सबसे अहम सवाल अब ये उठता है कि यदि वामपंथियों, तथाकथित सेकुलरों और वैचारिक खूंटे से बंधे पत्रकारों को किसी भी पत्रकार की हत्या से बहुत तकलीफ होती है, उन्हें ऐसा लगता है कि ये अभिव्यक्ति का हनन है तो ये सारे लोग शांतनु की हत्या के बाद से चुप क्यों हैं? ये लोग कहां चले गए हैं? क्या शांतनु की हत्या कोई मामूली अथवा भूल जाने योग्य घटना है? अगर नहीं, तो फिर शांतनु की हत्या पर गौरी लंकेश की हत्या जैसा शोर क्यों नहीं है? त्रिपुरा की वामपंथी सरकार से सवाल क्यों नहीं पूछे जा रहे?
पिछले दिनों तथाकथित पत्रकार गौरी लंकेश की हत्या हुई, जिसकी खबरें लगातार सुर्खियों में बनी रहीं। मीडिया में लंकेश की हत्या से अधिक चर्चा हत्या को लेकर मची राजनीति पर हुई। यह शोर अभी थमा नहीं था कि बीते बीस सितम्बर को एक और पत्रकार की हत्या की खबर सामने आई। त्रिपुरा में एक टीवी पत्रकार शांतनु भौमिक की उस वक्त हत्या कर दी गई जब वे मंडई इलाके में दो राजनीतिक दलों के बीच मचे घमासान का कवरेज करने गए थे। वहां इंडीजिनस पीपुल्स फोरम ऑफ त्रिपुरा का आंदोलन चल रहा था। शांतनु उसकी खबर करने गए और उन पर पीछे से अज्ञात व्यक्ति ने चाकू से वार कर दिए।
यह भी बताया जाता है कि हत्या से पहले शांतुन का अपहरण हुआ, उसके बाद हत्या हुई। पुलिस को जब शांतनु बुरी हालत में मिले तो उनके शरीर पर चाकू के कई वार के निशान पाए गए। उन्हें बचाने के प्रयास किए गए, लेकिन विफल रहे। हालांकि अभी भी पूरी तरह से स्पष्ट नहीं हो पाया है कि शांतनु की हत्या कैसे हुई। किस प्रकार उन्हें भीड़ के बीच उठाकर ले जाया गया और बहुत देर बाद पुलिस ने मशक्कत से उन्हें बरामद किया। ये सब अभी संदिग्ध है। लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं कि एक युवा पत्रकार की जीवन यात्रा का इतने बुरे तरीक से अंत हो गया।
गौर करने योग्य बात यह है कि लंकेश की हत्या के बाद तथाकथित सेकुलरों एवं वामपंथियों ने इस घटना को लगभग राष्ट्रीय मुद्दा बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। कर्नाटक से दिल्ली तक खूब निंदा, नारेबाजी और विरोध के स्वर गूंजे। लंकेश की हत्या को तथाकथित सेकुलरों व वामदलों ने जमकर भुनाया।
कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने हमेशा की तरह बिना सोचे समझे, अपनी वैचारिक दरिद्रता का एक और उदाहरण देते हुए लंकेश की हत्या के पीछे संघ का हाथ होने का आरोप लगा दिया। उधर, देशविरोधी नारे लगाने का आरोपी कन्हैया कुमार दिल्ली प्रेस क्लब में बड़े-बड़े पत्रकारों के बीच लंकेश की श्रद्धांजलि सभा को संबोधित करता नज़र आया। रही सही कसर विवेकहीन मीडिया ने भी पूरी कर दी।
एक चैनल ने तो यहां तक लिखा कि बीजेपी विरोधी पत्रकार की हत्या। अब यह बहुत बुनियादी और प्राथमिक बात है कि यदि वह बीजेपी विरोधी हैं तो पत्रकार कैसे हुई। किसी पार्टी का समर्थक या विरोधी होना पत्रकारिता की पाठशाला में नहीं सिखाया जाता। पत्रकारिता की पहली सीढ़ी ही निरपेक्ष भाव से सच कहने की होती है। यदि लंकेश संघ, बीजेपी विरोधी थीं, तो उन्हें किस मुंह से पत्रकार कहा गया। एक टिप्पणी में तो उन्होंने संघ को गंदी गालियां तक दीं। इसके बावजूद भी उन्हें पत्रकार कहना विचित्र ही है।
खैर, सबसे अहम सवाल अब ये उठता है कि यदि वामपंथियों और सेकुलरों को किसी भी पत्रकार की हत्या से बहुत तकलीफ होती है, उन्हें ऐसा लगता है कि ये अभिव्यक्ति का हनन है तो ये सारे लोग शांतनु की हत्या के बाद से चुप क्यों हैं? ये लोग कहां चले गए हैं? क्या शांतनु की हत्या कोई मामूली अथवा भूल जाने योग्य घटना है? क्या शांतनु पत्रकार नहीं था, या शांतनु की हत्या कार्य करते समय नहीं बल्कि सैर सपाटा करते हुई? शांतनु रिपोर्टिंग करते वक़्त मारे गए।
इतने सारे सवालों का इनके पास शायद ही कोई जवाब हो। असल में, शांतनु की मौत का बवाल बनाने से इन हंगामेबाज लोगों को कुछ लाभ नहीं दिख रहा, इसलिए शांतनु जैसे कितने ही पत्रकार काल के गाल में समा जाएं, इन्हें फर्क नहीं पड़ेगा। लंकेश घोषित रूप से संघ-भाजपा विरोधी और वामपंथी खेमे की पत्रकार थीं, इसलिए उनकी मौत को पूरी तरह राजनीतिक रंग देकर भुनाया जा सकता था, भुनाया गया; लेकिन शांतनु की मृत्यु से कोई राजनीतिक हितों की पूर्ति नहीं हो सकती, इसलिए उनपर कोई विशेष चर्चा नहीं हुई।
हाँ, शोक जताने की रस्म अदायगी कर विचारधारा विशेष के कुछ पत्रकारों ने खुद को बैलेंस करने की कोशिश जरूर की है। लेकिन दोनों मामलों में एक बात समान रही कि जैसे लंकेश की हत्या के समय राज्य की कांग्रेस सरकार से इन्होने कोई सवाल नहीं पूछा था, वैसे ही शांतनु की हत्या के बाद त्रिपुरा की वाम सरकार पर भी ये एक सवाल नहीं उठा रहे। शांतनु प्रकरण में भी निश्चित ही ये गंग संघ-भाजपा का कोई एंगल गढ़ने में लगी होगी।
वास्तव में ना तो लंकेश के हत्यारों का पता चल पाया है ना ही शांतनु के, लेकिन शांतनु की बेदर्दी से हुई हत्या के बाद गौरी की हत्या पर चिल्ल-पों मचाने वाले सभी तथाकथित मुखर लोगों को सांप सूंघ जाना उन्हें एक्सपोज करता है। यह शुद्ध रूप से वामदलों और कांग्रेस का पाखंड है, दोहरा चरित्र है। जहां तक शांतनु की बात है, वे लंकेश की तरह घृणा आधारित एक पक्षीय पत्रकारिता करने वाले नहीं, बल्कि एक जोशीले, युवा और ईमानदार पत्रकार थे। उनके साथी तन्मय चक्रवर्ती ने उनके बारे में बताया कि वे हमेशा फील्ड में स्वयं पहुंचकर खबरें करते थे।
जैसे ही उन्हें आईपीएफटी और गणमुक्ति परिषद के बीच हिंसा की सूचना मिली, वे तत्काल वहां पहुंच गए। हालांकि वहां भीड़ से निपटने के लिए पुलिस तैनात थी लेकिन जैसे ही पुलिस ने लाठीचार्ज किया, गुस्साई भीड़ ने शांतनु पर ही हमला बोल दिया। हत्यारे भीड़ में ही मौजूद थे। शांतनु को पहले डंडे से पीटा गया, उसके बाद उनकी धारदार हथियारों से हत्या कर दी गई।
गौरी लंकेश जैसी पक्षपाती, खेमेबाज, नफरत फैलाने वाली, गंदी भाषा लिखने वाली तथाकथित पत्रकार की हत्या पर जिन दलों ने खूब शोरगुल मचाया लेकिन शांतनु जैसे वास्तविक पत्रकार की हत्या के बाद उसके लिए, उसके परिवार के लिए बोलने वाला, चिंता करने वाला कोई भी सामने नहीं आया है।
शांतनु एक मध्यमवर्गीय परिवार से आते थे। उनके पिता का कई साल पहले ही निधन हो चुका था। मां नौकरी करती है। शांतनु पर मां और छोटी बहन की जिम्मेदारी थी। उसके इस तरह जाने के बाद उसके परिवार के लिए किसी भी प्रकार की सुरक्षा की कोई आवाज नहीं उठाई गई। यह वामपंथियों और कांग्रेसियों का सबसे घिनौना चेहरा है। वोटबैंक की राजनीति के लिए किसी भी स्तर तक गिरने वाली कांग्रेस और वामदलों का असली चेहरा इस घटना से सामने आ चुका है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)