि चुनाव के माध्यम से जनसंघ की विचारधारा का प्रचार हो जाता है। लोगो तक विचार पहुंचता है। कभी न कभी लोग इसको समझेंगे।
आज भाजपा जैसे कतिपय अपवाद छोड़ दें, तो अधिकांश पार्टियां वंशवाद पर आधारित हैं। दीनदयाल जी मानते थे कि यदि राजनीतिक पार्टियां गलत रास्ते पर हों तो उन्हें सुधारने का कार्य भी मतदाता कर सकते हैं। इस कथन का निहितार्थ समझना होगा। राजनीतिक दल वंशवाद और जातिवाद पर आधारित हो सकते हैं। लेकिन लोकमत परिष्कृत होगा तो इन कमियों पर विचार करेगा। जो पार्टी वंशवाद पर आधारित होगी, वह सत्ता में आने के बाद वंशवाद को ही मजबूत बनाने की कोशिश करेगी। वैसे ही, जातिवाद पर आधारित पार्टियां समाज में भेदभाव बढ़ाने वाली होती हैं। वह जाति या मजहब विशेष को वरीयता देती हैं। समाज का शेष वर्ग उपेक्षित रह जाता है।
दीनदयाल उपाध्याय ने जौनपुर लोकसभा चुनाव जीतने के लिए जातिवाद का सहारा लेने से इनकार कर दिया था। उनका कहना था कि ऐसा करने से दीनदयाल तो जीत सकता है, लेकिन जनसंघ पराजित हो जाएगा। बात सच थी। दीनदयाल जी खुद चुनाव जीतने को जातिवाद का सहारा लेते तो लोकमत परिष्कार के उनके अभियान का क्या होता। वह इसकी अलख जगा रहे थे। लोगों को बता रहे थे कि लोकमत का परिष्कार न होने से लोकतंत्र कमजोर हो जाता है।
राजनीतिक दल का उद्देश्य केवल चुनाव जीतना नही होता। वह समाज को बदलने के प्रति भी जबाबदेह होना चाहिए। मूल उद्देश्य यही है। यदि राजसत्ता समाज को बदलने में बाधक हो तो उसे भी बदलने का प्रयास होना चाहिए। लेकिन यह कार्य भी लोकमत के परिष्कार से ही करना होगा। अन्यथा सत्ता में कभी नैतिक बल नही हो सकता।
दीनदयाल उपाध्याय का कहना था कि मतदाताओं को अपना महत्व समझना होगा। सत्ता या व्यवस्थापिक उनकी मालिक नहीं है। सरकार बनाने वाला मतदाता ही मालिक है। ऐसे में मतदान भी जिम्मेदारी का कार्य है। यदि मतदाता लगातार जातिवादी, वंशवादी, घोटालेबाजों को पराजित करता है तो ऐसे लोगो का मनोबल टूटेगा। राजनीतिक दल अपने में सुधार को प्रेरित होंगे। मतदाता की सहभागिता वोट देने तक सीमित नहीं होनी चाहिए। सरकार बनने के बाद भी उसकी जागरूकता कायम रहनी चाहिए।
नरेंद्र मोदी ने शासन में जन-सहभागिता बढ़ाने का प्रयास किया है और निरंतर कर रहे हैं। उनकी सरकार द्वारा गरीबो के लिए अनेक योजनाएं लागू की गई हैं। यह सरकार गरीबों, किसानों के प्रति समर्पित है। एक्सप्रेस वे बनने चाहिए, लेकिन ये विकास के प्रमाण नहीं हैं। कांग्रेस, सपा आदि की सरकारों ने इसी को विकास माना था। जबकि विकास रोटी, कपड़ा, मकान, पढ़ाई, दवाई की उपलब्धता से तय होता है। दीनदयाल जी का यही सपना था। अंत्योदय के माध्यम से वह समाज के सभी लोगो को बराबरी पर लाना चाहते थे।
राजनीतिक दलों के कार्यकर्ताओं का उद्देश्य लोकमत को बटोरना नहीं, बल्कि उन्हें जागरूक बनाना होना चाहिए। पार्टियां विचारों के साथ मतदाताओं तक जाएं। मतदाता उन पर सम्यक विचार करें। संख्या बल या सिर गिनकर विचारो का आकलन नही हो सकता। विचार और दृष्टि के आधार पर मूल्यांकन होना चाहिए। सिद्धान्तहीन मतदान, राजनीति व शासन को भी सिद्धान्त विहीन बनाता है। दीनदयाल उपाध्याय आदर्श समाज व राजनीति के पक्षधर थे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में कार्यरत वर्तमान सरकार के शासन में उनका सपना धीरे-धीरे साकार हो रहा है।
(लेखक हिन्दू पीजी कॉलेज में एसोसिएट प्रोफेसर हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)