इसमें कोई दोराय नहीं कि लोकतंत्र में सबको अपनी बात कहने का अधिकार है, अतः इन लोगों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर कोई सवाल नहीं उठाया जा सकता। मगर इन्होने जिस ढंग से अपनी बात कही है, वो इनकी नीयत को सवालों के घेरे में लाता है। यदि इन्हें वाकई में मोब लिंचिंग की घटनाओं को लेकर चिंता थी, तो प्रधानमंत्री से मुलाकात करके अपनी बात सीधे उनतक पहुंचा सकते थे। अगर इन्हें पत्र ही लिखना था, तो चुपचाप सीधे प्रधानमंत्री कार्यालय को पत्र लिखकर भी अपनी बात कह सकते थे। ये तरीके ज्यादा प्रभावी होते। मगर इन्होने अपने वैचारिक आकाओं को जंचने वाले चुने हुए मुद्दों पर आधारित एक सार्वजनिक पत्र लिखकर केवल और केवल समाज के बीच एक गलत सन्देश देने व देश की छवि खराब करने की कोशिश की है।
गत दिनों साहित्य, सिनेमा आदि के क्षेत्र से सम्बंधित देश के उनचास लोगों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम एक सार्वजनिक पत्र लिखा। पत्र में ‘जय श्रीराम’ की तुलना ‘वॉर क्राई’ से करते हुए धर्म के नाम पर मुस्लिमों, दलितों की हत्या के मामलों पर चिंता जताई गयी है। इस पत्र के जवाब में इसी तरह की इकसठ अन्य हस्तियों, जिनमें अभिनेत्री कंगना रानावत, गीतकार प्रसून जोशी, निर्देशक मधुर भंडारकर, निर्देशक विवेक अग्निहोत्री, गायिका मालिनी अवस्थी जैसे नाम शामिल हैं, ने भी एक पत्र जारी किया।
इस पत्र में उक्त उनचास लोगों पर कई सवाल उठाए गए हैं। उनसे पूछा गया है कि जब बंगाल में ‘जय श्रीराम’ का नारा लगाने के लिए गिरफ्तारी हुई, तब वे लोग कहाँ थे? जब कैराना से हिन्दुओं का पलायन हुआ, कश्मीरी पंडितों को घाटी से खदेड़ दिया गया, तब वे कहाँ थे? ऐसे और भी बहुत से वाजिब सवाल इस पत्र में उठाए गए हैं।
इकसठ लोगों का ये पत्र केवल एक प्रतिक्रिया भर है, प्रकरण का मूल उनचास लोगों का पहला पत्र ही है। जिन उनचास लोगों ने ये पत्र लिखा, उनमें फिल्म निर्देशक अनुराग कश्यप, अपर्णा सेन, अभिनेत्री कोंकोणा सेन, निर्देशक श्याम बेनेगल, इतिहासकार रामचंद्र गुहा, निर्देशक मणिरत्नम, सौमित्र चटर्जी, अदिति बासु आदि कुछ प्रमुख नाम हैं। हालांकि मणिरत्नम की टीम ने अब इस पत्र में उनके फर्जी हस्ताक्षर होने की बात कहते हुए इसमें उनकी भागीदारी से इनकार कर दिया है।
इसमें कोई दोराय नहीं कि लोकतंत्र में सबको अपनी बात कहने का अधिकार है, अतः इन लोगों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर कोई सवाल नहीं उठाया जा सकता। मगर इन्होने जिस ढंग से अपनी बात कही है, वो इनकी नीयत को सवालों के घेरे में लाता है। यदि इन्हें वाकई में मोब लिंचिंग की घटनाओं को लेकर चिंता थी, तो प्रधानमंत्री से मुलाकात करके अपनी बात सीधे उनतक पहुंचा सकते थे। अगर इन्हें पत्र ही लिखना था, तो चुपचाप सीधे प्रधानमंत्री कार्यालय को पत्र लिखकर भी अपनी बात कह सकते थे। ये तरीके ज्यादा प्रभावी होते। मगर इन्होने अपने वैचारिक आकाओं को जंचने वाले चुने हुए मुद्दों पर आधारित एक सार्वजनिक पत्र लिखकर केवल और केवल समाज के बीच एक गलत सन्देश देने व देश की छवि खराब करने की कोशिश की है।
अगर इनसे पूछा जाए कि इतना वितंडा खड़ा करके इन्हें सम्बंधित मुद्दे पर क्या हासिल हुआ या होने की उम्मीद है तो शायद इनके पास कोई जवाब नहीं होगा। वास्तव में, इन लोगों को मोब लिंचिंग का शिकार लोगों से कोई सहानुभूति नहीं है, बल्कि इस पूरे प्रकरण में वो लोग इन पत्र-लेखक वीरों के लिए केवल अपने एजेंडे को बढ़ाने का एक उपकरण भर रहे हैं। अगर इनके लिए वे लोग महत्वपूर्ण होते तो ये मरने वालों को मुसलमान और दलित के चश्मे से नहीं देखते।
गौर करें तो इन उनचास हस्तियों में से जितने प्रमुख नाम हैं, वे चर्चित जरूर हैं, मगर एक लम्बे समय से अपने क्षेत्र में कोई भी उल्लेखनीय रचनात्मक कार्य के कारण चर्चा में नहीं आ सके हैं। शायद इस कारण वे कुछ भी करके चर्चा में आने की ग्रंथि का शिकार हो गए हैं और इस तरह की गतिविधियाँ कर रहे हैं।
बात यहीं खत्म नहीं होती, इस पत्र-प्रकरण का असर हिंदी के एक कथित बड़े कवि महोदय तक भी पहुँच गया। वे इससे इतने उद्विग्न हुए कि अपना सारा रोष हिंदी भाषा पर व्यक्त करते हुए उन्होंने फेसबुक पर पोस्ट लिखकर यह घोषणा कर डाली कि हिंदी में कहानी, कविता और उपन्यास जैसी विधाओं की मृत्यु हो चुकी है तथा हिंदी अब केवल ‘जय श्री राम’ और ‘मुसलमान का एक स्थान, कब्रिस्तान या पाकिस्तान’ जैसी चीजों की भाषा रह गयी है। साथ ही, हिंदी में लेखन करने के लिए उन्होंने अपनी ग्लानि भी जाहिर कर दी। इन कविवर की समस्या यह है कि ये कुछ नया लिखने के कारण चर्चा में नहीं आ पा रहे। इन्हें हिंदी कविता, कहानी और उपन्यास की मृत्यु दिख रही है।
कहानी, कविता, उपन्यास जैसी विधाओं की मृत्यु की घोषणा एवं अनर्गल ढंग से हिंदी को सांप्रदायिक करार देने की कोशिश इस पोस्ट की सबसे ज्यादा आपत्तिजनक बात है। कवि जी को स्पष्ट करना चाहिए कि आखिर उन्होंने किस आधार पर हिंदी के साम्प्रदायिकरण का दावा किया है? यह भी कि उक्त तीन विधाओं को मृत बताने के पीछे उनके पास क्या तर्क, क्या तथ्य हैं? क्या आज इन विधाओं में जो साहित्य लिखा जा रहा है, उसको उन्होंने पढ़ा है?
ये आवश्यक नहीं कि जिसे वे बेहतर साहित्य मानते हों, वो ही बेहतर हो और जो उनकी दृष्टि में उत्तम न हो, उसे अस्वीकार दिया जाए। साहित्य किसी एक व्यक्ति की थाती नहीं, पूरे समाज की एक परम्परा होता है। विधाओं की मृत्यु की घोषणा करने से पूर्व यह बात कविवर को सोचनी चाहिए थी। वे आज के लेखन पर तर्कों के साथ सवाल खड़े कर सकते थे, मगर उसे मृत घोषित कर देना कदापि उचित नहीं है।
किसी विधा के जीवित होने का प्रमाण क्या है? यही न कि उसमें कितना साहित्य रचा जा रहा है और उसे कितनी स्वीकृति मिल रही है। सो हिंदी उपन्यास और कहानी आज भी बड़ी मात्रा में रचे जा रहे हैं व समकालीन समस्याओं, चुनौतियों व जीवन की जटिलताओं को अभिव्यक्त करने के सशक्त माध्यम के रूप में स्थापित हैं। विषयवस्तु से लेकर भाषा-शैली तक इन विधाओं ने पूर्व की तुलना में बहुत विकास किया है।
आज लोकप्रिय वरिष्ठ लेखक नरेंद्र कोहली की कलम से ‘वरुणपुत्री’ जैसा उपन्यास निकल रहा है, जिसमें आधुनिकता और पुरातनता के साथ-साथ फैंटेसी का भी सम्मिश्रण है। वरिष्ठ लेखिका चित्रा मुद्गल किन्नर-जीवन पर केन्द्रित ‘पोस्ट बॉक्स नम्बर- 203 नाला सोपारा’ की रचना की हैं। रत्नेश्वर जैसे लेखक भी हैं, जिन्होंने ग्लोबल वार्मिंग जैसी विश्वव्यापी समस्या पर शोध के साथ ‘रेखना मेरी जान’ लिखा है और आगे पानी पर एक शोधपूर्ण उपन्यास लाने में जुटे हैं।
ये सब हाल के वर्षों में आए कुछ उपन्यासों के नाम हैं, ऐसी और भी अनेक कृतियाँ इस दौरान आई हैं, इनके जिक्र का आशय बस इतना बताना है कि वर्तमान समय में हिंदी उपन्यास का फलक लगातार विस्तार को प्राप्त हो रहा है। नए लेखक भी लिख और बिक दोनों रहे हैं तथा अपने साहित्यिक काल के निर्माण में जुटे हैं। हिंदी कहानी भी अलग-अलग प्रयोगों के साथ अपनी भूमिका का संतोषजनक निर्वहन कर रही है। हालांकि जैसा कि हर युग में होता है, इस युग में भी इन विधाओं के साथ कुछेक चुनौतियाँ व समस्याएँ हैं, मगर इनके अस्तित्व पर कोई संकट हो, ऐसा बिलकुल नहीं है।
अब बात हिंदी कविता की करें तो यह ठीक है कि आज उसकी दशा कहानी व उपन्यास जैसी विधाओं की अपेक्षा बहुत बेहतर नहीं कही जा सकती। हिंदी में कविताएँ रची तो आज भी खूब जा रही हैं, लेकिन उनमें कविता के वो तत्व नहीं दिखाई देते जिनके जरिये वो जनसामान्य से सहज ही जुड़ाव स्थापित कर लेती थी।
आज मुख्यधारा की हिंदी कविता केवल बौद्धिक चारदीवारी के भीतर विमर्श की वस्तु बनकर रह गयी है। वास्तव में एक विधा के रूप में हिंदी कविता के विनाश की शुरुआत वामपंथी विचारधारा से प्रभावित प्रगतिवादी युग से ही हो गयी थी। प्रगतिवादी युग में हिंदी कविता को छायावाद के कल्पना-लोक से हकीकत की जमीन पर लाकर सामाजिक यथार्थ से जोड़ने के नाम पर वामपंथी रचनाकारों द्वारा जिस तरह से इसकी शिल्पगत कसौटियों को एक-एक कर भंग करने की कु-परम्परा का सूत्रपात किया गया, उसीने हिंदी कविता की वर्तमान दुर्दशा की पृष्ठभूमि का निर्माण किया।
हिंदी कविता की इस दुर्दशा में, आज उसके हाल पर व्यथित होने इन कवि महोदय और उनके साथी कवियों का दोष भी कम नहीं है। इन्होने जो काव्य-रचना की है, वो केवल इन लोगों के आपसी विचार-विमर्श तक सीमित है, जनसामान्य के लिए उसमें कोई आकर्षण नहीं है। इसके बावजूद हिंदी कविता अभी मरी नहीं है, वो जीवित है और मंचीय कवियों के कंठ में सांस ले रही है और देर-सबेर यहीं से वो अपने अस्तित्व का नया अध्याय लिखेगी। अतः इन कवि महोदय को विधाओं की मृत्यु का बेसुरा राग गाना बंद करना चाहिए।
बहरहाल, पत्र-प्रकरण से लेकर इन कवि महोदय की इस ग्लानि-गाथा तक की घटनाओं से यह स्पष्ट है कि इन दिनों एक ख़ास विचारधारा के लोगों, जिनसे कुछ रचनात्मक नहीं हो पा रहा, का नकारात्मक गतिविधियों द्वारा चर्चा में बने रहना शगल बन गया है। लेकिन इस चक्कर में देश और समाज का जो नुकसान हो रहा है, उसकी इन्हें शायद कोई फ़िक्र नहीं।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)