राहुल ने अब तक कोई चुनाव खुद के बूते पर नहीं जीता, चुनाव जीतकर किसी प्रदेश के मुख्यमंत्री नहीं बने। खुद अगर राहुल ऐसा करते तो उनके विरोधियों के पास कहने को कुछ नहीं बचता। परन्तु, राहुल ने केवल राजनीतिक विफलताओं की फेहरिश्त तैयार की है, सो सवालों का सामना तो करना ही पड़ेगा। हालांकि धर्म, जाति, फिरकापरस्ती और तमाम हथकंडों को आजमाकर राहुल गांधी ट्विटर पर खूब सुर्खियाँ बटोर रहे हैं। अब यही अगर लोकप्रियता का पैमाना है, तो राहुल गांधी पिछले कुछ समय से अच्छा-ख़ासा ट्रेंड कर रहे हैं। लेकिन, इन हथकंडों के बलबूते अगर कोई चुनाव जीतने की सोचे तो उसे इस मुगालते से बाहर आ जाना चाहिए।
सोमवार सुबह से ही समाचार चैनल्स ब्रेकिंग न्यूज़ चलाकर राहुल गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष बनने की बार-बार तस्दीक कर रहे थे। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के इतिहास में यह एक बड़ा घटना विकास था। देश के पहले प्रधानमंत्री पं. नेहरू के पनाती, इंदिरा गांधी के पौत्र, पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय राजीव गांधी और कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी के पुत्र राहुल गांधी के पार्टी अध्यक्ष बनाए जाने का हफ्ते भर से गहन विश्लेषण हो रहा था। लेकिन क्या नेहरू-गांधी खानदान से ताल्लुक रखने वाले राहुल गांधी का कांग्रेस के सर्वोच्च पद पर आसीन हो जाना वाकई इतनी बड़ी खबर थी?
राहुल गांधी पिछले दस सालों से पार्टी के सर्वे-सर्वा तो वैसे ही थे। इसमें भला नया क्या था? राहुल उस कुर्सी पर आसीन हो रहे थे, जिस कुर्सी पर उनकी माँ सोनिया गांधी पिछले 19 सालों से पदासीन थीं। 136 करोड़ के मुल्क में एक माँ ने भारत की 100 साल से ज्यादा पुरानी पार्टी की कमान अपने ही बेटे को दे दी। खबर ये होती कि सोनिया गांधी को इस देश में राहुल से बेहतर और होनहार उत्तराधिकारी क्यों नहीं मिला?
गांधी-नेहरू परिवार कांग्रेस के लिए एक ऐसी धुरी की तरह है, जिसके इर्द-गिर्द कांग्रेस घूमती रही है। सत्ता की असली चाभी तो गांधी परिवार के ही हाथों में रही है। अब राहुल गांधी के पार्टी अध्यक्ष बनने से कितना कुछ बदल जाएगा? कांग्रेस को चिंतन तो इस विषय को लेकर करना चाहिए कि कांग्रेस का एजेंडा क्या होगा?
एक सवाल और उठ रहा कि क्या कांग्रेस भाजपा की नक़ल करती जा रही है? क्या कांग्रेस भाजपा की राह अख्तियार करती जा रही है? गुजरात चुनाव अभियान के दौरान तो कम से कम यही दृष्टिगोचर होता रहा। राहुल ने पिछले दो महीने में शायद ही गुजरात का कोई बड़ा मंदिर भ्रमण न किया हो। नरम हिंदुत्व की नांव पर सवार होकर राहुल क्या गुजरात की नैया पार कर पाएंगे? क्या कांग्रेस हिमाचल में अपने सर पर रखा ताज बचा लेगी? लाख टके का सवाल आज यही है।
गुजरात चुनाव के नतीजे राहुल के नेतृत्व वाली कांग्रेस के लिए लिटमस टेस्ट की तरह होंगे, राहुल के लिए यह चुनाव तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से भी ज्यादा अहम होने जा रहे हैं। गुजरात की जनता ने मोदी को तीन-तीन बार मुख्यमंत्री बनाया, उन्हें देश की सर्वोच्च सत्ता के शिखर तक पहुँचाया। एक चाय बेचने वाले को विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र का पहरुआ बना दिया।
लेकिन, राहुल ने अब तक कोई चुनाव खुद के बूते पर नहीं जीता, चुनाव जीतकर किसी प्रदेश के मुख्यमंत्री नहीं बने। खुद अगर राहुल ऐसा करते तो उनके विरोधियों के पास कहने को कुछ नहीं बचता। परन्तु, राहुल ने केवल राजनीतिक विफलताओं की फेहरिश्त तैयार की है, सो सवालों का सामना तो करना ही पड़ेगा। हालांकि धर्म, जाति, फिरकापरस्ती और तमाम हथकंडों को आजमाकर राहुल गांधी ट्विटर पर खूब सुर्खियाँ बटोर रहे हैं। अब यही अगर लोकप्रियता का पैमाना है, तो राहुल गांधी पिछले कुछ समय से अच्छा-ख़ासा ट्रेंड कर रहे हैं।
गुजरात चुनाव के लिए पहले दौर का मतदान हो चुका है, दूसरे दौर का मतदान 14 दिसम्बर को होना है, जिसके बाद चुनाव नतीजे 18 तारीख़ को घोषित कर दिए जाएंगे। अब राहुल के पार्टी अध्यक्ष के रूप में कार्यभार सँभालते ही अगर कांग्रेस की गुजरात में हार हो गई तो यह वही बात होगी जैसे ‘प्रथमे ग्रासे मक्षिका पातः’। बाकी जनता के मन में क्या है, ये तो 18 को ही पता चलेगा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)