इस बार ना तो कोई सत्ताविरोधी लहर है, ना ही सरकार के खिलाफ ठोस मुद्दे और ना ही विपक्ष के पक्ष में हवा। बल्कि अगर यह कहा जाए कि समूचे विपक्ष की हवा ही निकली हुई है तो भी गलत नहीं होगा। क्योंकि जो भ्रष्टाचार का मुद्दा अब तक के लगभग हर चुनाव में विपक्षी दलों का एक महत्वपूर्ण हथियार होता था इस बार उसकी धार भी कुंद है।
देश में एक बार फिर चुनाव होने जा रहे हैं और लगभग हर राजनैतिक दल मतदाताओं को “जागरूक” करने में लगा है। लेकिन इस चुनाव में खास बात यह है कि इस बार ना तो कोई सत्ताविरोधी लहर है, ना ही सरकार के खिलाफ ठोस मुद्दे और ना ही विपक्ष के पक्ष में हवा। बल्कि अगर यह कहा जाए कि समूचे विपक्ष की हवा ही निकली हुई है तो भी गलत नहीं होगा। क्योंकि जो भ्रष्टाचार का मुद्दा अब तक के लगभग हर चुनाव में विपक्षी दलों का एक महत्वपूर्ण हथियार होता था इस बार उसकी धार भी कुंद है।
इस बात का एहसास देश की सबसे पुरानी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष को भी हो गया है, शायद इसलिए कल तक जिस राफेल विमान की सवारी करके वो सत्ता तक पहुंचने की लगातार कोशिश कर रहे थे, आज वो उनके चुनावी भाषणों से ही फुर्र हो चुका है । हाँ लेकिन चौकीदार पर नारे वो अपनी हर चुनावी रैली में लगवा ही लेते हैं। लेकिन उनके ‘चौकीदार चोर है’ के नारे की हवा “मैं भी चौकीदार” कैंपेन ने उतनी नहीं निकाली जितनी मात्र चार माह पुरानी खुद उनकी ही मध्यप्रदेश की कमलनाथ सरकार के करीबियों पर पड़े हाल के ई डी के छापों ने निकाल दी।
लेकिन यह पहली बार नहीं है जब उनके चुनावी मुद्दे खुद उन्हीं की पार्टी ने उनसे छीन लिए हों। इससे पहले भी जब तीन राज्यों के विधानसभा चुनावों में उनका किसानों की कर्जमाफी का कार्ड उनके लिए संजीवनी साबित हुआ था, तब उन्हें इसी कर्जमाफी में लोकसभा चुनावों की जीत की कुंजी भी दिखाई देने लगी थी।
देश भूला नहीं है कि उस समय लगभग अपना राजनैतिक बनवास काट रही मृतप्राय कांग्रेस ने इन तीन प्रदेशों के किसानों को कर्जमाफी की बूटी दिखाकर कैसे सत्ता की चाबी हासिल की थी। और इस जीत से अति उत्साहित राहुल गांधी ने कहा था कि कर्जमाफी अब आने वाले लोकसभा चुनावों का अहम मुद्दा होने वाला है और हम नरेंद्र मोदी को तब तक सोने नहीं देंगे जब तक वो पूरे देश के किसानों का कर्ज माफ नहीं कर देते। लेकिन तीन राज्यों में मात्र चार महीने पहले जो कर्जमाफी कांग्रेस का सफल प्रयोग और गेम चेंजर सिद्ध हुआ था, आज वो कर्जमाफी उनके चुनावी भाषणों ही नहीं मेनिफेस्टो से भी गायब है।
दरअसल इसकी हवा भी किसी और ने नहीं खुद कांग्रेस और उसकी भ्रष्टाचार की नीतियों ने ही निकाली है। सरकार बनने के दस दिनों के अंदर किसानों को कर्जमाफी के नाम पर तीनों प्रदेशों में जो सरकार बनी वो दस दिनों के अंदर कर्जमाफी से ज्यादा कर्जमाफी के नाम पर घोटालों के लिए जानी गई। इसलिए राहुल अब एक नया गेम चेंजर, “न्याय” लेकर आए हैं। देश के 20% गरीब परिवारों को साल के 72000 रूपए दिए जाएंगे।
मतदाताओं को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए और अधिक से अधिक वोट हासिल करने के लिए इस प्रकार के हथकंडे अपनाने वाली कांग्रेस अकेली पार्टी नहीं है। कितना हास्यास्पद है कि जो राजनैतिक दल लगातार सरकार में रहते हुए देश के आखिरी व्यक्ति को बिजली पानी जैसी बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध नहीं करा सका, वो चुनावों के दौरान इन्हें मुफ्त देने का वादा कर रहा है।
जिस बिहार में शराबबंदी है, उस बिहार की जनता से तेजस्वी यादव कहते हैं कि वे ताड़ी बनाना कानूनी कर देंगे। लेकिन हद तो तब हो जाती है जब ये दल खुले आम संविधान की धज्जियाँ उड़ाते हुए जाति और धर्म के नाम पर वोटों का ध्रुवीकरण करने का काम करते हैं। हाल ही में मायावती ने खुले मंच से मुस्लिम वोटरों से अपने वोटों को बंटने नहीं देने की अपील की।
ऐसे हालतों में जब सत्ता हासिल करने के लिए राजनैतिक दलों द्वारा मतदाताओं को उनके छोटे छोटे स्वार्थों का लालच दिखाकर उन्हें भारी संख्या में मतदान करने के लिए यह कहकर प्रोत्साहित किया जाता है कि आपका जागरूक होना आवश्यक है। अपने अधिकार के प्रति जागरूक हों और “देशहित” में मतदान अवश्य करें, तो अब समय आ गया है कि देश का मतदाता अपने “जागरूक” होने का अर्थ समझे।
क्या जागरूक होने का अर्थ सिर्फ अपने मतदान के अधिकार का प्रयोग करना भर है? क्या उसका फ़र्ज़ केवल अपने छोटे छोटे स्वार्थों की पूर्ति करना भर है? क्या उसकी नियति इन राजनैतिक दलों के हाथों की कठपुतली बनना भर है ? आखिर कब वो जागरूक होगा और “देश बचाओ संविधान बचाओ” और देशहित जैसे शब्दों में पीछे छुपे भावार्थ “स्वार्थ और स्वहित” को पढ़ पाएगा?
आखिर कब वो 72000 सालाना मिलने वाले “न्याय” के पीछे छुपे उस “अन्याय” को देख पाएगा जो उसे शारिरिक ही नहीं मानसिक तौर पर भी पंगु बनाने का कदम है ? आखिर कब वो इस प्रकार की “जनकल्याण” घोषणाओं के पीछे छुपे खुलमखुल्ला रिश्वतखोरी को देख पाएगा?
सच तो यह है कि देश के मतदाता की नियति उस दिन बदलेगी जिस दिन वो सच में जागरूक होगा। जिस दिन वो जाति धर्म से ऊपर उठकर सोचेगा, निजस्वार्थ से पहले देशहित की सोचेगा। वो जागरूक तब होगा जब वो मुफ्त में मिलने वाली हर उस चीज़ को ठुकरएगा जो उसे पंगु बनाए। वो जागरूक तब होगा जब वो अपनी भुजाएं हाथ फैलाने के लिए नहीं बल्कि मेहनत के लिए उठाएगा। तब वो जागरूक मतदाता किसी के हाथों की कठपुतली नहीं होगा। और फिर वो अपनी उंगली से केवल अपनी ही नहीं, देश की तक़दीर बदलने का भी माद्दा रखेगा।
(लेखिका स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)