सबसे बड़ी बात यह है कि इन नतीजों में भविष्य के शुभ संकेत छिपे हैं। यदि कांग्रेस अपने चुनावी वादों पर खरी नहीं उतरती है तो उसकी विश्वसनीयता कम होगी। गौरतलब है कि कांग्रेस शासित पंजाब में कर्जमाफी के बावजूद आज हर रोज तीन किसान आत्महत्या को गले लगा रहे हैं। कमोबेश यही हालत कर्नाटक की भी है।
तीन राज्यों में भारतीय जनता पार्टी को कांटे की टक्कर के साथ मिली पराजय ने कांग्रेस पोषित मीडिया और बुद्धिजीवियों को 2019 के लोक सभा चुनाव की भविष्यवाणी करने का मौका दे दिया। ये लोग यह नहीं देख रहे हैं कि इन चुनावों में कांग्रेस की नहीं बल्कि उसकी कुटिल नीतियों की जीत हुई है। कांग्रेस इस कड़वी हकीकत को जानती है कि युवा बेरोजगारों को सरकारी नौकरियों और किसानों को कर्जमाफी का सब्जबाग दिखाना जितना आसान है उसे पूरा करना उतना ही कठिन। यही कारण है कि चुनाव प्रचार के दौरान लंबे-चौड़े वादे करने वाले राहुल गांधी का स्वर चुनावी नतीजे के बाद बदला-बदला सा लगने लगा।
कांग्रेस के लिए सत्ता साधन न होकर साध्य रही है। यही कारण है कि राज्यों के मुख्यमंत्री पद और मलाईदार मंत्रालयों पर उन्हीं को बैठाया जाता है जो गांधी-नेहरू परिवार के प्रति वफादार रहे हों। राजस्थान और मध्य प्रदेश में मुख्यमंत्री पद के लिए मचे घमासान की असली वजह यही थी। सबसे बढ़कर मुख्यमंत्रियों के चयन में प्रियंका गांधी का परिवार सक्रिय भूमिका में रहा। ये घटनाक्रम कांग्रेस की असलियत उजागर करने के लिए पर्याप्त हैं।
कांग्रेस के लिए सत्ता ऑक्सीजन का काम करती है, इसीलिए कांग्रेसी चुनाव जीतने के लिए अपना चोला तक बदलने में संकोच नहीं कर रहे हैं। जालीदार टोपी लगाकर दरगाहों-मजारों पर फोटो खिंचाने वाले कांग्रेसी नेता अपने को हिंदूवादी नेता साबित कर रहे हैं लेकिन यहां भी इनकी कलई खुलने में देर नहीं लगी। एक ओर कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी मंदिरों में माथा टेक रहे थे तो दूसरी ओर मध्य प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमल नाथ मुसलमानों की सौ फीसदी वोटिंग और हिंदुओं को नोटा इस्तेामल करने के लिए प्रोत्साहित कर रहे थे। इसी का नतीजा रहा कि दर्जनों सीटों पर कांग्रेसी उम्मीदावारों की बढ़त नोटा में पड़े वोटों से कम रही।
मोदी विरोधी इस जमीनी हकीकत को भूल रहे हैं कि छत्तीसगढ़ को छोड़ दें तो मध्य प्रदेश और राजस्थान में कांटे की टककर रही। मध्य प्रदेश में तो आखिरी समय तक बहुमत के पास पहुंचकर भाजपा और कांग्रेस आगे-पीछे चलती रहीं। इसका कारण यह रहा कि कई विधान सभा सीटों पर कांग्रेस-भाजपा उम्मीदवारों के मतों में बहुत मामूली अंतर था। रही बात राजस्थान की तो वहां हर पांच साल बाद सत्ता परिवर्तन की परंपरा रही है।
सबसे बड़ी बात यह है कि इन नतीजों में भविष्य के शुभ संकेत छिपे हैं। यदि कांग्रेस अपने चुनावी वायदों पर खरी नहीं उतरती है तो उसकी विश्वसनीयता कम होगी। गौरतलब है कि कांग्रेस शासित पंजाब में कर्जमाफी के बावजूद आज हर रोज तीन किसान आत्महत्या को गले लगा रहे हैं। कमोबेश यही हालत कर्नाटक की भी है।
यहां कांग्रेस-जद(एस) गठबंधन सरकार द्वारा की गई कर्जमाफी अपने भीतर तमाम विरोधाभास समेटे हुए है। एचडी कुमारस्वामी के नेतृत्व वाली कर्नाटक सरकार ने खुद ही स्वीकार किया है कि कर्जमाफी का फायदा बहुत कम किसानों को मिल पाया है। 44000 करोड़ रूपये की कर्जमाफी का लाभ सिर्फ 800 किसानों को मिल सका है। स्पष्ट है कर्जमाफी में भी घोटाला छिपा है। ऐसे में प्रदेश के लाखों किसान कैसे खुशहाल होंगे?
कड़वी हकीकत यह है कि जिस कर्जमाफी का लालच देकर कांग्रेस ने मामूली बढ़त से सत्ता हासिल की है, वह किसानों को तात्कालिक राहत देने के अलावा कुछ नहीं करेगी। गौरतलब है कि कांग्रेस के लिए किसानों की कर्जमाफी का फार्मूला नया नहीं है। 2009 के लोक सभा चुनाव से ठीक पहले कांग्रेस ने कर्जमाफी का पासा फेंका था जिसने उसे दुबारा सत्ता तो दिला दी लेकिन किसानों की माली हालत बिगड़ती चली गई। आज हर चुनाव के पहले कर्जमाफी की आस में आंदोलनों की बाढ़ कांग्रेस की कर्जमाफी की ही देन हैं। दूसरा नतीजा यह निकला कि कर्जमाफी ने स्वस्थ कर्ज संस्कृति को ध्वस्त कर दिया जिसका खामियाजा अंतत: किसानों को ही भुगतना पड़ रहा है।
समग्रत: कांग्रेसी सब्जबाग थोड़ी देर के लिए भले ही जनता को आकर्षित कर ले लेकिन इससे आम आदमी का भला नहीं होगा। आम आदमी का भला तभी होगा जब बीज, उर्वरक, सिंचाई, ग्रामीण सड़क, बिजली, रसोई गैस, शौचालय, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार जैसी मूलभूत सुविधाएं समाज के सभी वर्गौं तक सुलभ हों। ऐसे दूरगामी उपाय मोदी सरकार ही कर रही है। स्पष्ट है, आम जनता कांग्रेस के खोखले वादों की घेरेबंदी से जल्दी ही बाहर निकलकर भाजपा के विकास की राजनीति को अपना समर्थन देगी।
(लेखक केन्द्रीय सचिवालय में अधिकारी हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)