चुनाव परिणाम के अगले दिन राहुल मीडिया से मुखातिब हुए और बोले कि गुजरात में हमने बेहतर चुनाव लड़ा है और हमने भाजपा को झटका दे दिया। उन्होंने यह भी कहा कि जनता ने गुजरात मॉडल को नकार दिया। यह बात राहुल ने तब कही जबकि भाजपा पहले से ही बहुमत हासिल करके अपनी सरकार बना चुकी है। वह भी यह चौथा मौका है, जब गुजरात में बीजेपी की लगातार सरकार बनी है। इस बार भाजपा का वोट शेयर भी पहले से बढ़ा है। मगर, जाने किस प्रकार राहुल गांधी को लग रहा कि जनता ने गुजरात मॉडल को नकार दिया। शायद वे भाजपा के कमजोर होने जैसी बेमतलब की दलीलों के जरिये हार की हकीकत से मुंह चुराने में लगे हैं जो कि उनकी ही पार्टी की सेहत के लिए ठीक नहीं है।
गुजरात और हिमाचल प्रदेश के विधानसभा चुनाव परिणाम आ चुके हैं। पिछली बार यानी उत्तरप्रदेश चुनाव की तरह इस बार भी परिणाम में भाजपा का परचम लहराया और कांग्रेस को मुंह की खाना पड़ी। 18 दिसंबर को हुई मतगणना के दिन सुबह से पूरे देश की निगाहें आरंभिक रूझानों की तरफ थीं। जैसे-जैसे बाद के रूझान आते गए, परिणाम की तस्वीर साफ होने लगी। शाम तक सब कुछ स्पष्ट और घोषित हो गया। भारतीय जनता पार्टी ने गुजरात और हिमाचल प्रदेश में विजय प्राप्त की और देश को एक बार फिर से स्थिर व अच्छे शासन का सुखद आश्वासन मिला।
यहां एक बात का उल्लेख करना होगा कि जैसे ही परिणाम आए, कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने सार्वजनिक रूप से ट्वीट करते हुए अपनी हार स्वीकार कर ली। इतना ही नहीं, उन्होंने दोनों राज्यों में बनी नई सरकारों को बधाई भी दी। ऊपर से तो देखने में प्रतीत होता है कि यह एक उचित और सद्भावना पूर्वक दी गई प्रतिक्रिया थी, लेकिन सच्चाई इसके उलट है। लगातार मिल रही करारी हार से राहुल गांधी बुरी तरह बौखला गए हैं और उनके भीतर हीन और असुरक्षा की भावना बहुत गहरा गई है।
चुनाव के पहले तो वे लगातार हल्की और संदर्भ से बाहर की बेकार बयानबाजी कर ही रहे थे, चुनाव परिणाम आने के अगले दिन ही उन्होंने वापस अपना रंग दिखाया। उन्होंने भाजपा सरकार को अपने चिर परिचित अंदाज में कोसना शुरू कर दिया। जब उन्हें कोसना ही था, तो एक दिन पहले ऊपरी मन से दिखावा करके बधाई देने की औपचारिकता जताने की भी क्या आवश्यक्ता थी। असल में राहुल गांधी लगातार हारों से इतने बेअसर, नाकाम हो गए हैं कि उनकी प्रशंसा या आलोचना से अब किसी को कोई फर्क ही नहीं पड़ता है, उनकी बातें बेजान, निराधार और अनाप शनाप होती हैं।
यह आश्चर्य की बात है कि लगातार हारने के बाद भी उनका थोथा दंभ अभी तक नहीं गया है। चुनाव परिणाम के अगले दिन राहुल मीडिया से मुखातिब हुए और बोले कि गुजरात में हमने बेहतर चुनाव लड़ा है और हमने भाजपा को झटका दे दिया। उन्होंने यह भी कहा कि जनता ने गुजरात मॉडल को नकार दिया। यह बात राहुल ने तब कही जबकि भाजपा पहले से ही बहुमत हासिल करके अपनी सरकार बना चुकी है। वह भी यह चौथा मौका है जब गुजरात में बीजेपी की लगातार सरकार बनी है। इस बार भाजपा का वोट शेयर भी पहले से बढ़ा है। मगर, जाने किस प्रकार राहुल गांधी को लग रहा कि जनता ने गुजरात मॉडल को नकार दिया। ऐसी निराधार और निरर्थक बातें करके वे क्या सिद्ध करना चाहते हैं। शायद वे भाजपा के कमजोर होने जैसी बेमतलब की दलीलों के जरिये हार की हकीकत से मुंह चुराने में लगे हैं जो कि उनकी ही पार्टी की सेहत के लिए ठीक नहीं है।
यह बात राहुल ने तब कही जब वे स्वयं लगातार हर मोर्चे पर, राज्य दर राज्य, चुनाव दर चुनाव बुरी तरह विफल होते जा रहे हैं। ऐसे में, उनकी उक्त बातें उनकी राजनीतिक अपरिपक्वता को ही प्रदर्शित करती हैं, उनके पास तथ्यों व जानकारी का भी स्पष्ट अभाव झलकता है। ऐसा लगता है कि वे ना तो अध्ययन करते हैं, ना सूचना समृद्ध हैं और ना ही उनमें वैचारिक गंभीरता है। राजनीति हो या खेल या कोई अन्य क्षेत्र, हर जगह जीत का अर्थ जीत होता है और हार का अर्थ हार ही होता है। खेलों में भी रोमांचक क्षण आते हैं, लेकिन उसके बावजूद किसी एक टीम के सिर जीत का सेहरा बंधता है, तो किसी को पराजय मिलती है। जहां तक गुजरात के चुनाव के परिणाम की बात है यहां भाजपा को पूरी 99 सीटें मिली हैं और कांग्रेस को 77 सीटें। यानी फासला सीधा-सीधा 22 सीटों का है। यह फासला कम नहीं है।
राजनीति में भिन्न दलों का होने के नाते वैचारिक मतभेद होना स्वाभाविक बात है, लेकिन एक राष्ट्रीय पार्टी के अध्यक्ष के रूप में बयानबाजी करते हुए ऐसी निराधार बातें कहना राहुल की बौद्धिकता पर प्रश्नचिन्ह ही खड़े करता है। कहने की जरूरत नहीं कि राहुल गांधी की समझ, बौद्धिकता सभी कुछ संदिग्ध है। वे कम उम्र के व्यक्ति नहीं हैं, जिसकी गलतियां माफ की जा सकें। वे आधा सैकड़ा की आयु तक पहुंच चुके हैं और अब तो वे देश के सबसे पुराने राजनीतिक दल कांग्रेस के अध्यक्ष भी बना दिए गए हैं। इसके बावजूद उनके भीतर अपेक्षित राजनीतिक परिपक्वता नहीं दिखाई दे रही है।
राहुल गांधी को शायद स्वयं पर विश्वास नहीं है, इसीलिए वे हमेशा स्थानीय छोटे-मोटे नेताओं को अपना संगी साथी बना लेते हैं। उत्तरप्रदेश में उन्होंने अखिलेश यादव के साथ गठबंधन किया जिसे वे गर्व की बात समझ रहे थे। वहां उन्हें मुंह की खाना पड़ी। गुजरात में भी उन्होंने अल्पेश ठाकोर, जिग्नेश मेवाणी जैसे जातिवादी नेताओं के साथ सुर में सुर मिलाए। यदि उन्हें स्वयं पर विश्वास होता तो वे किसी की शरण नहीं जाते। इन बातों से उनमें आत्मविश्वास की ही कमी झलकती है। वे स्वयं को भ्रम में रखते हुए कुछ भी ख्वाब देख सकते हैं, लेकिन उन्हें पता नहीं है कि उनकी आंखों के सामने, नाक के नीचे धीरे-धीरे कांग्रेस लुप्त होती जा रही है।
कांग्रेस मुक्त भारत का नारा अब साकार हो रहा है और राहुल गांधी अभी तक भाजपा व मोदी को कोसने की ओछी हरकत से ही नहीं उबर पा रहे हैं। निश्चित ही, गुजरात और हिमाचल में भाजपा की जीत यह साबित करती है कि जनता भाजपा पर विश्वास करती है और गुजरात का विकास मॉडल अब भी उसकी पसंद है। अतः भाजपा के कमजोर होने की निराधार बयानबाजियों की बजाय कांग्रेस के कर्णधारों को सोचना चाहिए कि आखिर हर जगह कांग्रेस का सफाया क्यों हो रहा है। 2019 के लोकसभा चुनाव कांग्रेस और राहुल गांधी के लिए निर्णायक घड़ी साबित होंगे।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)