यह स्वामी जयेंद्र की मौलिक सोच का ही परिणाम था कि दक्षिण भारत के मंदिरों में दलितों को प्रवेश मिलने लगा। वे वैसे भी जातिवाद के खिलाफ थे। धर्म परिवर्तन जैसी बुराई की भी उन्होंने खूब आलोचना की। वे मूल रूप से दक्षिण भारतीय थे, लेकिन उनकी रुचि अखिल भारतीय थी। वेदों के वे बहुत अच्छे ज्ञाता थे। कांची कामकोटि मठ हिंदुओं की दृष्टि से महत्वपूर्ण माना जाता है। इस बात को समझते हुए उन्होंने इसे और अधिक प्रभावशाली बनाया। यही कारण है कि उनके समय में मठ में देश-दुनिया की बड़ी हस्तियों का आना जाना लगा रहता था।
इस सप्ताह शंकराचार्य जयेंद्र सरस्वती के अवसान का समाचार सामने आया। उनके निधन की औपचारिक खबरें मीडिया व प्रचार माध्यमों से जारी की जाती रहीं लेकिन यह केवल खानापूर्ति भर थी। उनके असल व्यक्तित्व का बखान किसी ने नहीं किया। कांची कामकोटि पीठ के 69 वें शंकराचार्य जयेंद्र सरस्वती एक युगपत संत के तौर पर सदा स्मरण किए जाते रहेंगे। युगपत इस अर्थ में, कि जब उन्होंने संन्यास लिया था, तबसे लेकर उनके अवसान तक देश-दुनिया में बहुत कुछ बदल गया।
19 वर्ष की जिस आयु में लोग अपने सांसारिक जीवन की दिशा तय करते हैं, पढ़ाई पूरी करके नौकरी की तलाश करते हैं और संसार की यात्रा आगे बढ़ाते हैं, उसी आयु में उन्होंने संन्यास ले लिया था। यह इस बात का संकेत है कि उनके मुस्कुराते चेहरे के पीछे कितना गांभीर्य था और संन्यास जैसी बड़ी घटना का उन्होंने कितनी सहजता से वरण किया। उन्हें युगपत की संज्ञा देने का एक कारण यह भी बनता है कि उन्होंने शंकराचार्य की धीर-गंभीर छवि को बदला। युवावस्था से लेकर वृद्धावस्था तक के यदि उनके फोटो देखे जाएं तो हम उन्हें सदा मुस्कुराता ही पाएंगे। वे स्वभाव से भी सरल और प्रसन्नचित्त थे। प्रभु भक्ति तो सभी करते हैं, लेकिन इसकी राह में सब कुछ छोड़ देना, हर किसी के बस की बात नहीं होती।
जयेंद्र सरस्वती ने अपने समय और आयु से बहुत आगे का कृत्य कर दिखाया। जब प्रतिष्ठित कांची मठ के उत्तराधिकारी के रूप में उनका अभिषेक किया गया तब भी उनकी आयु अल्प ही थी। महज 19 की आयु में उन्होंने चंद्रशेखरेन्द्र सरस्वती की विरासत को अपने कांधों पर उठाया और इसे अंतिम सांस तक निभाया। संगति उनके स्वभाव का स्थायी भाव था। मूल रूप से तमिलनाडु के तंजावुर जिले के रहने वाले जयेंद्र सरस्वती का राजनीतिक हलकों में अच्छा खासा प्रभाव रहा। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के साथ उनकी मुलाकातें होती रहती थीं।
संन्यास की प्राचीन धारा कहती है कि संत को केवल धर्म कर्म के ही कार्यों में रत रहना चाहिये लेकिन जयेंद्र सरस्वती ने इस मिथक को तोड़ा और नई परिपाटी गढ़ी कि संत को राजनीति में समानांतर रूप से रुचि भी रखना चाहिये और सक्रियता भी बनाए रखना चाहिये। असल में, हमारा समाज राजनीति से संचालित होता है। ऐसे में संत जैसे श्रेष्ठ गण यदि इसमें अपनी दृष्टि नहीं रखेंगे तो समाज को मार्गदर्शन कैसे मिलेगा।
जयेंद्र सरस्वती मौलिक और नवाचारी शंकराचार्य थे। जाति के बंधनों से ऊपर उठकर उन्होंने धर्म को सभी का अधिकार बनाकर प्रतिस्थापित किया। अक्सर संत केवल प्रवचन देने तक ही सीमित रहते हैं और आचरण के तल पर अधिक कुछ नहीं करते, लेकिन जयेंद्र सरस्वती मन से समाजसेवी भी थे। समाज की ज़रूरतों और स्वयं की भूमिका का उन्हें भलीभांति स्मरण था। यही कारण है कि उन्होंने जनसरोकार के कई कार्य किये। कई क्षेत्रों में उन्होंने अस्पताल, स्कूल, कॉलेज आदि खोलने में अपनी भूमिका निभाई। उनकी सहायता से स्थापित यूनिवर्सिटी रियायती शुल्क पर उच्च शिक्षा की सुविधा मुहैया करा रही है। उन्होंने चिकित्सा की सुविधा निशुल्क उपलब्ध कराई। इस आचरण पर गौर करने पर स्पष्ट मालूम पड़ता है कि एक संत के रूप में वे कितने बड़े समाजसेवी थे। उनका सदा यही प्रयास रहता था कि किस प्रकार समाज के लोगों को लाभ दिया जाए। वे सही अर्थों में मनुष्य-हितैषी थे।
अयोध्या मसले में मध्यस्थता के चलते उनकी छवि पर ज़रूर सवाल खड़े हुए लेकिन वे अपना कार्य शांत होकर करते रहे। झंझावातों के बीच शांत चित्त होना आसान नहीं होता, लेकिन जयेंद्र सरस्वती ने हत्या के आरोप जैसा गरल भी विचलित हुए बिना पी लिया। एक मंदिर के प्रबंधक शंकररमन की हत्या के आरोप में वे तीन महीने तक कारावास में रहे, लेकिन प्रकरण लंबा चला। आखिर सत्य की विजय हुई और 8 साल लंबी कानूनी कवायद के बाद उनके सहित शेष लोगों को आरोपों से बरी कर दिया गया।
जब भी किसी सच्चे संत पर सरकार की कार्यवाही की जाती है तो भीतरी तौर पर प्रशासन को भी इस बात का भान हो जाता है कि वे जिस व्यक्ति के खिलाफ ये सब कर रहे हैं, वह मूल रूप से कैसा है। यही कारण है कि 8 साल चली कानूनी लड़ाई के बाद पुडुचेरी की सरकार ने प्रकरण को आगे नहीं बढ़ाया और बिना अपील के ही बरी किए जाने के कोर्ट के आदेश को चुनौती नहीं दी।
यह स्वामी जयेंद्र की मौलिक सोच का ही परिणाम था कि दक्षिण भारत के मंदिरों में दलितों को प्रवेश मिलने लगा। वे वैसे भी जातिवाद के खिलाफ थे। धर्म परिवर्तन जैसी बुराई की भी उन्होंने खूब आलोचना की। वे मूल रूप से दक्षिण भारतीय थे, लेकिन उनकी रुचि अखिल भारतीय थी। वेदों के वे बहुत अच्छे ज्ञाता थे। कांची कामकोटि मठ हिंदुओं की दृष्टि से महत्वपूर्ण माना जाता है। इस बात को समझते हुए उन्होंने इसे और अधिक प्रभावशाली बनाया। यही कारण है कि उनके समय में मठ में देश-दुनिया की बड़ी हस्तियों का आना जाना लगा रहता था।
तमिलनाडु की दिवंगत मुख्यमंत्री जयललिता भी उन्हें अपना अध्यात्मिक गुरु मानती थीं। कई हस्तियों के वे गुरु रहे। 83 वर्ष की दीर्घायु के बाद उनके अवसान की खबर असहज कर देने जैसी थी। जयेंद्र सरस्वती अपने आप में एक मौलिक और विचारवान संत थे। शंकराचार्य के पद पर रहते हुए भी उन्होंने अपने मन में इस पद का मद नहीं आने दिया। वे आजीवन सरल बने रहे। हर छोटे से बड़े व्यक्ति के प्रति उनकी समान व्यवहार दृष्टि रही। निश्चित ही उनके देहांत से अध्यात्म और सेवा का एक सशक्त स्तंभ ढह गया है और इसकी पूर्ति होना असंभव ही है। पीढ़ियाँ उन्हें सदैव याद रखेंगी तथा उनके कर्मों से प्रेरणा लेती रहेंगी।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)