यूपी विधानसभा चुनाव में सपा-कांग्रेस गठजोड़ का भाजपा को फायदा मिला। यह इतिहास अपने को दोहराने की तैयारी में है। केवल एक किरदार बदला है। सपा वहीं है। कांग्रेस की जगह बसपा आ गई। विश्वसनीयता पहले से भी कम हो गई। जब मौका देखा कांग्रेस के साथ हो गए, फिर मौका देखकर उसे छोड़ कर बसपा के साथ हो गए। मतलब अकेले लड़ने का हौसला नहीं रहा, न दोस्ती की कद्र रही, न बातों का ऐतबार रहा। वहीं मायावती ने तो कोई गलतफहमी भी नही छोड़ी। स्पष्ट कर दिया कि दोस्ती का यह पैगाम राज्यसभा की एक सीट के लिए है।
राष्ट्रीय स्तर पर केसरिया उभार ने उत्तर प्रदेश में विपक्ष को गठजोड़ के लिए विवश कर दिया। लेकिन, इन्होने आज की बीमारी के लिए पच्चीस वर्ष पुरानी दवा लेने का निर्णय लिया है। इस लंबी अवधि में बहुत कुछ बदल गया। गोमती का न जाने कितना पानी बह चुका। अब बसपा संस्थापक कांशीराम हैं नहीं, सपा संस्थापक मुलायम सिंह यादव उस पार्टी के लिए बेगाने हो गए हैं, जिसकी स्थापना उन्होंने की थी। मतलब कांशीराम और मुलायम सिंह यादव ने जिस प्रयोग से आजीवन तौबा कर लिया था, उनके उत्तराधिकारी समयचक्र को वापस वही पहुंचाने को बेकरार है। इस जुनून में इन्होंने यह भी नहीं सोचा कि वह जिस राजनीतिक इलाज का सहारा ले रहे है, वह एक्सपायर हो चुका है। यह फायदे की जगह नुकसान ही करेगा।
राजनीति के फार्मूले में दो और दो का योग चार होना जरूरी नहीं होता। कई बार जोड़ने के लिए रखे गए दो और दो एक दूसरे को ही काटने लगते है। इस बेमेल गठजोड़ की भी यही दशा होनी है। तीस वर्षों से जिस सामाजिक वर्ग में उचित संवाद तक नहीं रहा, उन्हें एक चुनाव निशान पर जुड़ने का फरमान सुना दिया गया। इसके लिए भी कोई बड़ा सामाजिक लक्ष्य होता तो बात समझ में आती, लेकिन मात्र राज्यसभा की एक सीट के लिए अपने मतदाताओं को बेमेल दोस्ती का निर्देश दिया जा रहा है।
दो और दो के चार न होने का उदाहरण उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में ही दिखाई दिया था। उसमें एक पक्ष सपा ही थी। इस प्रसंग की याद अभी ताजा है। कांग्रेस ने ‘सत्ताईस साल यूपी बेहाल’ अभियान चलाया था। राहुल गांधी खटिया जनसभा कर रहे थे। सपा तब सत्ता में थी। उस पर भी खूब हमले किये गए। उधर सताइस साल यूपी बेहाल अभियान समाप्त हुआ, इधर सपा और कांग्रेस में चुनावी गठबंधन हो गया। सत्ताईस साल में जिस पार्टी ने सबसे अधिक शासन किया, कांग्रेस की उससे दोस्ती हो गई।
इसके बाद मतदाताओं को इस दोस्ती की दुहाई दी जाने लगी। मतलब कई बार नेता मतदाताओं को नासमझ मान लेते हैं। यह सोचते हैं कि मतदाता उनकी सब बातों पर विश्वास करेगा। वह जब यूपी की बेहाली की जिम्मेदारी तय करेंगे, तो उसपर मतदाता विश्वास कर लेंगे; जब उन्हीं में से एक पार्टी से गठबंधन कर लेंगे, तो मतदाता उस पर भी वाह-वाह करने लगेगा। परिणाम सामने आ गया। मतदाता को नासमझ मानने वालों को हतप्रभ होना पड़ा। सपा सवा दो सौ से सैंतालीस पर और कांग्रेस मात्र सात पर सिमट गई थी।
साफ है कि यूपी विधानसभा चुनाव में सपा-कांग्रेस गठजोड़ का भाजपा को फायदा मिला। यह इतिहास अपने को दोहराने की तैयारी में है। केवल एक किरदार बदला है। सपा वहीं है। कांग्रेस की जगह बसपा आ गई। विश्वसनीयता पहले से भी कम हो गई। जब मौका देखा कांग्रेस के साथ हो गए, फिर मौका देखकर उसे छोड़ कर बसपा के साथ हो गए। मतलब अकेले लड़ने का हौसला नहीं रहा, न दोस्ती की कद्र रही, न बातों का ऐतबार रहा। वहीं मायावती ने तो कोई गलतफहमी भी नही छोड़ी। स्पष्ट कर दिया कि दोस्ती का यह पैगाम राज्यसभा की एक सीट के लिए है।
कुछ दिन पहले मायावती ने अपनी राज्यसभा सीट का कथित रूप में त्याग किया था। उनका कहना था कि उन्हें अपनी बात कहने का समय नहीं दिया जाता, इसलिए वह राज्यसभा की सदस्यता से त्यागपत्र दे रही है। क्या अब मायावती को लग रहा है कि राज्यसभा में अब उनकी बात सुनी जाएगी। यदि ऐसा है तो मायावती को बदले माहौल के विषय में बताना चाहिये। अन्यथा यह माना जायेगा कि मायावती ने निरर्थक ही राज्यसभा से त्यागपत्र दिया था।
मायावती और अखिलेश अपनी राजनीतिक दोस्ती का वास्ता अपने मतदाताओं को नहीं दे सकते। क्योंकि इसके लिए फिर यह बताना होगा कि पिछले तीन दशक से जो चल रहा था, वह क्या था। एक दूसरे को किस प्रकार के संबोधनों से नवाजा जाता था। इसके अलावा सपा और बसपा दोनो इस समय अपनी सबसे दयनीय दशा में है। इनके नेताओं को यह गलतफहमी नहीं होनी चाहिए कि इनका वोटबैंक पहले की तरह मजबूत है। न इनमें अपने वोटबैंक को दूसरी पार्टी में ट्रांसफर कराने की हैसियत बची है। बसपा के वोटबैंक में सेंधमारी हो चुकी है। मायावती के सामने यह भी बड़ी समस्या है। सपा के साथ जाने के फैसले को उनके मतदाता पचा नहीं पा रहे हैं। ऐसे में, भाजपा उनके सामने विकल्प के रूप में है।
इस समय जम्मू-कश्मीर, मेघालय, नगालैंड, त्रिपुरा में भाजपा और वहां के क्षेत्रीय दलों के गठबंधन की दलील दी जा रही है। लेकिन सपा ,बसपा की दोस्ती और उन गठबंधन में बहुत अंतर है। यदि सपा बसपा उस रास्ते का अमल करती तो आपत्ति की कोई बात नही होती । जम्मू कश्मीर विधानसभा चुनाव में भाजपा और पीडीपी एक दूसरे के खिलाफ पूरी ईमानदारी से लड़ी थी। परिणाम आये तो केवल इनके गठबंधन द्वारा ही सराकर बनाना संभव था। इसके लिए न्यूनतम साझा कार्यक्रम बना। यह तय हुआ कि बड़ी पार्टी का मुख्यमंत्री और कम संख्या वाली पार्टी का उप मुख्यमंत्री होगा। यही हुआ।
पूर्वोत्तर राज्यों के कई क्षेत्रीय दल एनडीए में पहले ही शामिल थे। वह पहले ही न्यूनतम साझा कार्यक्रम पर सहमत थे। इसमें आपत्ति की कोई बात नहीं है। सपा-बसपा की दोस्ती किसी सिद्धान्त के तहत नहीं है। राज बब्बर ने इसे स्वार्थ पर आधारित गठबन्धन करार दिया है। बिहार में महागठबंधन जिस प्रकार विफल हुआ है, उसका असर भी यहां होगा। सपा और बसपा की स्थिति तो कहीं ज्यादा पेचीदा है। यहां नेतृत्व का मुद्दा मायावती और अखिलेश के बीच सदैव बाधक बना रहेगा। जिस प्रकार कांग्रेस और सपा गठबन्धन से इन दोनों को नुकसान और भाजपा को फायदा हुआ था, वही नजारा गोरखपुर और फूलपुर में दिखाई देगा। मतदाताओं को ऐसे सिद्धांतविहीन और स्वार्थ पर आधारित गठजोड़ नागवार लगते हैं।
(लेखक हिन्दू पीजी कॉलेज में एसोसिएट प्रोफेसर हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)