आयुर्वेद और एलोपैथ मिलकर चलें तो भारतीय चिकित्सा विश्व के लिए पथप्रदर्शक सिद्ध हो सकती है

देखा जाए तो दोनों ही चिकित्सा पद्धतियाँ मानव जीवन के कल्याण के लिए आस्तित्व में आईं हैं। एक कल का विज्ञान है तो एक आज का। लेकिन इसके साथ साथ दोनों की ही अपनी सीमाएं भी हैं। ऐलोपैथी की बात करें तो उसकी सबसे बड़ी कमी यह है कि वो रोग का इलाज करती है रोगी का नहीं। वो लक्षणों का इलाज करती है बीमारी का नहीं। जबकि आयुर्वेद में रोग का नहीं रोगी का इलाज किया जाता है और लक्षणों के आधार पर बीमारी की जड़ का पता लगाकर उसका इलाज किया जाता है।

एलोपैथी और आयुर्वेद को लेकर पिछले कुछ दिनों से देश में जंग छिड़ी हुई है। आईएमए और बाबा रामदेव की आपसी बयानबाजी से कोविड की वर्तमान परिस्थितियों में आम आदमी पर क्या प्रभाव पड़ रहा होगा इस विषय में सोचे बिना दोनों में विवाद जारी है। हालांकि बाबा रामदेव द्वारा अपना बयान वापस ले लिया गया है लेकिन फिर भी इंडियन मेडिकल एसोसिएशन बाबा पर एक हजार करोड़ रुपए की मानहानि के दावे के साथ न्यायालय पहुंच गया है।

लेकिन ऐसे दौर में जब हमारा देश ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण विश्व ही बेहद जटिल एवं संवेदनशील परिस्थितियों से गुज़र रहा है, उस समय चिकित्सा विज्ञान की दो पद्धतियों के बीच आरोप प्रत्यारोप का यह घटनाक्रम वाकई में दुर्भाग्यपूर्ण है।

अगर गंभीरता से बात की जाए तो आयुर्वेद और एलोपैथी चिकित्सा विज्ञान की दो अलग अलग ऐसी पद्धतियाँ हैं जिनका रोग अथवा रोगी के प्रति प्रारंभिक दृष्टिकोण ही नहीं अपितु उसके इलाज और बीमारी के डायग्नोसिस की भी अलग प्रक्रिया है। देखा जाए तो रोगी को स्वस्थ्य करने के लक्षय के अतिरिक्त दोनों में कोई समानता ही नहीं है।

एलोपैथी की बात करें तो 19 वीं सदी में यह यूरोप और नार्थ अमेरिका में आस्तित्व में आई थी। यह सर्वविदित है कि आज की तारीख में एलोपैथी सबसे वैज्ञानिक चिकित्सा पद्धति है। लगातार रिसर्च और अनुसंधान तथा अत्याधुनिक तकनीक के दम पर यह चिकित्सा विज्ञान रोज प्रगति कर रहा है।

आज शरीर का कोई अंग खराब हो जाए तो सफलता पूर्वक उनका प्रत्यारोपण किया जा सकता है, स्टेम सेल थेरेपी से कैंसर जैसी कई बीमारियों का इलाज किया जा सकता है, टीबी पोलियो काली खाँसी चेचक जैसे अनेक जानलेवा रोगों से बचाव के लिए वैक्सीन का निर्माण भी आधुनिक चिकित्सा विज्ञान की ही देन हैं। इतना ही नहीं जब बात लाइफ सेविंग ड्रग्स या फिर दुर्घटना की स्थिति में अथवा अत्यधिक रक्तस्राव जैसी किसी इमरजेंसी परिस्थितियों की आती है तो आधुनिक चिकित्सा विज्ञान का कोई तोड़ नहीं होता है।

सांकेतिक चित्र (साभार : Indian Blooms)

वही आयुर्वेद की अगर बात करें तो इसका इतिहास कुछ सौ दो सौ साल पुराना नहीं बल्कि हज़ारों साल पुराना है। दरअसल आयुर्वेद जो कि भारत की प्राचीन चिकित्सा पद्धति है केवल अर्थर्ववेद का ही अंश नहीं है बल्कि भारत के सनातन इतिहास का भी अंग है। सनातन इतिहास में आयुर्वेद के द्वारा चिकित्सा का उल्लेख कभी रामायण में लक्ष्मण को मूर्छा से बाहर लाने के लिए संजीवनी बूटी के उपयोग के रूप में मिलता है तो कभी महाभारत से लेकर हमारे देश के अनेकों पौराणिक साहित्य के विवरणों में मिलता है।

इतिहास की अगर बात करें तो 300 बीसी यानी आज से 2300 साल पहले भारत मे आचार्य चरक ने आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति को उसकी पहचान दी थी यही कारण है कि उन्हें फादर ऑफ इंडियन मेडिसिन भी कहा जाता है। और चरक से भी 500 साल पहले 800 बीसी में यानी आज से 2800 साल पहले आचार्य सुश्रुत ने भारत में शल्य चिकित्सा यानी सर्जरी पर पुस्तक सुश्रुतसंहिता की रचना की थी और इन्हें भारत ही नहीं विश्व भर में फादर ऑफ सर्जरी के साथ साथ फादर ऑफ प्लास्टिक सर्जरी भी कहा जाता है।

आज भी प्लास्टिक सर्जरी पर सुश्रुत संहिता को ही विश्व के प्राचीनतम ग्रंथ के रूप में स्वीकार किया जाता है। कारण कि सुश्रुतसंहिता में जिन शल्य चिकित्साओं का वर्णन किया गया है उनमें प्लास्टिक सर्जरी, प्रसूति एवं स्त्री रोगों से जुड़ी शल्य चिकित्सा, नासिका सन्धान, मोतियाबिंद की सर्जरी, दंत चिकित्सा से लेकर जलने से होने वाले घावों की चिकित्सा सहित 125 प्रकार के शल्य क्रिया में प्रयोग होने वाले यंत्रों यानी मेडिकल इंस्टूमेंटस का विस्तृत वर्णन है।

देखा जाए तो दोनों ही चिकित्सा पद्धतियाँ मानव जीवन के कल्याण के लिए आस्तित्व में आईं हैं। एक कल का विज्ञान है तो एक आज का। लेकिन इसके साथ साथ दोनों की ही अपनी सीमाएं भी हैं। ऐलोपैथी की बात करें तो उसकी सबसे बड़ी कमी यह है कि वो रोग का इलाज करती है रोगी का नहीं। वो लक्षणों का इलाज करती है बीमारी का नहीं। जबकि आयुर्वेद में रोग का नहीं रोगी का इलाज किया जाता है और लक्षणों के आधार पर बीमारी की जड़ का पता लगाकर उसका इलाज किया जाता है।

आधुनिक चिकित्सा पद्धति में बुखार के हर रोगी के लिए एक ही प्रकार की गोली देने का प्रावधान है जबकि आयुर्वेद में रोगी की प्रकृति के आधार पर बुखार का इलाज किया जाता है। क्योंकि आयुर्वेद में वात पित्त और कफ के आधार पर रोगी की प्रकृति का पता नाड़ी विज्ञान से लगाकर रोगी की चिकित्सा की जाती है जिसमें केवल औषधियों का ही प्रयोग नहीं किया जाता बल्कि आहार विहार और आध्यात्म का भी सहारा लिया जाता है। और यही दोनों चिकित्सा पद्धतियों में सबसे बड़ा अंतर है।

इसी प्रकार आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के आधार पर अगर एक स्वस्थ व्यक्ति की परिभाषा की बात करें, तो इसके अनुसार किसी प्रकार की बीमारी का न होना ही व्यक्ति का स्वस्थ होना है। जबकि आयुर्वेद में अगर स्वास्थ्य की परिभाषा की बात करें तो उसका बहुत ही वृहद विवरण दिया गया है।

समदोषः समागनिश्च समधातुमलक्रियः।
प्रसन्नात्मेन्द्रियमनाः स्वस्थ इत्यभिधीयते।।

यानी जिस मनुष्य के तीनों दोष वात पित्त कफ, उसकी अग्नि औऱ सप्त धातु, सम अवस्था में हैं, मल मूत्र आदि क्रिया ठीक होती हैं, जिसका मन इन्द्रियाँ और आत्मा प्रसन्न हैं, वो मनुष्य स्वस्थ हैं। यानी आयुर्वेद में स्वास्थ्य मात्र शरीर में किसी बीमारी का न होना नहीं उससे कहीं बढ़कर है। स्वास्थ्य उसके शरीर के साथ साथ उसके मन और उसकी आत्मा की प्रसन्न्ता से जुड़ा विषय है।

यही कारण है कि जब कोई बीमारी हमारे शरीर में बाहर से आती है जिसे हम इंफेक्शन कहते हैं तो उसके लिए एलोपैथी बेहतर विकल्प है। बाहरी इंफेक्शन से बचना है तो वैक्सीन और अगर इंफेक्शन हो जाए तो एंटीबायोटिक दवाएँ। लेकिन जब कोई बीमारी हमारे शरीर के भीतर से उपजती है जैसे डायबेटिस, ब्लड प्रेशर, थाइरोइड या फिर सिरदर्द जो कि हमारी शारीरिक गतिविधियों में गड़बड़ी के कारण होती हैं, जिसे हम लाइफस्टाइल जनरेटेड डिसीज़ भी कहते हैं तो ऐलोपैथी निरुत्तर हो जाती है वो इन्हें नियंत्रित तो कर सकती है लेकिन इनका समूल विनाश नही।

अतः यह समझना आवश्यक है कि चिकित्सा विज्ञान चाहे जो भी हो उसका एकमात्र लक्ष्य मानव जाति का कल्याण है और चिकित्सक का कर्तव्य रोगी को रोग की पीड़ा से मुक्त करना। तो समय के साथ आगे बढ़कर दोनों पद्धतियां अपनी अपनी कमियों को स्वीकार करें और एक दूसरे की शक्तियों को अपनाकर मानव जाति के कल्याण का मार्ग प्रशस्त करें। यदि ऐसा हुआ तो एक बार फिर भारत का चिकित्सा जगत विश्व के लिए पथप्रदर्शक बन सकता है।

(लेखिका स्वतंत्र टिप्पणीकार है। लेख में प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं।)