बहुसंख्यकों के हितों की कीमत पर अल्पसंख्यकों के तुष्टिकरण की जो नीति आजाद भारत की सरकारों द्वारा अपनाई गई उसका उदाहरण पूरी दुनिया में कहीं नहीं मिलेगा। अल्पसंख्यकों को भी केवल मुसलमानों तक सीमित कर दिया गया। इसे मुस्लिम तुष्टिकरण की पराकाष्ठा ही कहेंगे कि देश के प्रधानमंत्री तक ने सार्वजनिक मंच से कहा “संसाधनों पर पहला हक मुसलमानों का है।”
इसे देश का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि यहां एक ओर पाकिस्तान से आने वाले हिंदू-सिख शरणार्थियों को नागरिकता हासिल करने के लिए कठिनाइयों से जूझना पड़ता है, तो दूसरी ओर बांग्लादेशी घुसपैठियों को योजनाबद्ध ढंग से बसाने का नेटवर्क बन चुका है। आजादी के बाद पहली बार किसी सरकार ने अफगानिस्तान, पाकिस्तान, बांग्लादेश में धर्मिक भेदभाव और उत्पीड़न झेल रहे धार्मिक अल्पसंख्यकों को भारतीय नागरिकता देने के लिए उदार कानून बनाने की पहल की है।
नागरिकता कानून 1955 में संशोधन करते हुए मोदी सरकार ने अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश में हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और इसाई धर्म के मानने वालों को 12 साल के बजाए छह साल भारत में गुजारने पर और बिना किसी अधिक दस्तावेज के भी भारतीय नागरिकता देने के लिए विधेयक संसद में पेश किया।
यह विधेयक लोक सभा में पारित हो चुका है, लेकिन राज्य सभा में पेश नहीं हो पाया। अब इसे अगले सत्र में राज्य सभा में पेश किया जाएगा। इस विधेयक के कुछ प्रावधानों का पूर्वोत्तर के कई राज्यों में विरोध हो रहा है जिसे देखते हुए केंद्र सरकार उन राज्यों को आश्वस्त कर रही है कि विधेयक में उनके हितों का ध्यान रखा जाएगा।
गौरतलब है कि तुष्टिकरण और वोट बैंक की राजनीति करने वाली सरकारों ने मुस्लिम वोट हासिल करने के लिए अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश में उत्पीड़न झेल रहे धार्मिक अल्पसंख्यकों की कभी सुध नहीं ली। दुनिया भर में मानवाधिकारों के उल्लंघन पर आंखे मूंदने वाली कांग्रेसी सरकारों ने फिलीस्तीनियों के मानवाधिकारों के लिए जमकर ढिंढोरा पीटा।
अरबों डॉलर की सहायता राशि देने के साथ-साथ छोटे-बड़े मंचों से लेकर संयुक्त राष्ट्र संघ तक फिलीस्तीनियों का समर्थन किया। कांग्रेसी सरकारों की मुस्लिमपरस्त नीतियों के बावजूद मुस्लिम देशों ने खुलेआम पाकिस्तान का साथ दिया। दूसरी ओर हर मुसीबत में साथ देने वाले इजराइल से भारत सरकार मुंह फुलाए बैठी रही।
देखा जाए तो मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति कांग्रेस के खून में है। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान कांग्रेस पार्टी लगातार मुसलमानों के प्रति तुष्टिकरण की नीति अपनाती रही जिसका नतीजा देश विभाजन के रूप में सामने आया। इसके बावजूद आजादी के बाद भी कांग्रेसी सरकारों की मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति जारी रही।
देश विभाजन के समय मानव इतिहास के भीषणतम नरसंहार और लाखों महिलाओं के चीरहरण से उपजे क्षोभ के चलते जब हिंदुओं में कांग्रेस की लोकप्रियता घटने लगी तब नेहरू ने सेकुलर मार्च निकालकर उस आग पर पानी डालने का काम किया। जिन नेहरू ने पूर्वी व पाकिस्तान में हिंदुओं, सिंखों ईसाइयों को उनके हाल पर छोड़ दिया था, उन्हीं नेहरू ने 1950 के दशक में विभाजन के समय भारत से पाकिस्तान गए लाखों मुसलमानों को बुलाकर बसाया। हिमालय के तराई वाले इलाकों, उड़ीसा और बिहार में बड़े पैमाने पर जंगल काटकर मुसलमानों की बस्तियां बसाई गईं ताकि कांग्रेस का वोट बैंक मजबूत बना रहे।
आगे चलकर कांग्रेसी सरकारों ने अपना वोट बैंक मजबूत करने के लिए अवैध घुसपैठ को बढ़ावा दिया। 1971 के भारत पाकिस्तान युद्ध के समय पूर्वी पाकिस्तान से लाखों शरणार्थी आए जिनमें से अधिकतर यहीं बसा दिए गए। इसके बाद तो यह सिलसिला कभी थमा ही नहीं। कांग्रेसी सरकारों की देखादेखी वामपंथी और क्षेत्रीय पार्टियों ने अवैध घुसपैठ को बढ़ावा दिया। इसका नतीजा यह हुआ कि सीमावर्ती जिलें मुस्लिम बहुल हो गए हैं और इन राज्यों का जनसंख्या संतुलन बिगड़ गया है।
एक अनुमान के अनुसार देश में तीन करोड़ बांग्लादेशी घुसपैठिए देश के विभिन्न भागों में रह रहे हैं। ये बांग्लादेशी अवैध रूप से राशन कार्ड और मतदाता पहचान-पत्र बनाकर कई विधानसभा और लोक सभा क्षेत्रों में निर्णायक भूमिका निभा रहे हैं जिससे देश की एकता और अखंडता के लिए गंभीर खतरा पैदा हो गया है। केंद्र सरकार द्वारा एनआरसी के जरिये ऐसे घुसपैठियों को चिन्हित करने की दिशा में काम हो रहा है, जिससे इस समस्या के हल की उम्मीद जगी है।
(लेखक केन्द्रीय सचिवालय में अधिकारी हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)