कांग्रेस और राहुल के लिए मोदी और भाजपा विरोध से ऊपर उठकर सोचना मुश्किल है। उनके साथ यह स्थिति तब तक रहेगी, जब तक केंद्र में यह सरकार रहेगी। इस विरोध के कारण उन्हें देश-विदेश जहां भी मुंह खोलने का अवसर मिलेगा, वे आँख मूंदकर मोदी विरोध में ही बोलेंगे। अब इस विरोध के चक्कर में चाहें देश की छवि और प्रतिष्ठा को क्षति ही क्यों न पहुँच जाए, इस बात की राहुल और उनकी कांग्रेस को कोई परवाह नहीं है। मगर, अपने इस रुख से कांग्रेस अपना कोई हितसाधन नहीं कर पाएगी, क्योंकि अब देश नकारात्मक राजनीति से ऊब चुका है और ऐसी राजनीति करने वालों को सबक सिखाता जा रहा है।
राहुल गांधी अपनी गोपनीय विदेश यात्रओं के लिए चर्चित रहे हैं। शुरू में कांग्रेस के प्रवक्ता कहते थे कि वह चिंतन-मनन के लिए विदेश गए हैं। लेकिन, लौटने के बाद चिंतन मनन का कोई प्रभाव नही दिखता था। राहुल पुराने अंदाज में ही रहते थे। इसके बाद प्रवक्ताओं ने इस दलील से तौबा कर ली। फिर उनके विदेश जाने पर बताया जाने लगा कि वह अपनी नानी से मिलने गए हैं। लेकिन, इसबार किसी को कुछ कहना नहीं पड़ा। अमेरिका के केलिफोर्निया विश्वविद्यालय में राहुल ने वक्तव्य दे डाला।
इस वक्तव्य में अधिकांश बाते पुरानी थीं। प्रश्न केवल यह उठा कि उन्हें ये बाते विदेशी धरती पर करनी चाहिये थीं या नहीं। मतलब पहली बार विदेश मे उनका बोलना चर्चा में आ गया। मसला आंतरिक राजनीति तक सीमित होता तो कोई बात नहीं थी। लेकिन, इसमें बात विदेश तक विस्तृत थी। चीनी राजदूत से मुलाकात के बाद यह दूसरा मसला है, जब राहुल ने विदेश मामलों तक अपने विचार पहुचाये हैं। अंतर इतना है कि चीनी राजदूत से उन्होने क्या बात की, इसे देश जान नहीं सका।
अमेरिका में राहुल ने जो बोला उसमें सर्वाधिक आपत्तिजनक भारत मे हिंसा, असहिष्णुता बढ़ने का आरोप लगाना था। राहुल ने कहा कि भारत मे असहिष्णुता बहुत बढ़ गई है। उन्होने कहा कि ध्रुवीकरण की राजनीति खतरनाक है। इसके आगे राहुल बोले कि भारत मे दलितों और मुसलमानों पर हमले हो रहे हैं। यह कहते समय राहुल खुद ध्रुवीकरण करते दिखाई दे रहे थे। उनकी पार्टी का जनाधार लगातार घट रहा है। राहुल दलित मुस्लिम का ध्रुवीकरण करना चाहते हैं। स्पष्ट है कि वह ध्रुवीकरण का आरोप सत्ता पक्ष पर लगा रहे थे और खुद ध्रुवीकरण में लगे थे। राहुल ने एक बार भी यह नही सोचा कि विदेशी जमीन पर ऐसी बातें राष्ट्रीय गरिमा और प्रतिष्ठा के लिए कितनी हानिकारक होगी।
राहुल का यह कथन देश की प्रतिष्ठा के लिए प्रतिकूल था। अब तक विश्व के हिंसाग्रस्त देशो में इराक, लेबनान, सीरिया, पाकिस्तान, अफगानिस्तान आदि का नाम लिया जाता था। मगर, राहुल दुनिया को बता रहे थे कि देखिये हमारे यहां भी असहिष्णुता है, पत्रकारों की हत्या की जा रही है। बीफ के नाम पर मुसलमानों दलितों की हत्या हो रही है, वगैरह वगैरह। इन बातों का कोई ठोस आधार नहीं है, लेकिन राहुल को आधार से क्या, उन्हें तो बस अपनी राजनीति से मतलब है।
दरअसल ये सब कानून व्यवस्था से जुड़े मसले है। इस तरह की छिटपुट हिंसा की घटनाए लगभग हर देश में होती हैं, मगर इनके आधार पर वहाँ का कोई नेता विदेश में जाकर अपने देश में हिंसा और असहिष्णुता बढ़ने जैसी भाषणबाजी नहीं करता। अपने संकीर्ण राजनीतिक हितों के लिए देश की प्रतिष्ठा के साथ राहुल गांधी का ऐसा खिलवाड़ करना शर्मनाक ही कहा जाएगा। राहुल को विदेश में भारत की ऐसी छवि पेश करने से बचना चाहिए।
कांग्रेस प्रवक्ता इसका भी बचाव कर रहे हैं। उनका कहना है कि मोदी भी विदेशो में पिछली सरकारों के घोटालो की चर्चा करते हैं। दोनो का फर्क समझना होगा। मोदी ने ये बाते भारतीय समुदाय और निवेशकों से कही थीं। यह बताना जरूरी था। क्योंकि यूपीए सरकार के घोटालो से निवेशक निराश थे। वह भारत मे निवेश नहीं करना चाहते थे।
इसलिए उनको विश्वास दिलाना जरूरी था कि भारत का निजाम बदल चुका है। घोटाला मुक्त व्यवस्था की स्थापना हुई है। निवेशक इस पर विश्वास कर सकते हैं। इसी प्रकार प्रवासी भारतीय भी भारत मे अपनी भूमिका बढा सकते है। उन्हें भी अपने स्तर से मातृभूमि के विकास में योगदान करना चाहिए। अतः राहुल की उल-जुलूल बातों के बचाव में मोदी की बाते रखना कांग्रेसियों की नासमझी को ही दिखाता है।
राहुल ने वंशवाद की जैसी पैरवी की वह भी गलत थी। नेता पुत्र का नेता बनना अलग है। पूरी पार्टी वंशवाद के आधार अगली पीढ़ी के पास चली जाए, यह दूसरी बात है। दोनो में जमीन आसमान का अंतर है। राहुल ने 2019 में प्रधानमंत्री पद की दावेदारी मंजूर करने की बात कही । लेकिन वर्तमान माहौल में उनके लिए यह आसान नही होगा। अधिकांश प्रदेशो में अकेले चुनाव में उतरना कांग्रेस के लिए मुश्किल है। उसे यहाँ क्षेत्रीय दलों के पीछे चलना है। अब वह क्षेत्रीय दल राहुल को प्रधानमंत्री पद का दावेदार स्वीकारेंगे, इसकी कोई गारंटी नहीं है।
राहुल को अभी यह भी समझना होगा कि विदेशी जमीन और विदेशी मसलो पर क्या बोलना है। उन्होने कहा कि चीन ने नेपाल, बांग्लादेश, म्यामार, श्रीलंका, मालदीव में आकर भारत को घेर लिया है। भारत की विदेश नीति कमजोर है। भारत कमजोर हो रहा है। ऐसा लग रहा था, जैसे राहुल यूपीए समय की बात कर रहे हो। तब ऐसा जरूर था। वैसे विदेश में आपने देश को कमजोर बताना उचित नहीं था। यूपीए के मुकाबले नरेंद्र मोदी की विदेश नीति कहीं अधिक प्रभावशाली है। ये बात देश और दुनिया बाखूबी जानते हैं।
राहुल अर्थव्यवस्था पर भी बोलने से भी नहीं चूके। कहा कि नोटबन्दी से पहले संसद को विश्वास में नही लिया गया। कौन बताए कि संसद में चर्चा के बाद वास्तविक नोटबन्दी संभव ही नहीं हो सकती थी। वैसे भी पिछले तीन वर्षों में कोंग्रेस की संसद में भूमिका किसी से छिपी नही है। गनीमत रही कि राहुल ने कांग्रेस की एक कमजोरी का भी उल्लेख किया। कहा कि 2012 के बाद कोंग्रेस में घमण्ड आ गया था। बात सही है। लेकिन तब से लेकर आज तक राहुल ने घमंडी नेताओ को सबक सिखाने के लिए क्या किया। कांग्रेस में यूपीए काल के नेता आज भी प्रभावी हैं। मतलब सभी घमंडी आज भी कांग्रेस में प्रमुख भूमिका का निर्वाह कर रहे हैं।
दरअसल कांग्रेस और राहुल के लिए मोदी और भाजपा विरोध से ऊपर उठकर सोचना मुश्किल है। उनके साथ यह स्थिति तब तक रहेगी, जब तक केंद्र में यह सरकार रहेगी। इस विरोध के कारण उन्हें देश-विदेश जहां भी मुंह खोलने का अवसर मिलेगा, वे आँख मूंदकर मोदी विरोध में ही बोलेंगे। अब इस विरोध के चक्कर में चाहें देश की छवि और प्रतिष्ठा को क्षति ही क्यों न पहुँच जाए, इसकी राहुल और उनकी कांग्रेस को कोई परवाह नहीं है। मगर, अपने इस रुख से कांग्रेस अपना कोई हितसाधन नहीं कर पाएगी, क्योंकि अब देश नकारात्मक राजनीति से ऊब चुका है और ऐसी राजनीति करने वालों को सबक सिखाता जा रहा है।
(लेखक हिन्दू पीजी कॉलेज में एसोसिएट प्रोफेसर हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)