संगठन में दरार की स्थिति में नेतृत्व का यह दायित्व होता है कि उसको संभाले, किंतु लचर अवस्था में खड़ी कांग्रेस के नेतृत्व में जो दरार और विरोध की आवाज़ उठी है उसे संभालने वाला कोई नहीं दिख रहा है। यही कारण है कि कपिल सिब्बल और गुलाम नबी आज़ाद जैसे वरिष्ठ कांग्रेसी नेता भी अब खुलकर अपनी वेदना व्यक्त कर रहे हैं।
कांग्रेस की कार्यसमिति की बैठक में जो सियासी ड्रामा देखने को मिला वह अभूतपूर्व था। सात घंटे चली कार्यसमिति की बैठक के परिणाम की व्याख्या और उसके नतीजे हास्यास्पद हैं। वर्तमान राजनीति में अप्रसांगिक हो चुकी कांग्रेस को देखकर कोई भी आसानी से कह सकता है कि कांग्रेस में भीतर ही भीतर एक ऐसी खाई बन गई है जिसे पाटना आसान नहीं होगा।
सोमवार को कांग्रेस की बैठक में से एक के बाद एक आए बयानों का सार यही है कि इस पार्टी के लिए गांधी परिवार ही सबकुछ है। बैठक का निष्कर्ष यही निकलकर आया कि सोनिया गाँधी अगले अधिवेशन तक अंतरिम अध्यक्ष बनी रहेंगी।
लेकिन जिस तरह से विरोधाभास सामने नजर आ रहा है, उसके पीछे केवल 23 वरिष्ठ कांग्रेस नेताओं की चिट्टी को उचित नहीं ठहराया जा सकता, बल्कि याद करें तो जब राहुल गाँधी कांग्रेस अध्यक्ष बनने वाले थे तब भी पार्टी में ये स्वर सुनाई दिए थे कि सोनिया को ही नेतृत्व करना चाहिए।
अभी तक पार्टी में दो ही स्वर थे, जो गांधी परिवार के इर्दगिर्द थे किन्तु इसी बीच प्रियंका गाँधी ने परिवार से अलग नेतृत्व की बात कही है। ऐसे में अब पार्टी तीन धड़ों में बंट चुकी है और नेतृत्वविहीन कांग्रेस को समेटने वाला कोई नहीं है। फ़िलहाल सोनिया गाँधी ने इस विरोध की चिंगारी को टालने का सबसे उचित मार्ग यथास्थिति बनाएं रखना समझा। कांग्रेस की स्थिति देखकर ऐसा लगता है मानो कांग्रेस के भीतर से ज्वालामुखी फटने के लिए तैयार है। बस उचित अवसर की तलाश है।
बहरहाल, आप कांग्रेस के लिए दया की भावना रख सकते हैं। भारत की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी आज इस स्थिति में खड़ी है जहां उसके पास केवल कंफ्यूजन की स्थिति है। समाधान की दिशा में अगर कोई बढ़ने का प्रयास भी करता है तो उसे घुटने के बल ला दिया जाता है।
संगठन में दरार की स्थिति में नेतृत्व का यह दायित्व होता है कि उसको संभाले, किंतु लचर अवस्था में खड़ी कांग्रेस के नेतृत्व में जो दरार और विरोध की आवाज़ उठी है उसे संभालने वाला कोई नहीं दिख रहा है। यही कारण है कि कपिल सिब्बल और गुलाम नबी आज़ाद जैसे वरिष्ठ कांग्रेसी नेता भी अब खुलकर अपनी वेदना व्यक्त कर रहे हैं।
दरअसल यह सभी जानते हैं कि गांधी परिवार कांग्रेस का सुप्रीम बना रहना चाहता है। इसलिए राहुल के बयान को इस आलोक में भी समझना चाहिए कि अगर कोई गांधी परिवार से बाहर का अध्यक्ष बनता भी है, तो उसे मनमोहन सिंह को तरह ही काम करना पड़ेगा। राहुल के बयान को आप हल्के में नही ले सकते उन्होनें इस बयान के मार्फ़त यह संदेश दे दिया कि परिवार ही पार्टी था, है और रहेगा।
हैरानी वाली बात यह है कि चिट्टी से बौखलाए राहुल गांधी ने किस तरह अपने ही वरिष्ठ नेताओं पर बीजेपी से मिले होने का आरोप लगाया। कहीं न कहीं यह कांग्रेस की कार्य संस्कृति को प्रदर्शित करने का एक ताजा और उपयुक्त उदाहरण हैं। इस आरोप के निहितार्थ को समझने की आवश्यकता है।
वैसे तो सभी को कांग्रेस के ‘स्वर्णिम’ लोकतंत्र के बारे में जानकारी है। इससे पहले जब राजस्थान कांग्रेस में पड़ी दरार में मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री अपने वर्चस्व की लड़ाई लड़ रहे थे, तब कांग्रेस के ही बड़े नेता इसे कांग्रेस का लोकतंत्र कह रहे थे और आज भी इन विरोधी स्वरों को कुछेक कांग्रेसी नेता पार्टी के लोकतंत्र की बात कह टालने की विफल कोशिशों में लगे हुए हैं।
लेकिन यह जगजाहिर है कि कांग्रेस में न तो कोई लोकतंत्र है और ना ही किसीको अपनी बात कहने का अधिकार। क्योंकि कार्यसमिति की बैठक में राहुल का बिफरना और सोनिया गाँधी का यह कहना कि मुझे दुःख पहुंचा है, बहुत कुछ स्पष्ट कर देता है।
ध्यान देने वाली बात यह है कि चिट्टी लीक हुई ये अलग मसला है, लेकिन कांग्रेस के युवराज ने चिट्टी लिखने वालों पर जो भड़ास निकाली उससे और भी यह स्पष्ट हो गया कि अगर कांग्रेस में आपको बने रहना है तो परिवार के प्रति वफादार रहना ही होगा, अन्यथा आपको जलील होना और गद्दार जैसा तगमा झेलना ही पड़ेगा।
इस मामले ने जैसे ही तूल पकड़ा कांग्रेस इसके ऊपर लीपापोती करने लगी किंतु अब बात निकली है तो दूर तलक जाएगी। फ़िलहाल यह कहने में कोई दोराय नहीं है कि जबतक कांग्रेस के पास नेक नीयत और सही नीति नहीं होगी, इसके पतन की गति बढ़ती ही रहेगी। कांग्रेस की सबसे बड़ी समस्या है जन भावनाओं को समझे बगैर उसमें राजनीतिक अवसर तलाशने की बड़ी भूल करना।
जब नीयत की बात आती है तो हमें राफेल प्रकरण पर कांग्रेस का अड़ियल रवैया नहीं भूलना चाहिए, राममंदिर पर कांग्रेस की दोहरी राजनीति को भी जनता ने भलीभांति देखा है। राफेल पर राहुल गाँधी को सुप्रीमकोर्ट से मिली फटकार, मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग जैसा कुकृत्य, सेना के पराक्रम पर सवाल आदि तमाम मसले हैं जिससे कांग्रेस के प्रति जनता नफरत पर उतारू हो गई और 2014 के मुकाबले नरेंद्र मोदी बड़ी जीत से सत्ता पर काबिज हुए।
मगर कांग्रेस आज भी अतीत से कुछ सबक लेने की मुद्रा में नहीं है। आज भी वह चाहें चीन की बात हो अथवा कोरोना की, नफरत और ‘विरोध के लिए विरोध’ वाली राजनीति का ही सहारा ले रही है। राहुल गाँधी जब किसी मुद्दे को उठाते हैं, तो एक बात की समानता नजर आती है वो है हठधर्मिता और इसका खामियाजा पूरी पार्टी को भुगतना पड़ता है।
आज नेतृत्व की बात हो अथवा संगठन की कांग्रेस हर स्तर पर चरमराई हुई है। उसके क्रियाकलापों को देखकर यह लगने लगा है कि कांग्रेस की स्थिति सुधरने की बजाय आगे और बड़े संकटों से गुजरने की होने वाली है।
(लेखक डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी रिसर्च फाउंडेशन में रिसर्च एसोसिएट हैं। प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं।)