बीजेपी ने उत्तर के हिंदी भाषी कई राज्यों में चुनाव जीतने के बाद, पूर्व के राज्यों, खासकर त्रिपुरा में भी अपनी धमक महसूस करवा दी है, जिससे ममता बनर्जी को गहरा झटका लगा है। त्रिपुरा की दूरी पश्चिम बंगाल से बहुत ज्यादा नहीं है, शायद ममता की बेचैनी का बड़ा सबब यही है, इसलिए वह तमिलनाडु भी जाती हैं, आंध्र भी जाती हैं और हर जगह मोदी के विजयरथ को रोकने की जद्दोजहद करने में लगी हैं। ममता अपने डर को पूरे देश पर थोप रही हैं, जिसके पीछे मूल वजह है, अपने पांव के नीचे से ज़मीन खिसकने का खतरा। लेकिन, ममता का ये डर उनसे जिस गठबंधन की कवायद करवा रहा है, वो भाजपा का मुकाबला करे न करे, कांग्रेस की मुश्किलें जरूर बढ़ाएगा।
पिछले कुछ समय से देश की सियासत में एक नया चलन देखने को मिल रहा है कि जब भी लोकसभा चुनाव आसन्न होते हैं, देश की सभी छोटी-बड़ी पार्टियां सामूहिक एकता दर्शाने के लिए सामूहिक भोज का आयोजन करने लगती हैं। देश की राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में भी पिछले दिनों कांग्रेस पार्टी ने ऐसे ही एक भोज का आयोजन कर रस्मी तौर पर एक फोटोग्राफ जारी कर दिया। मानो गठबंधन की खानापूर्ति हो गई। क्या मान लें कि इससे 2019 से पहले गठबंधन का मूर्त स्वरूप तैयार हो गया? लेकिन रुकिए, इस खेमेबाजी में अभी भी बड़ा झोल है। प्रादेशिक स्तर की जो पार्टियां सामूहिक भोज में शामिल हुईं, वह सभी खाना खाकर और हाथ साफ़ करके चलती बनीं।
इधर ममता बनर्जी अलग ही सुर संभाले हुए हैं। तीसरे मोर्चे के गठन में कांग्रेस के युवराज के नेतृत्व की उपेक्षा करते हुए ही बढ़ रही हैं। ममता बनर्जी महत्वाकांक्षी हैं, इसलिए वह कांग्रेस को नेतृत्व की कमान नहीं देना चाहती। वे खुद ही तीसरे मोर्चे की अगुवाई करने की इच्छा रखती हैं। इसलिए नेतृत्व के प्रश्न पर कांग्रेस से उनके समीकरण सटीक नहीं बैठेंगे।
पूर्व से निकलकर ममता ने दक्षिण की यात्रा इसलिए की कि वह राष्ट्रीय राजनीति में खुद अपनी एक मुकम्मल जगह बनाना चाहती हैं। ममता ने द्रविड़ पार्टियों से संपर्क कर संघीय ढांचे में राज्यों के लिए ज्यादा पावर हासिल करने की वकालत की। इसके पीछे कोई यह सोच नहीं थी कि संघ और राज्यों के रिश्ते कैसे बनने चाहिए, बल्कि इसमें वह अमूर्त भय था कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के बढ़ते हुए रथ को कैसे रोका जाए।
मोदी को रोकने के लिए ममता ने विपक्ष की एकजुटता का जो फ़ॉर्मूला रखा है, उस फ़ॉर्मूले में कांग्रेस बिना नेतृत्व लिए फिट बैठती नहीं दिख रही। राहुल गांधी जो अब कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं, इस नए दौर में अपनी क्या भूमिका देखते हैं ? क्या वह इस प्रस्तावित दलीय गठबंधन में नेतृत्व पाने का हठ करेंगे या चुपचाप इसका हिस्सा बन जाएंगे ? कांग्रेस की हालत तो ऐसी नहीं है कि वो किसी भी गठबंधन में अपनी कोई बड़ी शर्त रख सके। इस वक़्त बीजेपी देश के बहुत बड़े हिस्से पर राज कर रही है, कांग्रेस कुछ राज्यों तक सीमित हो गई है। ज़ाहिर है, कांग्रेस राज्यों में भी अगर इसी तरह विलुप्त होती रही तो आगे से कांग्रेस की डिनर पार्टी पर कुछ पिछलग्गू नेता ही मिलेंगे, जिनका न तो जनधार होगा न ही जनता के बीच कोई पहचान होगी।
गौर करें तो 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले भी विपक्षी एकता की इसी तरह सुगबुगाहट देखने को मिली थी, लेकिन लोकसभा के बाद पिछले चार सालों में उसका कोई नामलेवा नहीं रहा। बीजेपी ने उत्तर के हिंदी भाषी कई राज्यों में चुनाव जीतने के बाद, पूर्व के राज्यों, खासकर त्रिपुरा में भी अपनी धमक महसूस करवा दी है, जिससे ममता बनर्जी को गहरा झटका लगा है। त्रिपुरा की दूरी पश्चिम बंगाल से बहुत ज्यादा नहीं है, शायद ममता की बेचैनी का बड़ा सबब यही है, इसलिए वह तमिलनाडु भी जाती हैं, आंध्र भी जाती हैं और हर जगह मोदी के विजयरथ को रोकने की जद्दोजहद करने में लगी हैं।
दूसरे शब्दों में कहें तो ममता अपने डर को पूरे देश पर थोप रही हैं, जिसके पीछे मूल वजह है, अपने पांव के नीचे से ज़मीन खिसकने का खतरा। लेकिन, ममता का ये डर उनसे जिस गठबंधन की कवायद करवा रहा है, वो भाजपा का मुकाबला करे न करे, कांग्रेस की मुश्किलें जरूर बढ़ाएगा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)