आम आदमी पार्टी (आप) ने अपनी स्थापना के समय जिस अलग तरह की राजनीति का आह्वान किया था, उसकी धज्जियां खुद उसी ने उड़ाना शुरू कर दिया। व्यक्ति केंद्रित राजनीति, बाहुबलियों व धनकुबेरों को टिकट, अंधाधुंध चुनाव प्रचार जैसी बुराईयों को आम आदमी पार्टी ने भी अपना लिया। दिल्ली में सरकार गठन की पहली सालगिरह (फरवरी, 2016) पर जो भव्य कार्यक्रम आयोजित किया गया था, उसमें बारह-बारह हजार रूपये की थाली परोसी गई। विधायकों की तनख्वाह बढ़ाने में संकोच नहीं किया गया। जन संवाद, मोहल्ला क्लीनिक, वाई-फाई, महिलाओं के लिए सुरक्षा दस्ता जैसी घोषणाएं फाइलों में सिमट कर रह गईं।
अन्ना आंदोलन की कोख से पैदा हुई आम आदमी पार्टी (आप) अपनी स्थापना की पांचवी सालगिरह मनाने में जोर-शोर से जुटी है। दिल्ली के रामलीला मैदान में होने वाले इस समारोह के लिए “क्रांति के पांच साल” नामक नारा दिया गया है। लेकिन जिस शुचिता और ईमानदारी के संकल्प के साथ पार्टी का गठन हुआ था, अब उसका कोई नामलेवा नहीं रह गया है।
सुशासन की प्रतिबद्धता मंत्रियों और खुद अरविंद केजरीवाल के भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ चुकी है। आम लोगों ने यह सोचा था कि अब वैकल्पिक राजनीति की धारा सशक्त होकर आगे बढ़ेगी, लेकिन वह धारा सत्ता की राजनीति में उलझकर रास्ता भटक गई। ‘आप’ ने अपनी स्थापना के समय जो संकल्पना की थी, वे सब अब धूमिल पड़ती जा रही हैं। इसके बावजूद पार्टी आत्मचिंतन नहीं कर रही है।
आम आदमी पार्टी (आप) ने अपनी स्थापना के समय जिस अलग तरह की राजनीति का आह्वान किया था, उसकी धज्जियां खुद उसी ने उड़ाना शुरू कर दिया। व्यक्ति केंद्रित राजनीति, बाहुबलियों व धनकुबेरों को टिकट, अंधाधुंध चुनाव प्रचार जैसी बुराईयों को आम आदमी पार्टी ने भी अपना लिया। दिल्ली में सरकार गठन की पहली सालगिरह (फरवरी, 2016) पर जो भव्य कार्यक्रम आयोजित किया गया था, उसमें बारह-बारह हजार रूपये की थाली परोसी गई। विधायकों की तनख्वाह बढ़ाने में संकोच नहीं किया गया। जन संवाद, मोहल्ला क्लीनिक,वाई-फाई, महिलाओं के लिए सुरक्षा दस्ता जैसी घोषणाएं फाइलों में सिमट कर रह गईं।
इसी तरह भ्रष्टाचार और फिजूलखर्ची आम हो गई। विधायकों की गिरफ्तारी, फर्जी डिग्री, महिलाओं के साथ ज्यादती, केंद्र के साथ टकराव, बहानेबाजी, अनाप-शनाप बयानबाजी ने पार्टी व सरकार के दामन में दाग लगाना शुरू कर दिया। पार्टी के जिन-जिन संस्थापकों ने इसके खिलाफ आवाज उठाई, उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। इतना ही नहीं, जिस लोकपाल का नारा लगाकर पार्टी सत्ता में आई थी, उसने उसी लोकपाल को भुला दिया। उसके नेता कभी प्रधानमंत्री तो कभी उपराज्यपाल तो कभी दिल्ली पुलिस को दोषी ठहराकर “नाच न आवै आंगन टेढ़ा” वाली कहावत को चरितार्थ कर रहे हैं। इस प्रकार व्यवस्था परिवर्तन का ख्वाब दिखाने वाली पार्टी सत्ता की राजनीति करने लगी है।
देखा जाए तो आम आदमी पार्टी का उदय कांग्रेस और जातिवादी पार्टियों की भ्रष्ट राजनीति की प्रतिक्रिया का परिणाम था। केजरीवाल और उनके सार्थियों ने इसी को देखकर जनता को सब्जबाग दिखाया था कि अब आम आदमी चुनाव लड़ेगा, आम आदमी मतदान करेगा और आम आदमी संसद में बैठेगा। यह पार्टी देश की राजनीति और सरकार के कामकाज को पूरी तरह बदल देगी और देश में स्वराज की स्थापना होगी। वर्षों से जाति-धर्म-क्षेत्र-भाषा की राजनीति में उलझी जनता को आम आदमी पार्टी में उम्मीद की एक नई किरण दिखी इसीलिए इसे समाज के सभी वर्गों का भरपूर समर्थन मिला।
इसका प्रमाण है दिल्ली विधानसभा चुनाव में पार्टी की अप्रत्याशित जीत। इस कामयाबी की उम्मीद खुद आम आदर्मी पार्टी के नेताओं को भी नहीं थी। लेकिन पार्टी जनता की भावनाओं को नहीं समझ पाई और राह से भटक गई। आम आदमी पार्टी जिस कांग्रेसी भ्रष्टाचार की पैदाईश थी, उसने उस भ्रष्टाचार को भुलाकर अंध मोदी विरोध का एजेंडा अपना लिया।
राजनीति के अपराधीकरण, काला धन, भ्रष्टाचार, व्यवस्था परिवर्तन जैसे मुद्दे गायब हो गए। पार्टी की राजनीति परिपक्व नीतियों के बजाए सस्ती बिजली-पानी तक सिमट कर रह गई। इसका नतीजा यह हुआ कि पार्टी का जनसमर्थन घटने लगा। इसके बावजूद पार्टी अपनी कमियों को दूर करने के बजाए ईवीएम को दोषी ठहराने लगी। लेकिन ऐसा करते समय पार्टी भूल गई कि इन्हीं ईवीएम मशीनों ने उसे दिल्ली में 70 में से 67 सीटों पर विजय दिलाई थी।
अब तो आम आदमी पार्टी “मोदी रोको” मुहिम के तहत उन राज्यों में चुनाव मैदान में उतरने से परहेज करने लगी है जहां भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस में सीधी टक्कर है। दरअसल पार्टी का मानना है कि उसकी मौजूदगी से कांग्रेस के वोट आम आदमी पार्टी को मिलने लगेंगे, जिससे भारतीय जनता पार्टी की जीत सुनिश्चित हो जाएगी। इस प्रकार कांग्रेस के विरोध में पली-पढ़ी पार्टी अब कांग्रेस को पल्लवित-पुष्पित करने में जुट गई है। इसी रणनीति के तहत पार्टी गुजरात विधान सभा चुनाव में प्रतीकात्मक मौजूदगी दर्ज करा रही है। आगे चलकर राजस्थान, मध्य प्रदेश, कर्नाटक में होने वाले विधानसभा चुनावों में पार्टी कांग्रेस को वाकओवर देने वाली रणनीति अपनाए तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
समग्रत: अन्ना हजारे के जनांदोलन ने राजनीति में जिस शुचिता और ईमानदारी का आह्वान किया था, वह ‘आप’ के लिए अब अतीत की बात बन चुकी है। जिस पार्टी ने जनलोकपाल, स्वराज, मुहल्ला सभा के जरिए सत्ता के विकेंद्रीकरण की बात कही थी, वह अब कांग्रेस को मजबूत बनाकर मोदी को कमजोर करने की कवायद में जुटी है। स्पष्ट है कि ‘आप’ ने जिस सत्ता की राजनीति का आगाज किया है, उसमें आम आदमी की तस्वीर धुंधली पड़ती जा रही है और आम आदमी भी पार्टी से दूर होता जा रहा है।
(लेखक केन्द्रीय सचिवालय में अधिकारी हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)