कांगेस के 84वें अधिवेशन में राहुल गांधी ने मोदी-शाह टीम को महाभारत का कौरव और कांग्रेस को पांडव तो बताया, लेकिन यह नहीं बताया कि सच का साथ देने के बावजूद कथित कांग्रेस रूपी पांडवों की लगातार पराजय क्यों हो रही है। मोदी सरकार को घेरने से इतर कोई वैकल्पिक आर्थिक नीति का प्रस्ताव भी कांग्रेस ने नहीं पेश किया। फिर राहुल ने उन कारणों का विश्लेषण भी नहीं किया कि आखिर दो लगातार कार्यकालों के बावजूद 2014 में कांग्रेस अब तक के न्यूनतम स्कोर पर क्यों आउट हुई।
उत्तर प्रदेश की दो और बिहार के एक लोकसभा सीटों के लिए हुए उप चुनाव में नापाक जातिवादी गठजोड़ की जीत क्या हुई, राजनीति में नए-नए समीकरण बैठाने की मुहिम को पंख लग गए। 2019 के आम चुनाव में सीटों की संख्या और मत प्रतिशत को लेकर तरह-तरह के कयास लगाए जाने लगे हैं। कांग्रेस की स्थिति तो बेगाने की शादी में अब्दुल्ला दीवाना वाली है। जिन उप चुनावों में भाजपा की हार से उत्साहित होकर वह 2019 में सत्ता में वापसी का ख्वाब देख रही है, उन उप चुनावों में अपने प्रत्याशियों को मिले वोटों को देखे तो कांग्रेस को जमीनी हकीकत पता चल जाएगी।
उत्तर प्रदेश में 1993 की तरह समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के गठजोड़ की वकालत करने वाले लोग यह भूल जाते हैं कि इन दोनों पार्टियों का वोट बैंक परस्पर अंतर्विरोधी रहा है। इतना ही नहीं, प्रदेश में इन दोनों के वोट बैंक के बीच में ही सबसे ज्यादा वर्ग संघर्ष की घटनाएं होती रही हैं। दूसरे, मोदी विरोधी राजनीति का नारा लगाने वाले 1995 के गेस्ट हाउस कांड को भूल जाते हैं। तीसरे, भाजपा को छोड़कर क्षेत्रीय दलों और कांग्रेस में प्रधानमंत्री पद को लेकर जो “एक अनार सौ बीमार” वाली स्थिति है, उससे कैसे निपटा जाएगा?
उपचुनाव के नतीजों से लगातार सिकुड़ती कांग्रेस को मानो संजीवनी मिल गई है। वह अपनी जमीनी हकीकत को भुलाकर विपक्षी एकता की कवायद में जुट चुकी है। सोनिया गांधी ने 20 राजनीतिक दलों को रात्रि भोज पर बुलाकर गठबंधन राजनीति की कवायद शुरू कर दी है। कांगेस का 84वां अधिवेशन मोदी विरोधी मंच में तब्दील हो गया। अधिवेशन में राहुल गांधी ने अपनी ऊर्जा कांग्रेस के पतन के कारणों का विश्लेषण और वैकल्पिक आर्थिक-राजनीतिक प्रस्ताव पेश करने की बजाय मोदी-शाह को कोसने में खर्च कर दी।
राहुल गांधी ने मोदी-शाह टीम को महाभारत का कौरव और कांग्रेस को पांडव तो बताया लेकिन यह नहीं बताया कि सच का साथ देने के बावजूद कांग्रेस रूपी पांडवों की लगातार पराजय क्यों हो रही है। इसी तरह तमाम मुद्दों पर मोदी सरकार पर आरोप लगाने से इतर कोई वैकल्पिक आर्थिक नीति का प्रस्ताव नहीं पेश किया। फिर राहुल ने उन कारणों का विश्लेषण भी नहीं किया कि आखिर दो लगातार कार्यकाल के बावजूद 2014 में कांग्रेस अब तक के न्यूनतम स्कोर पर क्यों आउट हुई।
राहुल गांधी की काबिलियत इसमें होती जब वे उन कारणों की जड़ तलाशते जिनके कारण कभी देश के हर गांव-कस्बा-तहसील से नुमाइंगी दर्ज कराने वाली कांग्रेस पार्टी लगातार जनाधार खोती गई। राहुल गांधी इस कड़वी हकीकत को जानबूझकर नकार रहे हैं कि जिन क्षेत्रीय दलों के सहारे वे मोदी-शाह टीम को सत्ता से बेदखल करना चाहते हैं, वे क्षेत्रीय दल कांग्रेस की आलाकमान संस्कृति का ही नतीजा हैं।
देश के राजनीतिक परिदृश्य को देखें तो कांग्रेस की स्थिति में गिरावट के समानांतर ही भाजपा तथा क्षेत्रीय दलों के प्रदर्शन में सुधार हो रहा है। चूंकि कांग्रेस क्षेत्रीय अस्मिताओं को सम्मान नहीं दे पाई इसलिए स्थानीय दिग्गजों ने अपनी अलग राह चुन ली। कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व ने कमोबेश यही व्यवहार मतदाताओं के साथ किया। गरीबी, बेकार, असमानता दूर करने के स्थायी उपायों की बजाय कांग्रेस वोट बैंक की राजनीति करने लगी जिससे आम जनता का कांग्रेस से मोहभंग होता चला गया।
कांग्रेस के मतों के क्षेत्रीय दलों के खाते में जाने की शुरूआत हिंदी क्षेत्र में मंडल की राजनीति करने वाले दलों और मायावती के साथ हुई। उसके बाद ओडिशा में उसका स्थान नवीन पटनायक की बीजू जनता दल ने, पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस ने, सीमांध्र और तेलंगाना में जगनमोहन रेड्डी और के चंद्रशेखर राव और दिल्ली में आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल ने ले लिया। ऐसी स्थिति में कांग्रेस और क्षेत्रीय दलों में कैसे सामंजस्य बैठेगा?
दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि कांग्रेस ने जब भी अपना मत प्रतिशत किसी के हाथ गंवाया, वह दुबारा उसे हासिल नहीं कर पाई। सबसे बड़ी विडंबना यह है कि अपने सिकुड़ते दायरे के बावजूद कांग्रेस पार्टी जानबूझकर अपने पतन की असली वजह नहीं तलाश रही है। वह बहुत करती है, तो आत्मचिंतन लेकिन इससे कुछ हासिल नहीं होता है। इसका कारण है आलाकमान संस्कृति। कांग्रेस में जिस आलाकमान संस्कृति को इंदिरा गांधी ने जन्म दिया, उसने कांग्रेस को भले ही एक सूत्र में बांधे रखा लेकिन उसी ने पार्टी में परिवारवाद के बीज बो दिए जिससे कांग्रेस आज तक बाहर नहीं निकल पाई है। दूसरे शब्दों में परिवारवाद ने योग्यता और आंतरिक लोकतंत्र का अपहरण कर रखा है।
कांग्रेस की तुलना में भारतीय जनता पार्टी वोट बैंक की बजाय विकास की राजनीति कर रही है। यही कारण है कि मोदी-शाह के नेतृत्व में उसका तेजी से विस्तार हो रहा है। देश के 20 राज्यों में भाजपा और इसके सहयोगी दलों की सरकार है। आबादी के हिसाब से देखें तो देश की 70 फीसदी आबादी पर भाजपा का कब्जा है।
गौरतलब है कि 2014 में भाजपा की सिर्फ सात राज्यों में सरकारें थीं। पार्टी के 67 फीसदी सांसद भी इन्हीं राज्यों से संबंध रखते थे, लेकिन मोदी-शाह टीम ने अपने अथक परिश्रम से देश के राजनीतिक परिदृश्य को बदल डाला। ऐसे में वोट बैंक की राजनीति करने वाली कांग्रेस केवल निंदा करने के बल पर मोदी-शाह के नेतृत्व वाली भाजपा का मुकाबला नहीं कर पाएगी। यह बात उसे समझ लेनी चाहिए।
(लेखक केन्द्रीय सचिवालय में अधिकारी हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)