दुर्भाग्य से हमारी राजनीति में कुछ दल ऐसे भी हैं, जिनके लिए वोट की राजनीति ही सबकुछ है। चूँकि लोकतंत्र में जनता का समर्थन चाहिए होता है, इसलिए ये राजनीतिक दल समाज को टुकड़ों-टुकड़ों में बाँटकर अपना पक्ष मजबूत करने के प्रयत्न कर रहे हैं। सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत ने इस प्रकार की राजनीति से भी सतर्क रहने के संकेत किए हैं। इन सब प्रयत्नों को विफल करने के लिए उन्होंने एक मंत्र दिया है- “यह भारत माता है, जो हम सबको जोड़ती है”।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की परंपरा में विजयादशमी के उत्सव पर सरसंघचालक के उद्बोधन का विशेष महत्व है। विजयादशमी हिंदुओं का बड़ा सामाजिक उत्सव होने के साथ ही संघ की स्थापना का उत्सव भी है। इस उत्सव में सरसंघचालक जी का जो उद्बोधन होता है, उसमें स्वयंसेवकों के लिए पाथेय रहता है। इसके साथ ही उनके भाषण में समसामयिक मुद्दों को लेकर समाज की सज्जन शक्ति के लिए भी संदेश रहता है।
चूँकि आज संघ पर सबकी निगाहें रहती हैं और विभिन्न विषयों को लेकर संघ के दृष्टिकोण को जानने की भी अपेक्षा रहती है, इसलिए भी विजयादशमी पर होनेवाले सरसंघचालक के उद्बोधन को लेकर सबको विशेष उत्सुकता रहती है।
सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत ने अपने उद्बोधन में सब प्रकार की बातों को ध्यान में रखा। उन सब मुद्दों पर संघ का दृष्टिकोण प्रस्तुत किया, जिन पर देशभर में चर्चाएं चल रही हैं। विजय का पर्व है, इसलिए देशवासियों के मन में उत्साह का संचार हो इसलिए उन्होंने अपने उद्बोधन की शुरुआत भारत की उपलब्धियों के साथ ही की।
वीरांगना रानी दुर्गावती की 500वीं जयंती, छत्रपति शिवाजी महाराज के हिन्दवी स्वराज्य की स्थापना के 350वें वर्ष, छत्रपति शाहू जी महाराज की 150वीं जयंती और संत श्रीमद् रामलिंग वल्ललार की 200वीं जयंती का उल्लेख करके उन्होंने यही संदेश दिया है कि अमृतकाल में जब हम भारत के ‘स्व’ के जागरण का उपक्रम कर रहे हैं, तब हमें ऐसी महान विभूतियों के जीवन से अवश्य ही प्रेरणा लेनी चाहिए। एक सामर्थ्यशाली राष्ट्र के निर्माण के लिए व्यवहार से लेकर व्यवसाय में और व्यक्ति से लेकर राष्ट्र की नीति में, ‘स्व’ दिखना चाहिए।
देश एक करवट ले रहा है। सांस्कृतिक पुनर्जागरण का एक वातावरण भारत में दिखायी देने लगा है। अमृतकाल को अवसर मानकर एक बार फिर भारत अपने ‘स्व’ की ओर बढ़ रहा है। विश्व पटल पर भी अब भारत अपने ‘स्व’ के साथ अभिव्यक्त हो रहा है। इसके प्रमाण स्वरूप सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत ने ‘जी-20 समूह’ पर भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों की छाप को उल्लेखित किया। यह तो स्पष्ट ही दिखायी देता है कि भारत की अध्यक्षता में विश्व के सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देशों के समूह का दृष्टिकोण ही बदल गया। यह समूह अब तक अर्थ को केंद्र में रखकर दुनिया का विचार करता था, लेकिन अब इसका केंद्र बिन्दु मानव हो गया है।
नि:संदेह, सरसंघचालक जी ने ठीक ही कहा कि “भारत के विशिष्ट विचार एवं दृष्टि के कारण संपूर्ण विश्व के चिंतन में वसुधैव कुटुम्बकम् की दिशा जुड़ गई। जी-20 का अर्थकेन्द्रित विचार अब मानव केन्द्रित हो गया”। जी-20 समूह की अध्यक्षता की ऐतिहासिक घटना का उल्लेख उन्होंने संभवत: इसलिए भी किया होगा, ताकि हम भारत के बढ़ते सामर्थ्य एवं गौरव की अनुभूति करानेवाली इस घटना को भूल न जाएं।
सबकुछ स्पष्ट कर देंगे ये प्रश्न :
देश की प्रगति को बाधित करने के प्रयत्नों में लगी शक्तियों की ओर भी समाज की सज्जनशक्ति का ध्यान आकर्षित कराने का प्रयास सरसंघचालक ने किया। उनके द्वारा उठाए गए ये प्रश्न विचारणीय हैं कि लगभग एक दशक से शांत मणिपुर में अचानक यह आपसी फूट की आग कैसे लग गई? क्या हिंसा करने वाले लोगों में सीमापार के अतिवादी भी थे? अपने अस्तित्व एवं भविष्य के प्रति आशंकित मणिपुरी मैतेयी समाज और कुकी समाज के इस आपसी संघर्ष को सांप्रदायिक रूप देने का प्रयास क्यों और किसके द्वारा हुआ?
वर्षों से वहाँ पर सबकी समदृष्टि से सेवा करने में लगे संघ जैसे संगठन को बिना कारण इसमें घसीटने का प्रयास करने में किसका निहित स्वार्थ है? इस सीमा क्षेत्र में नागाभूमि व मिजोरम के बीच स्थित मणिपुर में ऐसी अशांति व अस्थिरता का लाभ प्राप्त करने में किन विदेशी सत्ताओं को रुचि हो सकती है? क्या इन घटनाओं का कारण परंपराओं में दक्षिण पूर्व एशिया की भू- राजनीति की भी कोई भूमिका है? देश में मजबूत सरकार के होते हुए भी यह हिंसा किन के बलबूते इतने दिन बेरोकटोक चलती रही है?
गत 9 वर्षों से चल रही शान्ति की स्थिति को बरकरार रखना चाहने वाली राज्य सरकार होकर भी यह हिंसा क्यों भड़की और चलती रही? आज की स्थिति में जब संघर्षरत दोनों पक्षों के लोग शांति चाह रहे हैं, उस दिशा में कोई सकारात्मक कदम उठता हुआ दिखते ही कोई हादसा करवा कर, फिर से विद्वेष एवं हिंसा भड़काने वाली ताकतें कौन सी हैं?
ये प्रश्न ऐसे हैं, जो भारत के प्रति भक्ति का भाव रखनेवाले प्रत्येक भारतीय नागरिक के मन में पहले दिन से उठ रहे हैं। वह भी इन प्रश्नों के उत्तर खोज रहा है। वह उत्तर तक पहुँच भी रहा है। उल्लेखनीय है कि मणिपुर में जब हिंसा के कारण सामान्य जन-जीवन अस्त-व्यस्त है, तब वहाँ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ता जमीन पर उतरकर, बिना किसी भेदभाव के, दोनों ही वर्गों के बीच राहतकार्य संचालित कर रहे हैं। इसलिए संघ मणिपुर की हिंसा का सच अधिक नजदीक से देख पा रहा है।
स्मरण रखें कि देश में जिस प्रकार का हिन्दुत्व का वातावरण बना है और राष्ट्रीय विचार की सरकार सत्ता के केंद्र में है, ऐसे में समाजकंटक ताकतों के फलने-फूलने के अवसर समाप्त हो गए हैं। यह भी कि पिछले कुछ वर्षों में सभी क्षेत्रों में भारत जिस तरह मजबूती से बढ़ रहा है, वह भी भारत विरोधी ताकतों को पच नहीं रहा है।
ये अभारतीय ताकतें किसी भी कीमत पर हिन्दुत्व और राष्ट्रीय विचार को कमजोर करके भारत की प्रगति बाधित करना चाहती हैं। इसलिए पंजाब से लेकर मणिपुर और तमिलनाडु से लेकर जम्मू-कश्मीर तक, ये ताकतें समाज में अराजक वातावरण बनाने की साजिशें रच रही हैं। पिछले कुछ वर्षों में हुए अराजक आंदोलनों के पीछे भी इन ताकतों की भूमिका रही है।
समाज की एकता के लिए हमें राजनीति से अलग होकर समाज का विचार करते हुए चलना पड़ेगा :
दुर्भाग्य से हमारी राजनीति में कुछ दल ऐसे भी हैं, जिनके लिए वोट की राजनीति ही सबकुछ है। चूँकि लोकतंत्र में जनता का समर्थन चाहिए होता है, इसलिए ये राजनीतिक दल समाज को टुकड़ों-टुकड़ों में बाँटकर अपना पक्ष मजबूत करने के प्रयत्न कर रहे हैं। सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत ने इस प्रकार की राजनीति से भी सतर्क रहने के संकेत किए हैं। इन सब प्रयत्नों को विफल करने के लिए उन्होंने एक मंत्र दिया है- “यह भारत माता है, जो हम सबको जोड़ती है”। उन्होंने यह भी कहा कि समाज को एकजुट करने के लिए अनेक स्तरों पर काम करना होगा।
समाज की सज्जनशक्ति को अपना बहुत कुछ दांव पर लगाना होगा। दुर्भाग्यपूर्ण परिस्थिति के कारण उत्पन्न परस्पर अविश्वास की खाई को पाटने में समाज के प्रबुद्ध नेतृत्व को एक विशेष भूमिका निभानी होगी। हमें सदैव स्मरण करते रहना चाहिए- “हमारे देश में विद्यमान सभी भाषा, प्रान्त, पंथ, संप्रदाय, जाति, उपजाति इत्यादि विविधताओं को एक सूत्र में बाँधकर एक राष्ट्र के रूप में खड़ा करने वाले तीन तत्व (मातृभूमि की भक्ति, पूर्वज गौरव एवं सबकी समान संस्कृति) हमारी एकता का अक्षुण्ण सूत्र हैं”।
समाज को अराजकता में धकेलता है सांस्कृतिक मार्क्सवाद और वोकिज्म :
सरसंघचालक ने ‘सांस्कृतिक मार्क्सवाद और वोकिज्म’ की ओर भी ध्यान आकर्षित किया। दरअसल, अपने हिंसक एवं तानाशाही स्वरूप के कारण दुनिया में असफल और अस्वीकार हो चुका कम्युनिज्म का विचार अब ‘सांस्कृतिक मार्क्सवाद और वोकिज्म’ के रूप में अपने पैर पसारने की कोशिश कर रहा है। ऐसा लगता है कि वोक यानी अव्यवस्थाओं एवं शोषण के प्रति जगे हुए लोग होते हैं। परंतु वास्तविकता यह है कि ये लोग वोकिज्म के नाम पर अराजकता एवं अविश्वास का वातावरण बनाना चाहते हैं।
प्रचार माध्यमों एवं अकादमियों में घुसपैठ करके देश की शिक्षा, संस्कार, राजनीति एवं सामाजिक वातावरण में भ्रम पैदा करते हैं। जब समाज में आपसी विवाद बढ़ने लगते हैं और अराजकता बढ़ जाती है, तब ये विध्वंसकारी ताकतें उस समाज को अपना शिकार बना लेती हैं। सरसंघचालक जी ने उचित ही ध्यान आकर्षित किया कि जिन्होंने 1920 में ही मार्क्स को भुला दिया और जिनका संस्कृति और संस्कार से कोई वास्ता ही नहीं, वे सांस्कृतिक मार्क्सवाद के नाम पर क्या ही करेंगे? इन्हें सुव्यवस्था, मांगल्य, संस्कार और संयम से विरोध है। आज समाज को इन ताकतों से भी सावधान रहने की आवश्यकता है।
इन सब प्रकार की साजिशों का एक ही उत्तर है- ‘समाज की एकता’। उनके पाथेय का सार यह है, जिसका सबको अनुसरण करना है- समाज की एकता, सजगता एवं सभी दिशा में निस्वार्थ उद्यम, जनहितकारी शासन एवं जनोन्मुख प्रशासन ‘स्व’ के अधिष्ठान पर खड़े होकर परस्पर सहयोगपूर्वक प्रयासरत रहते हैं, तभी राष्ट्र बल वैभव सम्पन्न बनता है।
बल और वैभव से सम्पन्न राष्ट्र के पास जब हमारी सनातन संस्कृति जैसी सबको अपना कुटुंब मानने वाली, तमस से प्रकाश की ओर ले जाने वाली, असत् से सत् की ओर बढ़ाने वाली तथा मर्त्य जीवन से सार्थकता के अमृत जीवन की ओर ले जाने वाली संस्कृति होती है, तब वह राष्ट्र, विश्व का खोया हुआ संतुलन वापस लाते हुए विश्व को सुख-शांतिमय नवजीवन का वरदान प्रदान करता है। वर्तमान समय में हमारे अमर राष्ट्र के नवोत्थान का यही प्रयोजन है।
(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय में सहायक प्राध्यापक हैं। प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं।)