देखा जाए तो बुलेट ट्रेन का विरोध उसी प्रकार का है जिस प्रकार राजधानी एक्सप्रेस, मारुति और दिल्ली मेट्रो का किया गया था। इन तीनों ने अर्थव्यवस्था को कितना फायदा पहुंचाया यह किसी से छिपा नहीं है। बुलेट ट्रेन का विरोध करने वाले इससे जुड़े फायदों को नहीं देख रहे हैं। भारत में न सिर्फ बुलेट ट्रेन आएगी बल्कि बुलेट ट्रेन बनाने वाली तकनीक भी आएगी। इससे आगे चलकर भारत बुलेट ट्रेनों की विनिर्माण धुरी बन जाएगा और कम लागत के बल पर अग्रणी निर्यातक बन सकता है।
वामपंथी सोच वाले नेता-बुद्धिजीवी भले ही उदारीकरण-भूमंडलीकरण की नीतियों का विरोध करें लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं कि इसने देश की तस्वीर बदल दी। कारोबारी सोच, शॉपिंग मॉल, ब्रांडेड सामान, कार, बस, बाइक के नए-नए मॉडल, हाईवे, शानदार होटल, हर हाथ में मोबाइल, चमचमाते हवाई अड्डे उदारीकरण की ही देन हैं। दुर्भाग्यवश देश की धमनी मानी जाने वाली रेल की हालत में बदलाव होना अभी बाकी है। उदारीकरण के दौर में रेलगाड़ियों की तादाद तो बढ़ी लेकिन उनकी रफ्तार घटती गयी। अब प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी रेलवे की तस्वीर बदलने की कवायद में जुट गए हैं। इसका पहला कदम है मुंबई-अहमदाबाद हाई स्पीड रेल परियोजना।
जापानी प्रधानमंत्री शिंजो अबे ने भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मौजूदगी अहमदाबाद में इस परियोजना की नींव रखी। 507 किलोमीटर लंबे इस रूट के निर्माण पर 1.10 लाख करोड़ रूपये की लागत आएगी जिसमें से 88,000 करोड़ रूपये जापान 0.1 फीसदी की ब्याज दर पर मुहैया कराएगा। इस कर्ज को 50 वर्षों में चुकाना होगा जिसमें 15 साल का ग्रेस पीरियड भी शामिल है। इस परियोजना के बाद मुंबई-दिल्ली-कोलकाता-चेन्नई को हीरक चतुर्भुज नामक उच्च गति वाले रेल नेटवर्क से जोड़ने का काम शुरू होगा।
बुलेट ट्रेन के शुरू होने के बाद न केवल दूरियां कम होंगी बल्कि पश्चिमी कॉरिडोर एक बड़े आर्थिक क्षेत्र में बदल जाएगा। पर्यावरण की दृष्टि से भी बुलेट ट्रेन मुफीद साबित होगी। बुलेट ट्रेन से प्रति किलोमीटर की यात्रा पर कार्बन डाई आक्साइड उत्सर्जन में हवाई जहाज के मुकाबले एक-चौथाई और सड़क के मुकाबले एक-तिहाई की कमी आएगी। बुलेट ट्रेन चलने पर मुंबई और अहमदाबाद के बीच की दूरी महज दो घंटे में सिमट जाएगी जबकि मौजूदा समय में यह दूरी सात घंटे में तय होती हैं। दो घने बसे शहरी क्षेत्रों के बीच चलने के कारण इसके घाटे में चलने की संभावना भी नहीं है।
एक ओर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भारतीय रेल को रफ्तार पकड़ाने की कवायद में जुटे हैं तो दूसरी ओर इस मुद्दे पर राजनीति भी शुरू हो चुकी है। हाल में हुई रेल दुर्घटनाओं को आधार बनाकर यह कहा जा रहा है कि इतनी बड़ी धनराशि यदि बुलेट ट्रेन चलाने के बजाए मौजूदा रेल नेटवर्क को सुधारने में इस्तेमाल की जाए तो रेलवे की तस्वीर बदल जाएगी। एक घिसा-पिटा तर्क यह भी दिया जा रहा है कि जिस देश में लोग गरीबी, बीमारी, कुपोषण की स्थिति हो, वहां पर बुलेट ट्रेन के एक प्रोजेक्ट पर इतनी बड़ी रकम खर्च करने का क्या औचित्य है। इसी प्रकार पर्यावरण हानि, विस्थापन व पुनर्वास का सवाल भी उठाया जा रहा है।
देखा जाए तो बुलेट ट्रेन का विरोध उसी प्रकार का है जिस प्रकार राजधानी एक्सप्रेस, मारुति और दिल्ली मेट्रो का किया गया था। इन तीनों ने अर्थव्यवस्था को कितना फायदा पहुंचाया यह किसी से छिपा नहीं है। बुलेट ट्रेन का विरोध करने वाले इससे जुड़े फायदों को नहीं देख रहे हैं। भारत में न सिर्फ बुलेट ट्रेन आएगी बल्कि बुलेट ट्रेन बनाने वाली तकनीक भी आएगी। इससे आगे चलकर भारत बुलेट ट्रेनों की विनिर्माण धुरी बन जाएगा और कम लागत के बल पर अग्रणी निर्यातक बन सकता है।
इतना ही नहीं, मुंबई-अहमदाबाद उच्च गति रेल नेटवर्क से कारोबार और रोजगार के बेशुमार मौके पैदा होंगे जिससे सुस्त पड़ी अर्थव्यवस्था में तेजी आएगी। फिर इससे अन्य रेलगाड़ियों की रफ्तार बढ़ाने, उन्हें सुरक्षित चलाने की प्रेरणा भी मिलेगी क्योंकि आज तक एक भी दुर्घटना न होने के कारण जापानी शिनकांसेन की तकनीक विश्व में सबसे अच्छी मानी चाती है।
यदि भारतीय रेलवे की सुस्त चाल से दुनिया भर में चलने वाली तेज रफ्तार रेलगाड़ियों की तुलना की जाए तो भारतीय रेल 100 साल पीछे नजर आएगी। जहां विदेशों में रेलगाड़ियों के लिए तीन से चार सौ किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार आम बात है वहीं भारत की सबसे तेज रफ्तार वाली गतिमान एक्सप्रेस की अधिकतम गति 160 किलोमीटर प्रति घंटा ही है। जिन राजधानी एक्सप्रेस को हम रेलवे की शान मानते हैं उनकी औसत रफ्तार तो 100 किलोमीटर भी नहीं है।
उदाहरण के लिए हजरत निजामुद्दीन से त्रिवेंद्रम के बीच की 2847 किलोमीटर की दूरी तय करने में त्रिवेंद्रम राजधानी को 42 घंटे लगते हैं। इस प्रकार इसकी औसत रफ्तार 68 किलोमीटर प्रति घंटे बैठती है। कमोबेश यही हाल अन्य राजधानी, शताब्दी और दूरंतों का है। साधारण पैसेंजर गाड़ियों की औसत रफ्तार 36 किलोमीटर है तो मालगाड़ियां महज पचीस किलोमीटर प्रति घंटे की औसत रफ्तार निकाल पा रही हैं। ऐसे में बुलेट ट्रेन चलाने का विरोध करने वालों की बुद्धि पर तरस आता है।
स्पष्ट है, कांग्रेसी सरकारों की लंबी उपेक्षा के बाद मोदी सरकार रेलवे को सही अर्थों में अर्थव्यवस्था की धमनी बनाने की शुरूआत की है। रही बात विरोध की तो देश में विरोध की राजनीति की बीमारी बहुत पुरानी है। जब मेट्रो रेल की शुरूआत हुई तब भारी लागत के बहाने उसका तीखा विरोध हुआ लेकिन आज हर मुख्यमंत्री की मांग है मेट्रो रेल। यही कहानी बुलेट ट्रेन के साथ दुहराई जाएगी। जब बुलेट ट्रेन चलने लगेगी तब हर मुख्यमंत्री अपने राज्य को दिल्ली से जोड़ने के लिए बुलेट ट्रेन की मांग करेगा।
(लेखक केन्द्रीय सचिवालय में अधिकारी हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)