तहरीक-ए-तालिबान ने उन्हें धमकी दी थी कि अगर उन्होंने सरबजीत सिंह का केस लड़ना बंद ना किया तो उनके सारे परिवार का कत्ल कर दिया जाएगा। पर, शेख बंदर भभकियों से डरने वाले नहीं थे। ओवैस शेख ने सरबजीत सिंह केस पर बहुत लिखा भी। सरबजीत केस के बहाने उन्होंने पाकिस्तानी न्याय व्यवस्था के स्याह पक्ष को परत दर परत उखाड़ा था अपनी लेखनी से।
वो भारत के मित्र थे। विशेष बात ये है कि वो पाकिस्तानी होने के बाद भी भारत को चाहते थे। नाम था उनाका ओवैस शेख। जिन दिनों पाकिस्तान की जेल में बंद थे भारतीय कैदी सरबजीत सिंह तब उनकी रिहाई की लड़ाई वकील ओवैस शेख ही लड़ रहे थे। उनका बीते दिनों स्वीडन में निधन हो गया। वे 67 वर्ष के थे। वे जुझारू मानवाधिकारीवादी थे। वे विश्व नागरिक थे। वे धर्म से पहले मानवता को स्थान देते थे। तहरीक-ए-तालिबान से उन्हें धमकी मिली थी कि सरबजीत का केस लड़ना बंद कर दें। फिर भी वे झुके नहीं।
तहरीक-ए-तालिबान ने उन्हें धमकी दी थी कि अगर उन्होंने सरबजीत सिंह का केस लड़ना बंद ना किया तो उनके सारे परिवार का कत्ल कर दिया जाएगा। पर, शेख बंदर भभकियों से डरने वाले नहीं थे। ओवैस शेख ने सरबजीत सिंह केस पर बहुत लिखा भी। सरबजीत केस के बहाने उन्होंने पाकिस्तानी न्याय व्यवस्था के श्याम पक्ष को परत दर परत उखाड़ा था अपनी लेखनी से। वे एक बार लाहौर प्रेस क्लब में सरबजीत केस से संबंधित प्रेस वार्ता करने वाले थे। उन्हें क्लब की तरफ से पहले जगह मिल गई, पर बाद में लाहौर प्रेस क्लब ने अपना फैसला बदल लिया। शेख जब प्रेस क्लब पहुँचे तो उन्हें बताया गया कि सुरक्षा कारणों से प्रेस वार्ता आयोजित नहीं की जा सकती। उस प्रेस वार्ता में वे पाकिस्तान की अन्यायपूर्ण न्याय व्यवस्था पर हल्ला बोलने वाले थे। वे बेखौफ शख्स थे। वे सत्य के रास्ते पर चलते हुए कोई भी बलिदान देने के लिए तैयार थे।
आपको मालूम है कि सरबजीत सिंह पर सन 1990 में पाकिस्तान में बम धमाकों में हिस्सा लेने का आरोप था। इन हमलों में 14 लोग मारे गए थे। लेकिन, सरबजीत का परिवार इन आरोपों से इनकार करता था। परिवार के मुताबिक धमाकों में हिस्सा लेने वाले कोई दूसरे लोग थे और ये गलत पहचान का मामला था। जब पाकिस्तान में सरबजीत को फांसी देने की मांग कठमुल्ला कर रहे थे, तब ओवैस शेख ने उनकी कोर्ट में पैरवी करने की घोषणा की। इसके चलते उन्हें घोर कष्ट झेलने पड़े। उन्हें और उनके पुत्र का अपहरण भी हुआ। अपहर्ताओं ने उन्हें कार से बाहर फेंकने से पूर्व उनकी तथा उनके बेटे की पिटाई की।
ओवैस शेख ने कहा, “इस मुकदमे के दौरान पाकिस्तान में अदालतों ने कई गलतियाँ की और यही गलतियाँ तब भी हुईं जब उनकी मौत की सजा पर सुनवाई हुई। सरबजीत सिंह का मामला वैसे भी गलत पहचान का है और अदालत ने उनके साथ उस तरह की नरमी नहीं बरती जैसी कि स्थानीय पाकिस्तानी अभियुक्तों के साथ बरती जाती है।“
ओवैस शेख कहते रहे कि सरबजीत सिंह ने कभी भी अपना जुर्म कुबूल ही नहीं किया है और पाकिस्तानी जांच एजेंसियों ने उन्हें अदालत के समक्ष मंजीत सिंह नामक एक व्यक्ति की जगह पेश कर दिया। सरबजीत सिंह ने अपना इकबालिया बयान टीवी कैमरे पर रिकॉर्ड किया, जिसकी कोर्ट में कोई मान्यता नहीं होती। ओवैस शेख जीवनपर्यंत प्रयासरत रहे ताकि ताकि दोनों देशो के आपसी विवाद बातचीत के जरिए हल हो जाएं। वे पाकिस्तानी जेलों में दशकों से सड़ रहे बाकी भारतीय कैदियों की रिहाई की कोशिशें करते रहे। उनकी कोशिशों के चलते 32 भारतीय कैदी रिहा भी हुए। अगर शेख जैसा फरिश्ता ना होता तो वे भी पाकिस्तानी जेलों में सड़ते रहते।
जिस पाकिस्तानी समाज में, खासतौर पर पंजाब प्रांत में, भारत के खिलाफ बहुत कटु भावनाएं हैं, वहां पर वे भारत के मित्र के रूप में उभरे थे। पाकिस्तान में भारत के मित्र का अर्थ होता है, पाकिस्तान का शत्रु। लेकिन इन सब बातों की उन्हें परवाह नहीं थी। उन्होंने सत्य का मार्ग कभी नहीं छोड़ा। चूंकि, पाकिस्तान के बंद समाज में उनके लिए स्पेस घटता जा रहा था, इसलिए कुछ साल पहले वे स्वीडन शिफ्ट हो गए थे। उन्होंने अपनी सुरक्षा की पाकिस्तान सरकार से मांग की तो उसे नजरअंदाज कर दिया गया। इसलिए उन्होंने पाकिस्तान को छोड़ा था।
ओवैस शेख के पाकिस्तान को छोड़ने के बाद सन 1971 की जंग के दौरान पकड़े गए 42 भारतीय सैनिकों की रिहाई का मामला लगभग खत्म हो गया था। अब उनके लिए कौन बोलेगा, लड़ेगा? वे बुजुर्ग हो चुके हैं। सबकी आयु 80 पार हो रही है। इनकी रिहाई की लगभग आधी सदी से सिर्फ बातें ही हो रही है। सिर्फ शेख ने इनकी रिहाई के लिए ठोस पहल की थी। वे पंजाब रेजीमेंट के सिपाही मंगल सिंह से मिले भी थे लाहौर की सेंट्रल जेल में। वे शेष भारतीय कैदियों की रिहाई नहीं करवा पाए इसका उन्हें कष्ट था। वे यह बात स्वीकार भी करते थे।
उन्होंने भारतीय युद्धबंदियों के मसले को पाकिस्तान सरकार के सामने कई बार उठाया और संबंधित अधिकारियों को ज्ञापन दिए। शेख को महात्मा गांधी के अंहिसा के सिंद्धात ने बहुत प्रभावित किया था। वे मानते थे कि अंहिसा के मार्ग पर चलते हुए संसार में अमन-चैन रह सकता है। वे हथियारों की होड़ के खिलाफ रहे। ओवैस शेख की असामयिक मृत्यु से भारत ने अपने एक पाकिस्तानी शुभचिंतक को खो दिया है।
(लेखक यूएई दूतावास में सूचनाधिकारी रहे हैं। वरिष्ठ स्तंभकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)