देखा जाये तो आजादी के बाद सबसे अधिक समय तक सत्ता में रही कांग्रेस सरकारों ने मुख्य रूप से देश के विकास को सुनिश्चित करने के लिये पंचवर्षीय योजनाओं का सहारा लिया। ये ठीक है कि योजना के अनुसार विकास के लिये कोशिश करने से ही सफलता मिलती है, लेकिन इसके बरक्स योजना का मसौदा समय और परिस्थिति के अनुसार बनाने की भी उतनी ही जरूरत होती है। हम पंचवर्षीय योजनाओं के इस विवरण में देख सकते हैं कि एक योजना के लक्ष्य पूरे नहीं होते थे और दूसरी योजना शुरू हो जाती थी। कांग्रेसी सरकारें लम्बे समय तक आँख मूंदकर नेहरूवादी नीतियों का ही अनुसरण करती रहीं, जिसके परिणामस्वरूप 1991 में सरकार के दिवालिया होने की नौबत आ गयी।
इस पंद्रह अगस्त हमने अपनी आजादी का 70वां वर्ष पूरा कर लिया। सवाल का उठना लाजिमी है कि क्या हमने 70 सालों में वह सबकुछ हासिल कर लिया, जो खुशहाली के लिये जरूरी है। चीन 1 अक्टूबर, 1949 को आजाद हुआ था, लेकिन आज वह बहुत सारे मामलों में भारत से आगे है। भारत ने आजादी के बाद बहुत कुछ हासिल किया लेकिन अभी उससे बहुत अधिक हासिल करना है।
वास्तव में आजादी के बाद प्रथम प्रधानमंत्री पं नेहरू जो समाजवाद को ही देश में मौजूद समस्त समस्याओं का एकमात्र समाधान मानते थे, द्वारा देश का उद्धार करने के लिए समाजवादी आर्थिक नीतियों का मार्ग अपनाया गया। नेहरू सरकार द्वारा चलाई गयी पंचवर्षीय योजनाओं में इन्हीं नीतियों को प्राथमिकता दी गयी। हालांकि कुछ ही वर्षों में नेहरू के समाजवाद की चमक फीकी पड़ने लगी। बावजूद इसके नेहरू के बाद की कांग्रेसी सरकारों द्वारा भी उन्ही नीतियों का अनुकरण किया जाता रहा।
पंचवर्षीय योजनाओं का विवरण
पहली पंचवर्षीय योजना में कृषि के क्षेत्र में सुधार लाने का लक्ष्य रखा गया। आजादी के समय कृषि का जीडीपी में महत्वपूर्ण योगदान था। उस कालखंड में लगभग तीन चौथाई रोजगार इस क्षेत्र के द्वारा उपलब्ध कराए जा रहे थे, लेकिन कृषि के क्षेत्र में हो रहा विकास पूर्ण रूप से अनुदान पर निर्भर था, इसलिए उसे वास्तविक विकास नहीं कहा जा सकता। दूसरी तरफ उस अवधि में मानसून की आवक अच्छी रही, जिसके कारण फसलों की बंपर पैदावार हुई।
दूसरी पंचवर्षीय योजना के दौरान औद्योगिकीकरण पर ज़ोर दिया गया, लेकिन निर्धारित लक्ष्य को हासिल नहीं किया जा सका। तीसरी पंचवर्षीय योजना बुरी तरह से विफल रही, जिसके कारण सरकार को निर्यात बढ़ाने के लिये रूपये का अवमूल्यन करना पड़ा। उस समय मुद्रास्फीति की स्थिति बेकाबू थी। इसलिये, चौथी पंचवर्षीय योजना को अमलीजामा पहनाने की बजाय 3 वार्षिक योजनाओं को लागू किया गया, जिसमें मोटे तौर पर पूर्व की विफलताओं को कम करने की कोशिश की गई। चौथी पंचवर्षीय योजना में परिवार नियोजन को सफल बनाने का लक्ष्य रखा गया, लेकिन वह बुरी तरह से असफल रहा। इतना ही नहीं, इस कार्यकाल में पूर्व की असफलताओं का भी निराकरण नहीं किया जा सका।
पाँचवी पंचवर्षीय योजना में गरीबी को खत्म करके आत्मनिर्भर होने का लक्ष्य रखा गया। इसी अवधि में आपातकाल घोषित किया गया। सरकार ने 20 सूत्रीय कार्यक्रम की भी घोषणा की, लेकिन इस संदर्भ में भी निर्धारित लक्ष्य को नहीं हासिल किया जा सका। राजनीतिक अस्थिरता के कारण पाँचवी पंचवर्षीय योजना के बाद वर्ष 1978 से वर्ष 1980 तक रोलिंग योजना को लागू किया गया, लेकिन यह भी सफल नहीं हो सकी। छठी और सातवीं पंचवर्षीय योजना निर्धारित लक्ष्य को पाने में सफल रही, पर समग्र विकास पर इसका बहुत ज्यादा सकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ा।
अस्सी के दशक में भले ही पंचवर्षीय योजना निर्धारित लक्ष्य को हासिल करने में सफल रही, लेकिन इस अवधि में आयात अधिक और निर्यात कम होने से व्यापार घाटे की स्थिति उत्पन्न हो गई। इस दशक में विदेशी मुद्रा की भारी कमी देखी गई। हालत इतने खराब थे कि जमा विदेशी मुद्रा से केवल 3 सप्ताह तक ही निर्यात किया जा सकता था। इस दशक के मध्य में भुगतान संतुलन भी अनियंत्रित हो गया था।
राजकोषीय घाटे में अकूत इजाफा हुआ था। राज्य और केंद्र सरकार का राजकोषीय घाटा वित्त वर्ष 1980-81 के 9.00% से बढ़कर वित्त वर्ष 1990-91 में 12.7% हो गया। इसी तरह सरकार की आंतरिक उधारी वित्त वर्ष 1980-81 के समग्र घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के 35% से बढ़कर वित्त वर्ष 1990-91 में जीडीपी का 53% हो गया। इसी अवधि में सरकार को अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) पास सोना गिरवी रखना पड़ा।
स्थिति पर काबू पाने के लिये 1 जुलाई से 3 जुलाई, 1991 के दरमियान सरकार को प्रमुख मुद्राओं के मुक़ाबले रूपये का अवमूल्यन करना पड़ा। यहाँ से कांग्रेसी सरकारों का नेहरू के समाजवाद से मोहभंग हुआ या यूँ कहें कि उसकी विफलता देश के सामने आ गयी। फलस्वरूप नरसिम्हा राव जब प्रधानमंत्री बने और मनमोहन सिंह वित्तमंत्री तब सरकार द्वारा मजबूरी में समाजवाद को त्याग उदारवाद का अनुसरण किया गया।
देखा जाये तो आजादी के बाद सबसे अधिक समय तक सत्ता में रही कांग्रेस सरकारों ने मुख्य रूप से देश के विकास को सुनिश्चित करने के लिये पंचवर्षीय योजनाओं का सहारा लिया। ये ठीक है कि योजना के अनुसार विकास के लिये कोशिश करने से ही सफलता मिलती है, लेकिन इसके बरक्स योजना का मसौदा समय और परिस्थिति के अनुसार बनाने की भी उतनी ही जरूरत होती है। हम पंचवर्षीय योजनाओं के इस विवरण में देख सकते हैं कि एक योजना के लक्ष्य पूरे नहीं होते थे और दूसरी योजना शुरू हो जाती थी।
मगर, कांग्रेसी सरकारें लम्बे समय तक आँख मूंदकर नेहरूवादी नीतियों का ही अनुसरण करती रहीं, जिसके परिणामस्वरूप 1991 में सरकार की दिवालिया होने की नौबत आ गयी। अगर दूरगामी सोच और तत्कालीन परिस्थितियों के साथ सरकारों ने आजादी के बाद देश के विकास हेतु नीतियां बनाने व ससमय उन्हें बदलते रहने पर ध्यान दिया होता तो आज आजादी के सात दशक बाद भारत को कम से कम गरीबी, भुखमरी और बेरोजगारी जैसी समस्याओं से तो नहीं जूझना पड़ता। बहरहाल, वर्तमान सरकार द्वारा अभी जिस ढंग से नीति आयोग के माध्यम से भिन्न-भिन्न कालखंडों वाली योजनाओं की दिशा में कार्य किया जा रहा है, वो देश के विकास के प्रति एक दूरगामी व व्यावहारिक सोच को दर्शाता है। इससे देश के विकास को और गति मिलने की संभावना है।
(लेखक भारतीय स्टेट बैंक के कॉरपोरेट केंद्र, मुंबई के आर्थिक अनुसंधान विभाग में मुख्य प्रबंधक हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)