वामपंथी शासन की नियति ही है तानाशाही

कहने को चीन में भी संविधान, लोकतंत्र है। लेकिन, वहां के संविधान और लोकतंत्र की परिभाषा अलग है। माओ और डेंग के बाद अब शी चीन के तानाशाह शासक हैं। भला हो, हिन्दुस्तान की जनता का कि वर्षों भारतीय वामपंथियों के चीन और सोवियत संघ से जाकर सबको समानता का अधिकार देने के अनोखे फॉर्मूले को यहां लागू करने नहीं दिया। बल्कि, जैसे-जैसे समझ आता गया, वामपंथियों की तानाशाही को लोकतांत्रिक तरीके से खत्म किया।

चीन ने शी जिनपिंग को ताउम्र राष्ट्रपति रहने का अधिकार दे दिया है। हालांकि जिस तरह से जिनपिंग को यह अधिकार मिला है, उससे सन्देह होता है कि अधिकार चीन ने दिया है या फिर जिनपिंग और उनके समर्थकों ने कम्युनिष्ट पार्टी ऑफ चाइना के एकदलीय शासन में छीन लिया है। निर्बाध, ताउम्र सत्ता के लिए चीन में मतदान हुआ है और चीन की नेशनल पीपुल्स कांग्रेस के 2963 सदस्यों में से 2958 सदस्यों ने शी जिनपिंग को चीन का राजा बना दिया है। चीन में राजशाही को हटाकर ही वामपंथी शासन जनता ने चुना था। लेकिन, कहां अन्दाजा रहा होगा कि वामपंथ की नियति राजशाही नहीं, तानाशाही है। हालांकि 2 सदस्यों के विरोध और 3 सदस्यों के अनुपस्थित रहने भर से भारत में वामपंथी राज का सपना देखने वाले इसे भी लोकतांत्रिक बता सकते हैं।

वामपंथ के पैरोकार कह सकते हैं कि देखिए इतने सालों के अघोषित तानाशाह शासन के बावजूद मतदान हुआ और लोकतांत्रिक तरीके से ताउम्र शी को सत्ता दे दी गई। इस तरह की बहस सुनते लगता है कि कार्ल मार्क्स ने भले ही धर्म को अफीम बताया था। लेकिन, सच यही दिखता है कि वामपंथ की तगड़ी वाली अफीम ऐसे मार्क्स ने चटाई कि उस विचार में एक बार जाने वाले आजीवन सबकी समानता के सपने में अपने जीवन की हर स्वतंत्रता गिरवी रखते चले जाते हैं।

हिन्दुस्तान के सन्दर्भ में देखिए कि यहां के मूल लोकतांत्रिक स्वभाव ने ऐसा किया कि वामपन्थियों की भी दसियों पार्टियां बन गईं। लेकिन, जहां वामपन्थियों का एकछत्र राज रहा, वहां किसी दूसरे को छोड़िए, वामपंथी विचार को भी विरोध, असहमति की इजाजत नहीं है। रचनात्मकता के दुनिया के सबसे बड़े स्वघोषित ठेकेदार वामपन्थियों के शासन वाले चीन में किसी तरह की रचनाधर्मिता तभी तक चलती है, जब तक वहां की सत्ता के साथ है।

कहने को चीन में भी संविधान, लोकतंत्र है। लेकिन, वहां के संविधान और लोकतंत्र की परिभाषा अलग है। माओ और डेंग के बाद अब शी चीन के तानाशाह शासक हैं। भला हो, हिन्दुस्तान की जनता का कि वर्षों भारतीय वामपंथियों के चीन और सोवियत संघ से जाकर सबको समानता का अधिकार देने के अनोखे फॉर्मूले को यहां लागू करने नहीं दिया। बल्कि, जैसे-जैसे समझ आता गया, वामपंथियों की तानाशाही को लोकतांत्रिक तरीके से खत्म किया।

ताजा उदाहरण भारत के त्रिपुरा राज्य का है। जहां राज्य से वामपंथी सत्ता जाने के बाद देश जान पाया कि राज्य में सातवां वेतन आयोग तो दूर की कौड़ी है। वामपंथी सत्ता जाने के बाद ही देश जान पाया कि देश में सबसे कम मजदूरी त्रिपुरा में मिलती है। वामपंथी सत्ता जाने के बाद ही देश जान पाया कि त्रिपुरा में विकास के नाम पर माणिक सरकार की सादगी दिखाई जाती रही। बेहद सादगी से जीने वाले माणिक सरकार तो हेलीकॉप्टर से उड़ते रहे और वहां की जनता बिना रास्ते के आंखों में मार्क्स का दिखाया, सबको समानता वाला अफीम चाटे जहालत झेलती रही।

त्रिपुरा से पहले ऐसे ही देश में सबसे ज्यादा समय तक वामपंथी रहे राज्य बंगाल से वामपंथी सत्ता जाने के बाद देश के लोगों को समझ आया कि अंग्रेजों से पहले देश का सबसे बड़ा कारोबार का केंद्र कोलकाता कैसे बर्बाद हो गया। देश के लोगों को समझ आया कि सबको समानता के नाम पर कैसे राजनीतिक हत्या को मार्क्स का सपना पूरा करने का रास्ता बता दिया गया। त्रिपुरा, बंगाल और केरल हिन्दुस्तान के ऐसे राज्य हैं, जहां राजनीतिक हत्याओं को सरकारी संरक्षण मिला हुआ है।

बिहार और उत्तर प्रदेश को कानून-व्यवस्था के नाम पर बदनाम किया जाता रहा है। लेकिन, सच यही है कि राजनीतिक हत्याओं के मामले में वामपंथी शासन वाले त्रिपुरा, बंगाल और केरल के सामने देश का कोई राज्य टिकता ही नहीं है। दुर्भाग्य यह है कि वामपंथी शासन खत्म करने के लिए कांग्रेस की नेता रही ममता बनर्जी को भी वामपंथी अतिवाद, राजनीतिक हत्या वाला रास्ता ही ठीक लगा।

विचार के तौर पर बेहद सरोकारी, सबको समानता का अधिकार देने वाले, पूंजीवाद की बुराइयों से लड़ने का भ्रम पैदा करने वाले वामपंथी विचार के सपने ऐसे होते हैं, जो सबसे नीचे तबके के लोगों को लुभाते हैं और दुर्भाग्य यह कि सबसे ज्यादा नीचे के तबके के लोगों को ही मारते हैं। उदाहरण के लिए, बंगाल और केरल के अतिकुलीन वामपंथी ही लम्बे समय से सीपीएम पोलित ब्यूरो चला रहे हैं। महिला और दलित अधिकारों के लिए लड़ने के विचार वाली पार्टी में इन दोनों को ही बमुश्किल जगह मिल पाती है। अल्पसंख्यकों को भी नहीं।

याद करके बताइए कि सीपीएम के बड़े नेताओ में आप किस मुस्लिम नेता को जानते हैं। लेकिन, समाज को तोड़ने के लिए वामपंथ हिन्दुओं को जाति में बांटकर मुस्लिम गठजोड़ के साथ वर्ग संघर्ष की जमीन पक्की करता रहता है। पूंजीवाद का विरोध करते वामपंथी हमेशा उद्योगपतियों के एक वर्ग के कब्जे को लेकर सबको डराते रहते हैं। चीन में किस तरह से सीपीसी समर्थित कारोबारियों को ही आगे बढ़ने का मौका मिलता है, यह दुनिया ने देखा है।

पूंजीवाद खत्म करके समानता लाने के लिए वामपंथ क्या करने को कहता है। उत्पादन के साधन पर कब्जा करना सबसे ऊपर है। उत्पादन के साधन, मतलब जमीन, रियल एस्टेट, मशीन, फैक्ट्री, सोना, तकनीक और इस पर कब्जा करके उसे वामपंथी विचार के अनुरूप बनाने के लिए जरूरी सुधार करना। कहने को यह सब सामूहिक मालिकाना हक के तौर पर होता है। लेकिन, यह साफ नजरर आता है कि राजशाही से भी खतरनाक तय लोगों का समूह धीरे-धीरे लोकतांत्रिक वामपंथी विचार के तौर पर तानाशाही तरीके से काबिज होता जाता है।

चीन के ताउम्र रहने वाले राष्ट्रपति शी जिनपिंग के बारे में कम ही लोगों को यह जानकारी होगी कि शी जिनपिंग, माओ के अतिविश्वसनीय शी झॉन्गजुन के बेटे हैं। आप शी जिनपिंग को इस लिहाज से सामान्य राजकुमार भी मान सकते हैं। इसीलिए बार-बार माओ और शी की तुलना भी की जाती है। शी चीन के भ्रष्टाचार के खिलाफ बड़ी लड़ाई लड़ रहे हैं। लेकिन, इसमें समझने वाली बात यह भी है कि ज्यादातर भ्रष्टाचार कम्युनिष्ट पार्टी के शीर्ष पर रहे या उनसे जुड़े लोगों के ही हैं।

चीन की आर्थिक नीतियों के दुष्परिणाम से चीन की बड़ी आबादी अपने मूल अधिकारों से वंचित है। बच्चे तक पैदा न करने की छूट तो, दुनिया को पता है। लेकिन, सरकार की तय नीतियों के आधार पर मजदूरों के लिए अलग शहर बसा देना, जहां वे अपने परिवार के साथ नहीं रह सकते। हर तरह के दरवाजे बन्द करना, जिससे वे दुनिया देख सकते हैं। इसका नतीजा यह भी हुआ कि हाल के दिनों में शी के खिलाफ विरोध के स्वर तेजी में उभरे।

अमेरिकी राष्ट्रपति के डोनाल्ड ट्रम्प के खिलाफ चलने वाला ‘नॉट माई प्रेसिडेंट’ अभियान तो दुनिया को पता है। राष्ट्रपति बनने के बाद भी ट्रम्प का गन्दा से गन्दा कार्टून बनाने से लेकर हर तरह का अभियान चलाना अमेरिका में अभी भी हो रहा है। लेकिन, चीन में भी लम्बे समय से दबे-छिपे ही सही शी जिनपिंग के लिए नॉट माई प्रेसिडेंट अभियान चल रहा है। लेकिन, यह बात दुनिया को शायद ही पता चलेगी। क्योंकि चीन में एकदलीय, तानाशाही, वामपंथी शासन है, जहां जनता के पास कोई मूलभूत अधिकार है ही नहीं। सारे अधिकार राज्य के पास हैं।

रचनात्मकता पर सबसे पहला हमला दुनिया की वामपंथी सरकारों ने किया है। सोवियत संघ से चीन और नेपाल तक राजशाही को हटाकर सत्ता पाने वाले वामपंथी तानाशाह के तौर पर स्थापित हुए। उसी परम्परा को शी आगे बढ़ा रहे हैं। वामपंथी शासक सीधे तौर पर दुनिया में साढ़े आठ करोड़ से ज्यादा हत्याओं के जिम्मेदार ठहराए जाते हैं। हालांकि इसका कोई पक्का आंकड़ा स्थापित करने के लिए नहीं हैं। लेकिन, चीन के थ्येनआनमेन चौक पर छात्रों पर टैंक चढ़ाना हो या फिर भारत में केरल, त्रिपुरा और बंगाल में राजनीतिक हत्याओं का होना, इससे वामपंथी विचार के शासन में लोकतंत्र की हत्या और तानाशाही का सबूत मिल जाता है।

2014 में जब चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने इक्कीसवीं शताब्दी के मध्य तक एक ऐसे साम्यवादी चीन की कल्पना की थी, जो समृद्ध, लोकतांत्रिक और सांस्कृतिक विरासत के साथ सौहार्द वाला हो, तो उस समय ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री टोनी अबॉट ने इस बात पर आश्चर्य जताया था कि चीन का कोई नेता लोकतंत्र की बात कर रहा है। सिर्फ चार साल बाद 2018 में ही शी ने वामपंथी, साम्यवादी लोकतंत्र का मतलब दुनिया को बता दिया है। इसलिए भारतीय सन्दर्भ में वामपंथ की अवधारणा को ठीक से समझे जाने की जरूरत ज्यादा महत्वपूर्ण हो गई है।

हाल ही में केरल के इडुक्की जिले में सीपीएम की बैठक के बाहर उत्तर कोरिया के तानाशाह किम जोंग उन के पोस्टर देखने को मिले थे। केरल सरकार में ऊर्जा मंत्री एम एम मणि के विधानसभा क्षेत्र में ऐसे पोस्टर लगे थे। भारत और दुनिया के लिए लोकतंत्र का मतलब जनता के जरिए चुनी सरकार का राज होता है जबकि वामपंथी, साम्यवादी विचार में लोकतंत्र का मतलब उसी विचार के तानशाह शासकों का सत्ता चलाना।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)