एमआइएम की राजनीति को समझने के लिए इसके अतीत में झांकना जरूरी है। 80 वर्ष पुराना यह संगठन आजादी के समय हैदराबाद को हिंदुस्तान का हिस्सा बनाने के पक्ष में नहीं था। उसने अलग मुस्लिम राज्य की मांग की थी। हैदराबाद के विलय के बाद भारत सरकार ने एमआइएम पर प्रतिबंध लगा दिया था। 1957 में इस संगठन पर पाबंदी हटी और उसी साल इसकी बागडोर ओवैसी परिवार के हाथ में आई। तभी से यह संगठन कट्टरपंथ और नफरत की सियासत कर रहा है।
उत्तर प्रदेश स्थानीय निकाय चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को मिली जीत से यह साबित हो गया कि प्रदेश की जनता अब जातिवादी राजनीति से तौबा कर चुकी है; लेकिन इन चुनावी नतीजों ने भारतीय राष्ट्र-राज्य के लिए एक नए खतरे का भी आगाज किया है जिसका विश्लेषण जरूरी है। स्थानीय निकाय चुनाव के घोषित नतीजों में हैदराबाद की घोर सांप्रदायिक पार्टी मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एमआइएम) ने 29 सीटों पर जीत दर्ज की है। 78 सीटों पर उम्मीदवार उतारने वाली एमआइएम पार्टी को फिरोजाबाद में 11, आजमगढ़ में 3, संभल-अमरोहा–मेरठ-बागपत में 2-2 और डासना-गाजियाबाद-कानपुर-बिजनौर-इलाहाबाद-सीतापुर-बांदा में एक-एक सीट पर सफलता मिली है।
फिरोजाबाद के मेयर पद पर इस पार्टी की प्रत्याशी को पचास हजार से ज्यादा वोट मिले हैं जिसे अनदेखा नहीं किया जा सकता है। गौरतलब है कि दक्षिण भारत की यह सांप्रदायिक पार्टी अब अखिल भारतीय स्वरूप हासिल करने के लिए जी-तोड़ मेहनत कर रही है। बिहार व उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनावों में पार्टी ने मुस्लिम बहुल इलाकों में अपने उम्मीदवार उतारे थे। हालांकि पार्टी एक भी सीट हासिल नहीं कर पाई लेकिन उत्तर प्रदेश में पार्टी को 0.02 फीसदी अर्थात 205232 वोट मिले थे।
एमआइएम जैसी कट्टरपंथी विचारों की समर्थक पार्टी को मिल रही उर्वर राजनीतिक जमीन के लिए कांग्रेस की वोट बैंक की राजनीति जिम्मेदार है। कांग्रेस की कुटिल चाल के कारण मुस्लिम समुदाय के लोग एकमुश्त वोटिंग करते रहे हैं। इसका फायदा ज्यादातर राजनीतिक दलों ने उठाया जिसमें कांग्रेस अग्रणी रही, लेकिन जैसे-जैसे कांग्रेस कमजोर पड़ती गई, वैसे-वैसे मुस्लिम वोट बैंक वामपंथी और क्षेत्रीय पार्टियों के पाले में जाने लगा। लेकिन, ये पार्टियां भी कांग्रेस से अलग साबित नहीं हुईं। इन्होंने मुसलमानों को उनका वाजिब हक न देकर हिंदुत्व और भाजपा का झूठा डर दिखाकर अपनी राजनीतिक रोटी सेंकी। इससे मुस्लिम समुदाय देश की मुख्यधारा में पिछड़ता गया और उसका आक्रोश बढ़ा।
हालांकि उदारीकरण के दौर में पली-बढ़ी मुसलमानों की नई पीढ़ी भाजपा के तथाकथित भय से उस तरह त्रस्त नहीं है, जिस तरह उनकी पुरानी पीढ़ी रही। युवा पीढ़ी में विकास की रफ्तार से कदमताल करने की बेचैनी है। वह उदारीकरण के बाद उभरते नए इंडिया में अपनी हिस्सेदारी सुनिश्चित करना चाहती है। मध्य वर्ग के विस्तार और शिक्षा के प्रसार ने इसमें अहम भूमिका निभाई है।
करोड़ों युवा मुसलमानों को अपने वोट में तब्दील करने का काम कर रही है एमआइएम। इसके नेता असदउद्दीन ओवैसी अपने आक्रामक तेवरों के लिए जाने जाते हैं। उनके भाई अकबरूददीन ओवैसी तो अपने भाषणों में अक्सर बहुसंख्यकों व उनके देवी-देवताओं के खिलाफ जहर उगलते रहते हैं। ओवैसी भाई मुसलमानों के हक के लिए वोट बैंक के बजाए सीधी राजनीतिक लड़ाई लड़ने का आह्वान करते हैं। मुस्लिम युवाओं पर लोकसभा में उनके भाषणों का असर होता है।
ओवैसी वही सब कुछ कहते हैं जो आज के भारतीय मुसलमान सुनना चाहते हैं। मुसलमानों की गरीबी, बेरोजगारी और सुरक्षा पर आवाज लगाने वाले ओवैसी उनके समाज के अकेले परिचित नेता नजर आते हैं। इसी मौके का फायदा उठाने के लिए दशकों से हैदराबाद तक सिमटी उनकी पार्टी अब राष्ट्रीय राजनीति में अपनी जगह बनाने निकल चुकी है।
एमआइएम की राजनीति को समझने के लिए इसके अतीत में झांकना जरूरी है। 80 वर्ष पुराना यह संगठन आजादी के समय हैदराबाद को हिंदुस्तान का हिस्सा बनाने के पक्ष में नहीं था। उसने अलग मुस्लिम राज्य की मांग की थी। हैदराबाद के विलय के बाद भारत सरकार ने एमआइएम पर प्रतिबंध लगा दिया था। 1957 में इस संगठन पर पाबंदी हटी और उसी साल इसकी बागडोर ओवैसी परिवार के हाथ में आई। तभी से यह संगठन कट्टरपंथ और नफरत की सियासत कर रहा है।
लेकिन एमआइएम के मौजूदा अध्यक्ष इन आरोपों का सिरे से खारिज करते हैं। वे कहते हैं कि एमआइएम का मौजूदा स्वरूप आजादी के बाद का है और यह समाज के सभी वर्गों को उनका वाजिब हक दिलाने की राजनीतिक लड़ाई लड़ रही है। उनका मानना है कि मुसलमानों की अपनी पार्टी और अपने नेता ही उनका असली भला कर सकते हैं। बाकी पार्टियां मुसलमानों में भाजपा का खौफ पैदा कर उनकी सुरक्षा के नाम पर सत्ता हासिल कर उन्हें भुला देती हैं।
भले ही ओवैसी भाई वंचितों को उनका हक दिलाने की बात करते हों, लेकिन सच्चाई यह है कि उनके लिए भी मुस्लिम केवल वोट बैंक ही हैं। उनका उद्देश्य भी केवल मुस्लिम मतों का ध्रुवीकरण कर अपना मजबूत राजनीतिक वजूद कायम करना है। यही कारण है कि एमआइएम उन्हीं जिलों में अपने उम्मीदवार उतार रही है जहां मुसलमान बड़ी संख्या में रहते हैं। स्पष्ट है, एमआइएम वोट बैंक की राजनीति से आगे बढ़कर मजहब की राजनीति कर रही है जो कि देश की एकता और अखंडता के लिहाज से कतई ठीक नहीं है। कहना न होगा कि एमआइएम की कामयाबी भारतीय राष्ट्र-राज्य के लिए किसी खतरे से कम नहीं है। अत: समय रहते इस विषय पर गंभीरतापूर्वक सोचने की जरूरत है।
(लेखक केन्द्रीय सचिवालय में अधिकारी हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)