किसी भी प्रदेश में नई सरकार बनती है तो अपने तरीके से काम करती है। इसमें नई योजनाओं को शुरू करना, नई चीजें लाना आदि शामिल रहता है, लेकिन मप्र में कमलनाथ की सरकार कुछ करने की बजाय कुछ “ना” करने पर अधिक ज़ोर देती मालूम होती है। मप्र में भाजपा सरकार द्वारा संचालित योजनाओं, नवाचारों को कमलनाथ की सरकार बस बिना कुछ सोचे-समझे बंद किए जा रही है। ऐसा प्रतीत होता है जैसे कमलनाथ किसी गहरे प्रतिशोध को ठानकर आए हैं और केवल उसीके तहत काम कर रहे हैं।
मध्य प्रदेश में इन दिनों कांग्रेस की नई सरकार काबिज हो चुकी और सरकारी मशीनरी ने नए ढंग से काम करना शुरू कर दिया है। किसी भी प्रदेश में नई सरकार बनती है तो अपने तरीके से काम करती है। इसमें नई योजनाओं को शुरू करना, नई चीजें लाना आदि शामिल रहता है, लेकिन मप्र में कमलनाथ की सरकार कुछ करने की बजाय कुछ “ना” करने पर अधिक ज़ोर देती मालूम होती है। ऐसा लग रहा कि यह सरकार चीजों को शुरू करने की बजाय बंद करने में शायद अधिक विश्वास रखती है।
मप्र में भाजपा सरकार द्वारा संचालित योजनाओं, नवाचारों को कमलनाथ की सरकार बस बिना कुछ सोचे-समझे बंद किए जा रही है। ऐसा प्रतीत होता है जैसे कमलनाथ किसी गहरे प्रतिशोध को ठानकर आए हैं और केवल उसीके तहत काम कर रहे हैं। अभी तक उनके द्वारा उठाए गए कदमों से तो यही सामने आता है।
कमलनाथ जैसा कांग्रेस का वरिष्ठ नेता भी केवल प्रतिक्रियावादी राजनीति करेगा तो छुटभैयों से क्या उम्मीद की जाए भला। हालिया वाकयात हैरान करते हैं। कमलनाथ ने सत्ता में आते ही पूर्व सीएम शिवराज सिंह चौहान की पहल से शुरू की गई योजनाओं, नवाचारों को बंद करना शुरू कर दिया। यह काम उन्होंने इतनी प्राथमिकता और गंभीरता से किया मानो इसके लिए कोई “ऊपरी आदेश” आया हो और तय एजेंडा के अनुसार वे इसका पालन कर रहे हों।
कमलनाथ ने आते ही यह करामत की कि मप्र में मीसाबंदियों की पेंशन बंद कर डाली। इसे उन्होंने कथित तौर पर फिजूलखर्ची बताया। ये वही मीसाबंदी हैं जिन्होंने उस समय इंदिरा गांधी की तानाशाही के खिलाफ साहस से अपना सीना बुलंद किया था, जब देश में आपातकाल जैसा काला अध्याय तारी हुआ था और दमनकारी सरकार के खिलाफ लड़ने का अदम्य हौसला दिखाया गया था।
यहां यह उल्लेख करना अहम होगा कि मप्र में वर्ष 2008 मीसा बंदी पेंशन योजना आरंभ हुई और उस समय केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी जो इसके बाद 6 साल और कायम रही। इन 6 वर्षों में केंद्र की कांग्रेस सरकार ने भी शिवराज के होने के कारण इस योजना पर नजरें टेढ़ी नहीं कीं और इधर कमलनाथ ने आते ही इससे ऐसा बेर निकाला मानो किसी मिशन पर आए हों।
यहां तक तो फिर भी ठीक था लेकिन इसके बाद तो कमलनाथ ने हद ही कर दी। उन्होंने मप्र में हर महीने की पहली तारीख को सरकारी कार्यालयों में होने वाले वंदे मातरम समूह गान को रोकने का फैसला सुनाया। पूर्व सीएम शिवराज सिंह चौहान ने इस पर हमला बोलते हुए कहा कि यदि कांग्रेस को वंदे मातरम गान करने में शर्म महसूस होती हो तो मुझे बताएं, मैं खुद महीने की पहली तारीख को मंत्रालय में आकर अवाम के साथ वंदे मातरम गाऊंगा। भाजपा कार्यकर्ताओं ने भी इसे लेकर अपना विरोध प्रदर्शन किया।
जब कमलनाथ को आभास हुआ कि उन्होंने गलती कर दी है तो झट से उन्होंने यू टर्न ले लिया और नया निर्णय लेते हुए वंदे मातरम गान के प्रारूप को बदलने का हवाला दिया। अब नई व्यवस्था के अनुसार यह महीने की पहली तारीख को सुबह 10.45 पर पुलिस बैंड के संगीत के साथ गाया जाएगा। लेकिन सवाल यह उठता है कि जब वंदे मातरम के मूल स्वरूप को कायम ही रखना है और प्रस्तुतिकरण को ही बदलना है तो इसे बंद भी क्यों किया गया और इसमें बदलाव की ऐसी भी क्या आवश्यक्ता आन पड़ी।
कमलनाथ को अभी मप्र में सत्ता में आए ठीक से एक महीना भी पूरा नहीं हुआ है और वे इतनी जल्दबाजी में दिखते हैं जैसे सत्ता के लिए बुरी तरह तड़प रहे थे और सत्ता मिलते ही सुध-बुध खो बैठे हैं। मप्र की सरकार ने समाज के आम लोगों की समस्या सुनने के लिए जनसुनवाई योजना की शुरुआत की थी जिसमें जिला मुख्यालय पर जिम्मेदार, आला अधिकारी स्वयं जनता की समस्या सुनते थे।
कमलनाथ की सरकार आते ही जनसुनवाई का आयोजन भी खटाई में पड़ गया। आखिर जनता की समस्या हल करने जैसी योजना में ऐसा क्या आपत्तिजनक हो सकता है जो इसके प्रति भी सरकार की नज़रें टेढ़ी हो गईं। असल में, यह कांग्रेस के संस्कार ही हैं।
सोशल मीडिया के दबाव में आकर कमलनाथ ने किसानों के लिए कर्जमाफी की घोषणा तो कर दी, लेकिन बाद में यूरिया का संकट पैदा हो गया, उसे लेकर कोई कार्ययोजना सामने नहीं आई है। पुलिसकर्मियों को साप्ताहिक अवकाश दिए जाने की घोषणा तो कर दी लेकिन इसके व्यवहारिक पहलुओं पर अभी बातें ही चल रही हैं।
समग्र दृष्टि से देखा जाए तो कमलनाथ केवल सुर्खियां बटोरते ही नज़र आ रहे हैं और हैरत है कि इसके लिए वे नकारात्मकता का रास्ता चुन रहे हैं। पूर्ववर्ती सरकार के कामों, प्रयासों को इस तरह खारिज करने से बेहतर होगा कि कांग्रेस स्वयं कोई नवाचार प्रस्तुत करे और भाजपा की लकीर को मिटाने की बजाय स्वयं की लकीर को बड़ा करे।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)