यह गठबन्धन सरकार कब तक चलेगी, इस पर कोई भी टिप्पणी करना जल्दीबाजी होगी। लेकिन इतना साफ है कि ऊपर वाले ने खूब जोड़ी मिलाई है। बिना शर्त समर्थन देने का कांग्रेसी रिकार्ड ही आशंका उत्पन्न करता है। याद कीजिये, केंद्र में चंद्रशेखर को कांग्रेस ने बिना शर्त समर्थन दिया था। वह प्रधानमंत्री बने थे। लेकिन कांग्रेस ने इतना दबाव बनाया कि चार महीने में ही उन्हें कुर्सी छोड़नी पड़ गई। कुमारस्वामी के पिता देवगौड़ा भी कांग्रेस के इस रंग का अनुभव कर चुके हैं।
कर्नाटक में कांग्रेस-जेडीएस सरकार का सत्ता के अंगना में प्रवेश क्लेश के साथ हुआ। गठबन्धन की मेंहदी लगने के साथ ही कांग्रेस ने अपना रंग दिखा दिया। उपमुख्यमंत्री परमेश्वर ने कहा कि अभी पांच वर्ष सरकार चलाने की गारंटी नहीं दी गई है। इसके पहले मुख्यमंत्री कुमारस्वामी ने विश्वास व्यक्त किया था कि सरकार कार्यकाल पूरा करेगी। उपमुख्यमंत्री का बयान इसी की प्रतिक्रिया में आया है। वैसे इस बार मुख्यमंत्री कुमारस्वामी के तेवर भी कम नहीं हैं।
वस्तुतः दोनों तरफ से दबाव के दांव-पेंच चल रहे हैं। दोनों खेमों को लग रहा है कि जो दब गया उसे पूरे समय तक दब कर ही रहना होगा। कुमारस्वामी ने माना कि विभागों को लेकर मतभेद हैं, लेकिन वह मुख्यमंत्री पद के भूखे नहीं है। यह कह कर कुमारस्वामी ने कांग्रेस पर दबाब बना दिया है। वह बताना चाहते है कि भाजपा को किसी तरह सत्ता से दूर रखना कांग्रेस की ही चाल थी।
इतना ही नहीं, कुमारस्वामी ने किसानों की कर्ज माफी का मुद्दा भी कांग्रेस के पाले में कर दिया है। उनका कहना है कि वह अकेले यह कार्य नहीं कर सकते। इतना अवश्य है कि अगर कांग्रेस ने सहयोग न किया वह एक हफ्ते में त्यागपत्र दे देंगे। कांग्रेस ने बिना शर्त समर्थन के सरकार तो बनवा दी। लेकिन सरकार बनते ही उसके भी अरमान जाग उठे है।
खैर, यह गठबन्धन सरकार कब तक चलेगी, इस पर कोई भी टिप्पणी करना जल्दीबाजी होगी। लेकिन इतना साफ है कि ऊपर वाले ने खूब जोड़ी मिलाई है। बिना शर्त समर्थन देने का कांग्रेसी रिकार्ड ही आशंका उत्पन्न करता है। याद कीजिये, केंद्र में चंद्रशेखर को कांग्रेस ने बिना शर्त समर्थन दिया था। वह प्रधानमंत्री बने थे। लेकिन कांग्रेस ने इतना दबाव बनाया कि चार महीने में ही उन्हें कुर्सी छोड़नी पड़ गई।
कुमारस्वामी के पिता देवगौड़ा भी कांग्रेस के इस रंग का अनुभव कर चुके हैं। वह कांग्रेस के समर्थन से प्रधानमंत्री बने था। एक साल भी ठीक से नहीं बीता था कि कांग्रेस ने समर्थन वापस ले लिया। इतना ही नहीं, कांग्रेस ने उन्हें कथित तौर पर निकम्मा भी घोषित किया था। इस शब्द से देवगौड़ा बहुत व्यथित हुए थे।
गठबन्धन के प्रति कुमारस्वामी का नजरिया भी स्वार्थपूर्ण रहा है। कांग्रेस जब तक उन्हें मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठाए रखेगी, तब तक तो दोस्ती चलेगी। लेकिन कुर्सी के साथ छेड़छाड़ हुई तो कथित साम्प्रदायिक शक्तियों को रोकने की सारी असलियत सामने आ जायेगी।
इस बार सेकुलर बने कुमारस्वामी भाजपा के साथ गठबन्धन करके मुख्यमंत्री बने थे। आधे समय बाद उन्हें तय शर्त के अनुसार यह कुर्सी भाजपा के लिए छोड़नी थी। तब येदुरप्पा मुख्यमंत्री बने थे। इसके बाद गठबन्धन की शर्त व धर्म के अनुसार कुमारस्वामी को उनका समर्थन करना चाहिए था। लेकिन वह पलटी मार गए। गठबन्धन से अलग हो गए।
यह अच्छा हुआ कि इस बार कर्नाटक में जोड़ बराबरी का है। उपमुख्यमंत्री परमेश्वर से पांच वर्ष सरकार चलने के विषय में प्रश्न किया गया था। इसके जवाब में उनका कहना था कि हमने उन तौर-तरीकों पर अब तक चर्चा नहीं की है। यह भी तय नहीं कि पांच साल वह मुख्यमंत्री रहेंगे या कांग्रेस को भी अवसर मिलेगा। अब कांग्रेस लाभ और हानि को ध्यान में रख कर निर्णय करेगी। उपमुख्यमंत्री पद के लिए पार्टी की पसंद और विभागों से संबंधित मुद्दों पर कांग्रेस के कई नेता नाराज भी बताए जा रहे हैं।
उनके अनुसार पद मांगने में कुछ भी गलत नहीं है, कांग्रेस पार्टी में कई नेता हैं जो उपमुख्यमंत्री या मुख्यमंत्री बनने में सक्षम हैं। इस बयान से जाहिर है कि कांग्रेस एक और उपमुख्यमंत्री पद के लिए दबाव बनाएगी। मुख्यमंत्री के लिए भी वह आधे कार्यकाल तक ही धैर्य रखेगी। मतलब बिना शर्त समझौता राजनीतिक धोखा था। कुमारस्वामी को पारी की शुरूआत में ही इसका अनुभव हो गया।
कांग्रेस के वरिष्ठ नेता डीके शिवकुमार के नाराज होने और कुछ विधायकों के साथ अलग से बैठक करने की चर्चा भी थी। वह भी उपमुख्यमंत्री पद के दावेदार थे। शिवकुमार ने येदियुरप्पा सरकार के विश्वासमत से पहले पार्टी के विधायकों को साथ रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। वह उपमुख्यमंत्री पद नहीं मिलने से नाराज हैं।
मगर, महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि जिन बातों पर इन दोनों दलों को गठबंधन से पहले विचार करना चाहिए था, उन पर भविष्य में रणनीति बनने की बात सामने आ रही। कांग्रेस और जेडीएस के नेता साथ मिलकर समन्वय समिति के बारे में अब फैसला करेंगे। सत्ता में पहुंचने की इतनी जल्दीबाजी थी कि इन्होंने न्यूनतम साझा कार्यक्रम को कोई महत्व ही नहीं दिया जबकि एकदूसरे के खिलाफ चुनाव लड़ने वाली पार्टियों को कुछ साझा बिंदु तय करने के बाद ही सरकार बनानी चाहिए। किंतु अब ये न्यूनतम साझा कार्यक्रम तैयार करने के लिए एक पैनल बनाएंगे। ऐसे गठबंधन तो अन्य किसी को सत्ता में आने से रोकने या राष्ट्रपति शासन से बचने के लिए ही किए जाते हैं। कर्नाटक में भी यही किया गया। जाहिर है कि कर्नाटक में कांग्रेस-जेडीएस के लिए केवल सत्ता में किसी प्रकार पहुंच जाना ही एकमात्र उद्देश्य था।
जहां बहुमत के लिए एक सौ ग्यारह सदस्यों की आवश्यकता हो, वहां सैंतीस सदस्यों वाली पार्टी का मुख्यमंत्री लंबी पारी की उम्मीद नहीं कर सकता। ऐसे में दोनों तरफ गलतफहमी होती है। मुख्यमंत्री को लगता है कि उससे अधिक संख्या वाले दल की उसे समर्थन जारी रखना विवशता मात्र है। बड़ी पार्टी को लगता है कि मुख्यमंत्री को अपनी सीमाएं समझ कर चलना चाहिए। कुछ समय बाद यही सोच टकराव में बदल जाती है।
सरकार में शामिल भ्रष्ट प्रवृत्ति के लोग इसका भरपूर फायदा उठाते है। अंततः अपयश के बाद ऐसी सरकार बीच में ही गिर जाती है। राजनीति में बहुत कुछ संभव है। दोस्त और दुश्मन भी बदल जाते हैं। लेकिन सिद्धांतो से एकदम किनारा कर लेना उचित नहीं होता। कर्नाटक में केवल स्वार्थ पर आधारित सरकार बनी है। कर्नाटक के हित मे इसकी जल्दी विदाई जरूरी है।
(लेखक हिन्दू पीजी कॉलेज में एसोसिएट प्रोफेसर हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)