भारत की लेफ्ट लिबरल मीडिया, वामी बुद्धिजीवियों तथा सेकुलर बिरादरी की मिली-जुली गैंग को हमेशा उन खबरों में ज्यादा दिलचस्पी होती है, जिसमें पीड़ित/पीड़िता अल्पसंख्यक समुदाय से आते हों और आरोपी बहुसंख्यक समाज से ताल्लुक रखता हो। ऐसा मामला मिलते ही वह तुरंत अपने एजेंडे पर पूरे जोर-शोर से लग जाते हैं और यह साबित करने की चेष्टा करने लगते हैं कि भारत में मुसलमानों पर जुल्म-सितम हो रहा है और उसके जिम्मेदार हिन्दू व हिन्दू संगठन हैं। कठुआ मामले के जरिये भी उन्होंने ऐसा ही करने की कोशिश की, मगर उनकी कुत्सित कोशिशों से अब धीरे-धीरे पर्दा उठ रहा है।
बहुचर्चित कठुआ कांड को लेकर जो हंगामा समूचे देश में हुआ, हम सबने देखा। अब यह मामला गौण हो गया है। इस मामले को लेकर न्याय का झंडा बुलंद करने वाले ज्यादातर लोग अब इसकी चर्चा से भी बच रहें हैं। ऐसे में, सवाल उठता है कि क्या कठुआ को लेकर एक विशेष कबीले के लोग केवल सांप्रदायिक तनाव का वातावरण बनाने चाहते थे ? क्योंकि, पीड़िता को न्याय अभी भी नहीं मिला है। इस मामले के आरोपियों की भी अलग दलील है। ऐसे में, इस मामले में दूध का दूध और पानी का पानी होना नितांत आवश्यक है।
इस मामले में मीडिया ने जो तथ्य दिखाए, उनमें बहुत विरोधाभास था। इसलिए यह समूचा प्रकरण अति जटिल हो गया और देश का ध्यान तथ्यों से अधिक भावनाओं पर रहा। लेकिन, भारतीय न्याय प्रणाली में भावनाओं से कहीं बड़ी चीज़ तथ्य हैं। कठुआ में हुए इस कथित गैंगरेप की वास्तविकता जानने के लिए एक स्वतंत्र फैक्ट फाइंडिंग टीम कठुआ गई और उसने मामले की बारीकी से जांच करने के उपरांत एक तथ्यपरक रिपोर्ट पेश की, जो चर्चा का विषय बनी हुई है। पांच सदस्यीय इस टीम में सुप्रीम कोर्ट की वरिष्ठ वकील मोनिका अरोड़ा, सेवा निवृत्त जज मीरा खडक्कर, स्वतंत्र पत्रकार सर्जना शर्मा, दिल्ली विश्वविद्यालय में सहायक प्रोफेसर सोनाली चितलकर और उद्यमी मोनिका अग्रवाल शमिल हैं।
इस टीम ने कठुआ के रसाना गाँव जाकर वहाँ के लोगों से बात करने तथा मामले से जुड़े सभी रिपोर्टों एवं चार्जशीट की गहन पड़ताल करने के बाद कई गंभीर सवाल इस मामले की अभी तक की जांच व जांच टीम पर उठाए हैं। अपनी तथ्यपरक रिपोर्ट में टीम ने कई चौकाने वाले खुलासे किए हैं।
गौरतलब है कि कठुआ के इस कथित रेप को लेकर बार–बार मंदिर को टारगेट किया जा रहा था। यह बताया जा रहा था कि मासूम बच्ची को यहीं छुपाया गया था और इसी स्थान पर रेप होता रहा। टीम ने यह पाया कि रसाना में मंदिर या देवीस्थान नहीं, बल्कि देवस्थान है, जिसमें 20*35 का एक छोटा सा कमरा है, जिसमें तीन दरवाजे और तीन खिड़कियाँ हैं। बच्ची का मृतक शरीर 17 जनवरी को आरोपी सांझी पटवारी के घर के पीछे मिला।
यहाँ ध्यान देने वाली बात यह है कि 13, 14 और 15 जनवरी को लोहड़ी, मकर-संक्रांति और भंडारा के लिए लोग आए थे। ऐसे में, क्या वहाँ लड़की को छुपाया जा सकता है ? दूसरी चीज कि आरोपी क्या इतने जघन्य अपराध के बाद मृतक शरीर को अपने घर के ही पीछे फेंक देगा ? गाँव में एक नाला होने की बात भी इस टीम ने कही है, जहां मृतक शरीर को फेंका जा सकता था। महत्वपूर्ण बात यह भी है कि चार्जशीट में भी जाने कैसे देवी स्थान बताया गया है। इस टीम ने लगातर तीन बार मामले की जांच टीमें बदले जाने को लेकर भी गंभीर सवाल उठाये हैं।
पोस्टमार्टम रिपोर्ट को लेकर भी फैक्ट फाइंडिंग टीम ने गंभीर सवाल उठाये हैं। अपनी रिपोर्ट में टीम ने इस सम्बन्ध में कई अनुत्तरित प्रश्न खड़े किये हैं, जो इस प्रकार हैं – देवस्थान पर मूत्र या मल का कोई सबूत क्यों नहीं मिला, जबकि पोस्टमार्टम रिपोर्ट में कहा गया है कि आँतों में पचाने वाली सामग्री थी ? एक हाई रेलोल्युशन वाले कैमरे से मृतक की तस्वीर किसने लिया ? चार्जशीट में फिंगरप्रिंट और पैर प्रिंट के प्रमाण क्यों नहीं जुड़े हुए हैं ? नाबालिग बच्ची के बार-बार कथित बलात्कार के बाद भी देवस्थान के फर्श पर कोई खून का दाग क्यों नहीं मिला ? इस तरह के कई प्रश्न फैक्ट फाइंडिंग टीम ने उठाए हैं, जिनका जवाब अभी किसीके पास नहीं है।
इस पूरे मामले की जांच में जांच दलों द्वारा निश्चित तौर पर असावधानी बरती गई है। इन सब के बाद इस मामले की निष्पक्ष सीबीआई जांच की मांग कई समूहों के साथ आरोपी परिवार ने भी की है। सात आरोपियों से के एक दीपक को घटना के दौरान मुज्जफरनगर के एटीएम में से पैसा निकालते हुए सीसीटीवी में देखा गया, जिसके बाद इस मामले को लेकर सवाल और भी गहरा गए हैं। इस पेंचीदा मामले का सत्य सामने आना चाहिए और वास्तविक दोषियों को इस जघन्य अपराध के लिए कड़ी सज़ा मिलनी चाहिए।
कठुआ प्रकरण जब उठा था, तब देश का हर टीवी दर्शक कठुआ की खबर देख–देखकर ऊब ही गया था। मीडिया और सब ख़बरों पर कुण्डी लगाकर केवल कठुआ पर केन्द्रित हो गयी थी। आप समझ सकते हैं कि कठुआ के एक निर्मम हत्याकांड को लेकर कैसे मीडिया ने भिन्न–भिन्न तरह की रिपोर्टों को दिखाया और आम जनमानस को दिग्भ्रमित किया। आज भी यह यक्ष-प्रश्न बना हुआ है कि कठुआ में नाबालिग लड़की के साथ वास्तव में क्या हुआ था ?
दरअसल भारत की लेफ्ट-लिबरल मीडिया, वामी बुद्धिजीवियों तथा सेकुलर बिरादरी की मिली-जुली गैंग को हमेशा उन खबरों में ज्यादा दिलचस्पी होती है, जिसमें पीड़ित/पीड़िता अल्पसंख्यक समुदाय से आते हों और आरोपी बहुसंख्यक समाज से ताल्लुक रखता हो। ऐसा मामला मिलते ही वह तुरंत अपने एजेंडे पर पूरे जोर-शोर से लग जाते हैं और यह साबित करने की चेष्टा करने लगते हैं कि भारत में मुसलमानों पर जुल्म-सितम हो रहा है और उसके जिम्मेदार हिन्दू व हिन्दू संगठन हैं। कठुआ मामले के जरिये भी उन्होंने ऐसा ही करने की कोशिश की, मगर उनकी कुत्सित कोशिशों से अब धीरे-धीरे पर्दा उठ रहा है।
आख़िर इस घटना के पीछे क्या कारण रहा और कहीं ऐसा तो नहीं कि जानबूझकर इस मामले को इतना विवादास्पद बना दिया गया ? एक मासूम बच्ची की हत्या को साम्प्रदायिक रंग देकर कहीं देश के साम्प्रदायिक सद्भाव को चोट पहुँचाने की कोशिश तो किन्ही देशविरोधी तत्वों द्वारा नहीं की गई ? ऐसे तमाम सवाल उठ रहे हैं, जिनके जवाब मिलना जरूरी है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)