हालांकि तयशुदा रूप से तो अभी कुछ नहीं कहा जा सकता, मगर अधिक संभावना इसी बात की लगती है कि सपा-बसपा के इस बेमेल और विचारधारा से हीन गठजोड़ ने उनके मतदाताओं को भ्रम में डाल दिया, जिस कारण वे मतदान को घर से नहीं निकले। दूसरे शब्दों में कहें तो जिन दलों में विरोध का स्तर ऐसा रहा है कि उनके बीच एक दूसरे के नेताओं को जेल भेजने से लेकर गेस्ट हाउस काण्ड जैसी चीजें तक घटित हो चुकी हैं, उन दलों का दो सीटों के लिए अचानक राजनीतिक गठजोड़ कर लेना, उनके समर्थकों को रास नहीं आया लगता है।
यूपी के दो लोकसभा क्षेत्रों गोरखपुर और फूलपुर में उपचुनाव संपन्न हो गए, जिनका परिणाम १४ मार्च को आना है। योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने के बाद गोरखपुर सीट तो केशव प्रसाद मौर्य के उपमुख्यमंत्री बनने के बाद फूलपुर सीट रिक्त हुई थी। लेकिन, इन दोनों ही लोकसभा क्षेत्रों के उपचुनाव में जिस तरह से पिछले लोकसभा चुनाव की अपेक्षा मतदान के प्रतिशत में भारी गिरावट आई है, उसने चुनावी पंडितों से लेकर राजनेताओं तक को हैरानी में डाल दिया है।
गोरखपुर उपचुनाव में महज 47.4 प्रतिशत लोग मतदान को बाहर निकले जबकि 2014 के लोकसभा चुनाव में यह आंकड़ा 54.67 प्रतिशत रहा था। ऐसे ही फूलपुर में भी गत चुनाव में जहाँ 50.16 प्रतिशत मतदान हुआ था, वहीं अबकी वहाँ मतदान प्रतिशत 37.4 प्रतिशत पर ही सिमटकर ही रह गया। मतदान का एकाध प्रतिशत ऊपर-नीचे होना भी बड़ी राजनीतिक उलटफेर का कारक बन जाता है, फिर अभी तो मतदान में भारी कमी आई है। ऐसे में, सवाल यह उठता है कि आखिर क्या कारण है कि लोग मतदान को घर से नहीं निकले ? सवाल यह भी है कि जो मतदाता घर से नहीं निकले वो किस दल के हैं ?
इन सवालों पर अलग-अलग प्रकार के कयास लगाए जा रहे हैं। एक पक्ष ऐसा है जिसका मानना है कि मतदान में आई यह कमी लोगों का लोकतान्त्रिक व्यवस्था के प्रति घटते विश्वास को दिखाती है। यह बात एकदम गलत है, ऐसा तो नहीं कह सकते, मगर कम मतदान के लिए सिर्फ इसीको कारण मान लेना विषय का सरलीकरण करना होगा। वैसे भी, गोरखपुर और फूलपुर के सम्बन्ध में कोई ऐसा कारण नहीं दिखता जिस कारण यह माना जाए कि वहाँ का मतदाता लोकतांत्रिक व्यवस्था में अनास्था उपजने के कारण मतदान को नहीं निकला।
गोरखपुर के पूर्व सांसद इस समय राज्य के मुख्यमंत्री तो फूलपुर के पूर्व सांसद उपमुख्यमंत्री की कुर्सी पर हैं। दूसरी चीज कि गोरखपुर योगी का अजेय किला रहा है, जहाँ उनकी लोकप्रियता निर्विवाद है। ऐसी स्थिति में गोरखपुर के मतदाताओं में लोकतान्त्रिक व्यवस्था के प्रति अनास्था उपजने का कोई कारण नहीं दिखता। फूलपुर पर भी कमोबेश यही बात लागू होती है। स्पष्ट है कि कम मतदान के लिए लोकतान्त्रिक अनास्था को कारण मानना फिलहाल सही नहीं है। फिर कम मतदान का क्या कारण है ?
दरअसल इन उपचुनावों में कम मतदान के पीछे राजनीतिक कारण होने की संभावना अधिक प्रतीत होती है। इस बात को ठीक प्रकार से समझने के लिए आवश्यक होगा कि हम इन उपचुनावों के राजनीतिक समीकरणों का एकबार संक्षिप्त अवलोकन करें। ये उपचुनाव इस दृष्टि से अधिक महत्वपूर्ण हो गए हैं कि इनमें यूपी के दो धुर-विरोधी सपा और बसपा एक साथ ताल ठोंक रहे। बसपा ने गोरखपुर और फूलपुर दोनों सीटों पर सपा को समर्थन देने का ऐलान कर दिया था। इस कारण चुनावी पंडितों द्वारा चुनाव परिणामों के बेहद दिलचस्प होने की उम्मीद लगाते हुए कहा जा रहा कि सपा-बसपा का ये गठजोड़ फूलपुर के साथ-साथ योगी के किले गोरखपुर में भी सेंध लगा सकता है। लेकिन, अब जिस प्रकार से मतदान में भारी कमी आई है, वो सपा-बसपा के गठजोड़ के लिए ठीक संकेत नहीं है।
हालांकि तयशुदा रूप से तो अभी कुछ नहीं कहा जा सकता, मगर अधिक संभावना इसी बात की लगती है कि सपा-बसपा के इस बेमेल और विचारधारा से हीन गठजोड़ ने उनके मतदाताओं को भ्रम में डाल दिया, जिस कारण वे मतदान को घर से नहीं निकले। दूसरे शब्दों में कहें तो जिन दलों में विरोध का स्तर ऐसा रहा है कि उनके बीच एक दूसरे के नेताओं को जेल भेजने से लेकर गेस्ट हाउस काण्ड जैसी चीजें तक घटित हो चुकी हैं, उन दलों का दो सीटों के लिए अचानक राजनीतिक गठजोड़ कर लेना, उनके समर्थकों को रास नहीं आया लगता है।
प्रतीत होता है कि सपा-बसपा के मतदाता इस सिद्धांतविहीन और अवसरवाद से प्रेरित गठजोड़ को अपनी स्वीकृति नहीं दे पाए हैं। कम मतदान का मुख्य कारण यही लगता है। दूसरी बात यह कि गोरखपुर चूंकि योगी आदित्यनाथ का अजेय किला कहा जाता है, जहाँ शहरी-ग्रामीण सभी क्षेत्रों में उन्हिकी लोकप्रियता की तूती बोलती है। ऐसे में भाजपा के लिए किसी प्रकार की समस्या होने की उम्मीद न के बराबर ही है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)