समय के साथ अलग-अलग संस्कृतियों के संपर्क व प्रभाव से भले ही देश की आबादी के एक हिस्से की जीवनशैली और पूजा-पद्धति में अंतर आ गया हो, परन्तु इस देश के सभी निवासियों का मूल एक ही है। वे महाभारत काल में ‘भारत’ से संबोधित होते थे, आज उनकी पहचान भारतीय है और इसी पहचान के साथ देश को आगे बढ़ना है। मोहन भागवत ने अपने वक्तव्य इसी पहचान के द्वारा राष्ट्रीय एकजुटता का आह्वान किया है। जो इससे सहमत नहीं, वे कहीं न कहीं भारतीयता की भावना से ही असहमत हैं।
पिछले दिनों राष्ट्रीय मुस्लिम मंच के एक पुस्तक विमोचन के कार्यक्रम में बोलते हुए संघ प्रमुख मोहन भागवत ने हिन्दू-मुस्लिम एकता के संदर्भ में कहा कि, ‘‘हिन्दू-मुस्लिम एकता की बात भ्रामक है क्योंकि वे अलग नहीं, बल्कि एक हैं। सभी भारतीयों का डीएनए एक है, चाहे वे किसी भी धर्म के हों। हम एक ही पूर्वज के वंशज हैं।’’ मोहन भागवत के इस वक्तव्य के बाद देश के राजनीतिक गलियारे में एक नई बहस छिड़ गई।
सत्तारूढ़ भाजपा द्वारा जहाँ संघ प्रमुख के कथन का समर्थन किया गया है, वहीं विपक्ष के अनेक नेताओं के सुर इसके विरोध में रहे हैं। कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह हों या बसपा प्रमुख मायावती अथवा एआईएमआईएम के प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी, इन सब विपक्षी नेताओं द्वारा इस वक्तव्य का विरोध किया गया है।
दरअसल इस विरोध के पीछे विशुद्ध राजनीतिक कारण हैं। चूंकि आगामी कुछ महीनों में देश में उत्तर प्रदेश सहित पाँच राज्यों के विधानसभा चुनाव होने हैं, ऐसे में विपक्ष को लगता है कि संघ प्रमुख ने ये वक्तव्य मुस्लिमों को भाजपा की तरफ लाने की रणनीति के तहत दिया है, जिससे आगामी चुनावों में भाजपा को लाभ मिल सके। यही कारण है कि जाति-मज़हब के आधार पर अपनी राजनीति चमकाने वाले दलों और नेताओं को संघ प्रमुख का यह वक्तव्य बहुत चुभ रहा है और वे इसके विरोध में लामबंद हुए खड़े हैं।
बहरहाल, अब राजनीति का तो चरित्र ही ऐसा है कि इसमें हर बात को चुनावी लाभ-हानि की कसौटी पर रखकर देखा जाता है, लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि संघ भाजपा के साथ भले हो, लेकिन अपने आप में वो कोई राजनीतिक संगठन नहीं है और न ही संघ प्रमुख कोई राजनीतिक व्यक्ति हैं। अतः उनके वक्तव्य को राजनीतिक चश्मे से देखना उचित नहीं। वास्तव में, मोहन भागवत ने हिन्दू-मुस्लिम एकता को लेकर जो कुछ कहा है, उसका उद्देश्य चुनावी राजनीति के संकीर्ण दायरे से कहीं बड़ा और व्यापक है। यह राष्ट्रीय एकजुटता का आह्वान है।
आज जब देश में जाति-धर्म के नामपर विद्वेष की घटनाएँ आए दिन देखने-सुनने को मिल रही हैं, ऐसे समय में देश के लोगों को उनकी वास्तविक पहचान से अवगत कराकर उनमें एकजुटता की भावना पैदा करने वाले इस तरह के वक्तव्य समय की आवश्यकता बन गए हैं। इसपर विवाद होना दुर्भाग्यपूर्ण ही है।
मोहन भागवत का वक्तव्य न केवल ऐतिहासिक तथ्यों पर आधारित है, बल्कि संविधान की भावना के अनुरूप भी है। यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि देश में मुस्लिम आक्रान्ताओं द्वारा अपने शासन के दौर में बड़े पैमाने पर हिंदुओं को जबरन मतांतरण कर मुसलमान बनाया गया था।
आज देश के जो मुसलमान हैं, वे उन मतांतरित हिन्दुओं की ही संतानें हैं। अतः मूल रूप में वे हिंदुओं से अलग नहीं हैं। यह एक ऐतिहासिक सच है, जिसे झुठलाया नहीं जा सकता। इसके अलावा बौद्ध, जैन, सिख आदि जो धर्म हैं, उन सबका मूल भी हिन्दू धर्म में ही है। ऐसे में मोहन भागवत ने इस देश के सभी लोगों का डीएनए एक बताया, तो इसमें गलत क्या है ?
मोहन भागवत ने अपने वक्तव्य में किसी धर्म-विशेष के प्रभुत्व की बात नहीं की है बल्कि यह कहा है कि, ‘हम एक लोकतंत्र में हैं और यहां हिन्दुओं या मुसलमानों का प्रभुत्व नहीं हो सकता है। यहां केवल भारतीयों का वर्चस्व हो सकता है।‘ यह बात देश के संविधान की भावना के अनुरूप है। हमारे संविधान की प्रस्तावना में देश के नागरिकों को ‘हम भारत के लोग’ कहकर संबोधित किया गया है, जहां इस देश के नागरिकों की पहचान एक भारतीय के रूप में निश्चित हो जाती है।
वैसे यह पहचान केवल आजादी के बाद अस्तित्व में आए संविधान से ही नहीं है, अपितु प्राचीनकाल से है। यह प्रसंग सर्वविदित है कि दुष्यंत पुत्र राजा भरत के नामपर इस देश का नाम भारत पड़ा। भरत का वंशज होने के आशय से ही महाभारत में भगवान कृष्ण द्वारा अर्जुन को अनेक अवसरों पर ‘भारत’ कहकर संबोधित किया गया है। यह ‘भारत’ ही अब हमारी राष्ट्रीय पहचान का सूचक भारतीय हो चुका है।
भारतीयों को उनकी वास्तविक पहचान से भटकाने की कोशिश देश में लंबे समय से होती आई है। अंग्रेजों द्वारा इतिहास में आर्य आक्रमण सिद्धांत के जरिये आर्यों को बाहरी साबित करने की जो कुचेष्टा की गयी उसका निर्वाह आजाद भारत के वामपंथी इतिहासकारों ने भी खूब किया। यह सिद्ध करने का प्रयास होता रहा है कि आर्य बाहर से आए और यहाँ के मूल निवासियों को खदेड़कर यहीं बस गए। दुर्भाग्यवश देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू भी इसी मान्यता से ग्रस्त थे।
लेकिन जब राखीगढ़ी और सिनौली के अवशेष सामने आए तो उन्होंने इन वामपंथी प्रपंचों को बेनकाब कर दिया। राखीगढ़ी से प्राप्त कंकाल के अवशेषों की जांच के आधार पर यह स्पष्ट हुआ है कि पिछले कम से कम बारह हजार साल से एशिया का जीन एक ही रहा है, अतः आर्य यहीं के निवासी थे। सिनौली से प्राप्त रथ भी आर्यों के यहीं का निवासी होने को बल देते हैं।
कुल मिलाकर कहने का आशय यही है कि समय के साथ अलग-अलग संस्कृतियों के संपर्क व प्रभाव से भले ही देश की आबादी के एक हिस्से की जीवनशैली और पूजा-पद्धति में अंतर आ गया हो, परन्तु इस देश के सभी निवासियों का मूल एक ही है। वे महाभारत काल में ‘भारत’ से संबोधित होते थे, आज उनकी पहचान भारतीय है और इसी पहचान के साथ देश को आगे बढ़ना है। मोहन भागवत ने अपने वक्तव्य इसी पहचान के द्वारा राष्ट्रीय एकजुटता का आह्वान किया है। जो इससे सहमत नहीं, वे कहीं न कहीं भारतीयता की भावना से ही असहमत हैं।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं।)