विवेकानंद शिला स्मारक ‘एक भारत श्रेष्ठ भारत’ का जीता जागता उदाहरण है, जिसके निर्माण के दौरान अर्थिक दिक्कत पड़ने पर पूरे राष्ट्र ने आर्थिक योगदान दिया और जब आज भी कोई व्यक्ति राजस्थान, असम, ओडिशा, या महाराष्ट्र से कन्याकुमारी आकर स्मारक को देखता है तो अनायास ही कहता है कि “मैनें भी इस स्मारक के निर्माण के लिए आर्थिक सहयोग किया है”। वस्तुतः इस स्मारक को बनाने में पूरे देश ने योगदान दिया तो सही मायने में यह एक ‘राष्ट्रीय स्मारक’ हुआ!
महान विभूतियों के नाम पर अनेक सार्वजनिक स्थलों का नामकरण वर्षो से होता आया है। लेकिन जिन स्थानों से उन विभूतियों का नाता और रिश्ता रहा है वह स्थल और भी महत्वपूर्ण और विशेष हो जाते हैं। वह स्थान कोई साधारण जगह नहीं होती बल्कि कर्म भूमि का भाग होती है जो इतिहास के पन्नों में दर्ज हो जाती है। स्वामी विवेकानंद के जीवन काल से जुड़े हुए अनेक स्थल सरकार या उनके संगठन “रामकृष्ण मिशन” द्वारा संरक्षित किए गए हैं। स्वामीजी ने अपने जीवन काल में पूरे भारत का भ्रमण किया था एक परिव्राजक संन्यासी के तौर पर इसलिए उनसे जुड़े हुए विशेष स्थल भी सम्पूर्ण भारत में उपस्थित हैं। जहां-जहां उनका प्रवास हुआ वह स्थान खुद ही विशेष बन गया क्योंकि उनके पद चिन्ह वहा पर हैं।
जिस शिला पर मिला था स्वामीजी को अपने जीवन का उद्देश्य
स्वामी विवेकानंद के जीवन से जुड़ा हुआ ऐसा ही एक विशेष स्थान है दक्षिण भारत का आखिरी तट कन्याकुमारी जहा पर समुद्र के बीच में उन्होंने एक शिला पर 3 दिन और रात भारत के भूत, वर्त्तमान और भविष्य पर साधना और चिंतन किया था। 25, 26, 27 दिसंबर 1892 की तारीख थी। यह स्थान और भी विशेष हो जाता है क्योंकि स्वामीजी को अपने जीवन का उद्देश्य भी यहीं मिला था और माता कन्याकुमारी का सम्बन्ध भी इस शिला से रहा है। जिस शिला पर स्वामी विवेकानंद ने ध्यान कर भारत के अवनति का कारण और उन्नति के रास्ते को जाना, मान्यतानुसार यह वही शिला थी जहां माता पार्वती ने कन्याकुमारी के रूप में अवतार लेकर भगवान शिव के लिए तप किया था।
वो शिला जहां स्वामी जी को ज्ञात हुआ कि ‘धर्म नहीं, बल्कि धर्म का अज्ञान’ भारत की अवनति का कारण था। इसलिए उन्होंने अमेरिका के शहर शिकागो में आयोजित विश्व धर्म महासभा ( World Parliament of Religions) में जाकर, हिंदू धर्म का प्रतिनिधित्व करने का निश्चय किया ताकि पश्चिमी देश वेदांत के महत्व को समझें और भारत के हर नागरिक को अपने धर्म पर गर्व हो! क्योंकि जो भारत स्वामी जी के समक्ष था वो उनकी आकांक्षाओं से कोसों दूर था!
उनके समक्ष एक एक ऐसा भारत था जहाँ पढ़े लिखे लोगों ने स्वयं को भारत माता और उसकी संस्कृति की आत्मा से अलग कर लिया था; जहां लोगों के पास दो वक्त की रोटी कमाने के अलावा किसी और कार्य के लिए ना समय था ना ही उत्साह I स्वामी विवेकानंद अपनी 39 वर्ष की अल्पायु में ही हमें भारत मां की असली तस्वीर का बोध करवा गए जिसकी शुरुआत उनके अपने लक्ष्य और ‘भारत मां के कार्य समझने’ से हुई।
शिला से विवेकानंद शिला स्मारक तक
कन्याकुमारी में समुद्र के बीचों बीच स्थित शिला पर स्वामी विवेकानंद जी की जन्म शताब्दी पर कन्याकुमारी के लोगों द्वारा एक शिला स्मारक बनाने की कल्पना की गई ‘विवेकानंद शिला स्मारक’ और साथ ही एक समिति का गठन भी किया गया। स्मारक के शिला पर बनने के विचार से ही कन्याकुमारी में उपस्थित ईसाई समुदाय ने बेबुनियादी मान्यताओं के आधार पर इस बात का विरोध करना शुरू किया साथ ही केंद्रीय मंत्री हुमायूँ कबीर और उस वक्त के तमिलनाडु के मुख्यमंत्री श्री भक्तवत्सल्म भी शुरुआती दौर में स्मारक के विरोध में थे।
‘विवेकानंद स्मारक समिति’ के सदस्य जब अपनी कथाओं को लेकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक गुरुजी गोकवलकर के पास पहुँचे तो ये पवित्र कार्य के लिए श्री एकनाथजी रानाडे को चुना गया जो उस वक्त राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के वरिष्ठ प्रचारक थे। एकनाथ जी की परिपूर्णता और निपुणता को देख संघ परिवार के लोग मजाक मैं अक्सर कहते थे कि “यदि क़ुतुबमीनार का भी स्थानांतरण करना हो तो एक व्यक्ति है जो ये काम कर सकता है और वह हैं एकनाथजी”!
सामाजिक मनोविज्ञान के बहुत बड़े अभ्यासक होने के साथ वे ये भी जानते थे कि जनभावना के आगे राजनीति किस तरह नया मोड़ ले लेती है, इसी कारण चाहे हुमायूं कबीर हो या श्री भक्तवत्सलम को स्मारक के लिए सहमत करवाना हो, या 3 दिनो में 323 सांसदों के हस्ताक्षर करवाने हों, उनके लिए एक सफल चुनौती थी।
विवेकानंद शिला स्मारक ‘एक भारत श्रेष्ठ भारत’ का जीता जागता उदाहरण है, जिसके निर्माण के दौरान अर्थिक दिक्कत पड़ने पर पूरे राष्ट्र ने आर्थिक योगदान दिया और जब आज भी कोई व्यक्ति राजस्थान, असम, ओडिशा, या महाराष्ट्र से कन्याकुमारी आकर स्मारक को देखता है तो अनायास ही कहता है कि “मैनें भी इस स्मारक के निर्माण के लिए आर्थिक सहयोग किया है”। वस्तुतः इस स्मारक को बनाने में पूरे देश ने योगदान दिया तो सही मायने में यह एक ‘राष्ट्रीय स्मारक’ हुआ!
शिला स्मारक से जीवंत संगठन तक
एकनाथ रानाडे जी का लक्ष्य सिर्फ बाकी स्मारकों की भाँति, विवेकानंद शिला स्मारक को एक निर्जीव स्मारक बनाना नहीं था बल्कि वो इस स्मारक को जीवंत बनाना चाहते थे। इससे वे सनातन धर्म का विचार देश के हर घर तक ले जाना चाहते थे। जिसके लिए “सिंह के पौरुष से युक्त, परमात्मा के प्रति अटूट निष्ठा से संपन्न और पावित्र्य की भावना से उद्विप्त सहस्त्रो नर-नारी, दरिद्रों एवं उपेक्षित के प्रति हार्दिक सहानुभूति लेकर, देश के एक कोने से दूसरे कोने तक भ्रमण करते हुए एक मुक्ति का, सामाजिक पुनरुथान का, सहयोग और समता का संदेश देंगे।” जैसा कि स्वामी जी ने कहा था कि “विराट की पूजा न करो, जीवित भगवान को जरूरतमंद, दलित, पीड़ित लोगों में देखो।”
7 जनवरी 1972 को अधिकृत तौर पर विवेकानंद केंद्र की स्थापना हुई। आज यह समाज कल्याण के कार्य जैसे कि शिक्षा, ग्रामीण विकास, युवा विकास, प्राकृतिक संसाधन विकास, सांस्कृतिक अनुसंधान और प्रकाशन के कार्य करता है। विवेकानंद केंद्र अपने शाखा केंद्रों और सेवा परियोजनाओं के माध्यम से 1005 से अधिक स्थानों पर 25 राज्यों और तीन केंद्र शासित प्रदेशों में काम कर रहा है और दिन- प्रतिदिन बढ़ रहा है जिसमें देश के युवाओं की एक बड़ी संख्या भी सम्मिलित है।
विवेकानंद शिला स्मारक हम सब के लिए एक प्रेरणा स्रोत है, जो स्वामी जी की ही तरह एक वट वृक्ष के समान है और जो असंख्य लोगों को अपने अंदर भारतीय संस्कृति को जीवित रखने और एक श्रेष्ठ मनुष्य बनने का संदेश देता है।
(इस लेख के लेखकद्वय आकृति कैंथोला और निखिल यादव, विवेकानंद केंद्र, उत्तर प्रान्त के कार्यकर्ता हैं। प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं।)