खुद यूपीए सरकार के समय वर्ष 2008 में रक्षा क्षेत्र के सौदों से जुड़ी सूचनाएं गोपनीय रखने का समझौता किया गया था। मगर आज राहुल भ्रम फैलाने के लिए कीमतों का खुलासा करने और कभी संयुक्त संसदीय कमेटी (जेपीसी) गठित करने की मांग कर देश की सुरक्षा से खिलवाड़ करने की कोशिश कर रहे हैं। जेपीसी गठित करने पर रक्षा तथ्य गोपनीय नहीं रह पाएंगे और हमारी रक्षा तैयारियां सार्वजनिक हो जाएंगी।
लोकसभा चुनाव नजदीक आते देख कांग्रेस प्रमुख राहुल गांधी ने आनन-फानन में राफेल के रूप में ऐसी आग सुलगाने का दुष्प्रयास किया है, जिसमें उनके व कांग्रेस के हाथ झुलसने के अलावा कुछ और परिणाम निकलता नहीं दिख रहा है। राफेल को लेकर राहुल के आरोपों में कितनी गंभीरता है, इसको समझने के लिए भारी-भरकम तथ्यों की आवश्यकता नहीं है।
राहुल अब तक विभिन्न स्थानों पर अपनी सभाओं में राफेल विमानों की अलग-अलग कीमतें बता चुके हैं। इससे उनकी स्थिति एक बार फिर हास्यास्पद बनी है और उल्टा कुछ सवाल कांग्रेस पर ही उठने लगे हैं। सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि कांग्रेस के इतने वर्षों तक देश में शासन करने के बावजूद हमारी सेनाएं अत्याधुनिक साजो-सामान से सुसज्जित क्यों नहीं हो सकीं? डॉ मनमोहन सिंह के नेतृत्व में यूपीए के 10 वर्षों के शासन में राफेल सौदे को अंतिम रूप क्यों नहीं दिया गया?
सवाल बहुत हैं। मगर पहले राफेल विमान सौदे की पृष्ठभूमि पर नजर डालते हैं। लंबे समय से अत्याधुनिक लड़ाकू विमानों की कमी से जूझ रही भारतीय वायुसेना ने वर्ष 2001 में तत्कालीन अटल बिहारी वाजपेयी सरकार को अपनी जरूरतें बताईं। वाजपेयी सरकार ने वायु सेना के प्रस्ताव को स्वीकृति दी और इस दिशा में कार्रवाई शुरू की। इस बीच केंद्र में यूपीए सरकार का गठन हुआ। यूपीए सरकार ने गठन के 3 वर्ष बाद अगस्त, 2007 में 126 मीडियम मल्टीरोल कॉम्बैट एयरक्राफ्ट (एमएमआरसीए) की खरीद को स्वीकृति दी। सरकार ने रिक्वेस्ट ऑफ प्रपोजल (आरएपी) तैयार किया। 6 कंपनियों ने निविदा में हिस्सा लिया। वायुसेना ने विमान चयन के लिए कई चरणों में परीक्षण किया।
तमाम कसरतों के बाद वायुसेना ने यूरोफाइटर टाईकून और राफेल को अपनी जरूरतों के अनुकूल पाया। निविदा जारी होने के 5 वर्ष बाद वर्ष 2012 में यूपीए सरकार ने राफेल की निर्माता कंपनी डसॉल्ट एविएशन को एल-1 बीडर (लोवेस्ट) घोषित किया और उसके साथ सौदे को लेकर बातचीत शुरू की। मगर यूपीए सरकार वर्ष 2014 तक अपने कार्यकाल के दौरान सौदे को अंतिम रूप नहीं दे सकी। यानी कांग्रेस ने रक्षा सौदे में एक दशक की देरी कर देश की सुरक्षा से जबरदस्त खिलवाड़ किया है।
वर्ष 2014 में केंद्र में मोदी सरकार के गठन के बाद उसने इस प्रक्रिया को तेजी से आगे बढ़ाया। वर्ष 2015 में प्रधानमंत्री मोदी ने अपनी फ्रांस यात्रा के दौरान डसाल्ट कंपनी के बजाय सीधे जी ‘2जी’ (गवर्नमेंट टू गवर्नमेंट) डील की, ताकि पारदर्शिता बनी रहे। मोदी सरकार ने आकस्मिक जरूरतों के हिसाब से पूरी तरह से तैयार 36 विमानों की खरीद का सौदा किया। यूपीए सरकार के प्रस्ताव में तैयार विमानों के बजाय उनकी असेंबलिंग भारत में कराने का प्रावधान था। यहाँ यह तथ्य गौरतलब है कि यूपीए के कार्यकाल में तकनीकी हस्तांतरण (टीओटी) पर बात नहीं हुई थी। सिर्फ असेंबलिंग भारत में करने की बात हुई थी।
आजकल राहुल गांधी सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनी हिंदुस्तान एयरनोटिकल लिमिटेड (एचएएल) के बहुत बड़े पैरोकार बने हुए हैं। राहुल थोड़ा सा भी तथ्यों को नहीं देखते। उनकी सरकार के समय में एचएएल की कार्यक्षमता पर सवाल उठाए जा चुके हैं। जब विमानों की असेंबलिंग का विषय चला तो खुद डसॉल्ट ने भी एचएएल का निरीक्षण किया जिसमें वो एचएएल की कार्यशैली व गुणवत्ता से संतुष्ट नहीं हुई।
फिर यूपीए सरकार ने डसॉल्ट के सामने एचएएल के मुकाबले ‘ऑफसेट इंडिया सॉल्यूशन’ नाम की कंपनी के साथ काम करने की शर्त रखी। वर्ष 2008 में एक लाख रुपए की पूंजी के साथ यह कंपनी संजय भंडारी ने बनाई थी। बाद में यह कई हजार करोड़ों की कंपनी बनी। भंडारी रक्षा साजो-सामान की आपूर्ति करने वाला एक बिचोलिया है। उसे राहुल गांधी के बहनोई राबर्ट वाड्रा के साथ कई बार देखा गया है। भंडारी पर फेमा कानून का मामला दर्ज है और वह देश से फरार है।
वर्ष 2016 में भंडारी के आवास व कार्यालय में छापे के दौरान रक्षा मंत्रालय व राफेल सौदे को लेकर कई गोपनीय दस्तावेज बरामद हुए। भंडारी के मोबाइल फोन से वाड्रा की कंपनी ‘ब्लू ब्रिज ट्रेडिंग प्राइवेट लिमिटेड’ के रजिस्टर्ड नंबर पर कई बात कॉल की गई। यह नंबर वाड्रा इस्तेमाल करते थे।
भंडारी की कम्पनी के साथ डसॉल्ट की बात नहीं बनने पर यूपीए सरकार ने सौदा ही रोक दिया। आज राफेल को लेकर कांग्रेसी इतना हो-हल्ला मचा रहे हैं। इसके पीछे एक प्रमुख कारण मोदी सरकार द्वारा भंडारी के विरूद्ध की जा रही कार्रवाई भी है। क्योंकि जैसी आशंका जताई जा रही है कि यदि भंडारी गिरफ्त में आया तो वाड्रा का भी लपेटे में आना तय है।
अब बात राहुल के कुछ अन्य आरोपों की। राहुल मंदबुद्धि व्यक्ति की तरह आरोप लगाते हैं। राहुल ने एक आरोप लगाया कि उनकी सरकार के समय राफेल 600 करोड़ में मिल रहा था। मोदी सरकार 1500 करोड़ में खरीद रही है। तो सवाल यह है कि राहुल जी आप की सरकार इतनी निकम्मी थी कि वो 10 वर्षों के शासनकाल में एक विमान खरीदना तो दूर की बात सौदे को अंतिम रूप तक नहीं दे सकी?
राफेल की कीमतों को लेकर देश के प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस अध्यक्ष के आरोप गली-मोहल्ले के छूटभैया नेताओं के जैसे हैं। यूपीए सरकार के समय में राफेल का मूल्य बेसिक विमानों के हिसाब से तय हुआ था। जबकि मोदी सरकार ने लोडेड अर्थात पूरी तरह से अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित तैयार विमानों का सौदा किया है।
लड़ाकू विमानों की कीमत वैमानिकी, अस्त्र-शस्त्र, रडार प्रणाली आदि की क्षमता के आधार पर तय होते हैं। इसे वायुसेना अपनी जरूरत के हिसाब से तय करती है और ये सारे पहलू गोपनीय होते हैं। इन्हें सार्वजनिक करने से सुरक्षा पर असर पड़ सकता है। इसलिए इन्हें सार्वजनिक नहीं किए जाने का प्रावधान (नॉन डिस्क्लोजर क्लॉज) में शामिल किया जाता है।
खुद यूपीए सरकार के समय वर्ष 2008 में रक्षा क्षेत्र के सौदों से जुड़ी सूचनाएं गोपनीय रखने का समझौता किया गया था। मगर आज राहुल भ्रम फैलाने के लिए कीमतों का खुलासा करने और कभी संयुक्त संसदीय कमेटी (जेपीसी) गठित करने की मांग कर देश की सुरक्षा से खिलवाड़ करने की कोशिश कर रहे हैं। जेपीसी गठित करने पर रक्षा तथ्य गोपनीय नहीं रह पाएंगे और हमारी रक्षा तैयारियां सार्वजनिक हो जाएंगी।
विमानों की कीमतों को लेकर राहुल गांधी के आरोप अनुमान पर आधारित हैं। लेकिन क्या कोई इस बात से इंकार कर सकता है कि 10 वर्षों के अंतराल में किसी वस्तु की कीमतों में कोई अंतर नहीं आएगा? तो कांग्रेस के राजकुमार इस बात को क्यों नहीं समझ पा रहे हैं? दूसरी बात, राहुल जी अगर यह सौदा समय पर हो गया होता तो देश को बढ़ी हुई कीमतें क्यों चुकानी पड़ती? इसका जिम्मेदार कौन है? इसके साथ ही यह भी समझना जरूरी है कि करेंसी में उतार-चढ़ाव किसी भी वस्तु की कीमतों में अंतर लाते हैं। भारतीय मुद्रा के मुकाबले डॉलर की मजबूती अंतरराष्ट्रीय सौदों में स्वाभाविक रूप कीमतों में हेर-फेर करेगी।
बावजूद इसके मोदी सरकार ने फ्रांस सरकार के साथ सीधे बातचीत कर यूपीए सरकार के मुकाबले नौ प्रतिशत कम मूल्य पर 36 राफेल खरीदे हैं। देश की जरुरत के हिसाब से उसमें तकनीकी जोड़ी गई है। अगर यूपीए सरकार द्वारा तय कीमत पर उन तकनीकियों को जोड़ा जाता तो वह बीस फीसद तक महंगे होते।
यहां राहुल गांधी के सबसे बड़े झूठ की चर्चा करना जरूरी है। यह झूठ ‘खोदा पहाड़ निकली चुहिया’ जैसा है। राहुल का आरोप है कि राफेल सौदे में ‘रिलायंस डिफेंस लिमिटेड’ को काम दिया गया है, जिसको रक्षा क्षेत्र का कोई अनुभव नहीं है और यह कंपनी कर्ज में डूबी हुई है। राहुल के आरोपों की हवा निकालने के लिए यह तथ्य पर्याप्त है कि विमान भारत में बनने ही नहीं हैं। फ्रांस सरकार पूरी तरह से तैयार फाइटर विमान भारत को देगी। लिहाजा, इसमें रिलायंस या किसी अन्य कंपनी के अनुभव का कोई मतलब ही नहीं है।
यहां यह समझना जरूरी है कि रिलायंस को डसॉल्ट ने ऑफसेट कम्पनी के तौर पर चुना है। इसमें भारत या फ्रांस सरकार की कोई भूमिका नहीं है। रिलायंस को ऑफसेट क्लॉज के तहत चुना गया है। ऑफसेट क्लॉज का अर्थ यह है कि कोई भी सौदा हासिल करने वाली विदेशी कंपनी कुल सौदे की रकम का एक निश्चित हिस्सा भारत में निवेश करेगी। इसके लिए विदेशी कंपनी भारतीय कंपनियों को ऑफसेट पार्टनर बनाती है। विदेशी कंपनी ऑफसेट कंपनियों के माध्यम से देश में निवेश करती है। यह निवेश केवल रक्षा क्षेत्र में होगा, ऐसा नहीं है। निवेश दाल-चावल से लेकर किसी भी क्षेत्र में हो सकता है।
ऑफसेट कंपनी का प्रावधान यूपीए सरकार के समय में ही शुरू हुआ था। आश्चर्यजनक तथ्य कि राफेल सौदे को लेकर बात का बतंगड़ बना रहे राहुल गांधी केवल रिलायंस का नाम ले रहे हैं। जबकि राफेल सौदे में 71 भारतीय कंपनियों/संस्थाओं को ऑफसेट पार्टनर बनाया गया है।
इनमें रक्षा मंत्रालय के अधीन कार्य करने वाले रक्षा अनुसंधान व विकास संस्थान (डीआरडीओ) से लेकर एलएंडटी, महिंद्रा, कल्याणी ग्रुप, गोदरेज आदि प्रमुख हैं। यूपीए सरकार के समय में डसॉल्ट कंपनी को कुल सौदे का 30% भारत में निवेश करना था। मगर मोदी सरकार ने निवेश की सीमा को 50% तक बढ़ाया है। जहाँ तक रिलायंस के चयन की बात है, तो डसॉल्ट ने स्पष्ट कहा है कि उसने रिलायंस को स्वतंत्रतापूर्वक चुना था।
अक्सर अपनी हरकतों से लोगों के मनोरंजन का पात्र बनने वाले राहुल आजकल अपनी हर सभा में आधे समय तक राफेल पर ऊल-जुलूल बाते करके प्रधानमंत्री मोदी से जवाब देने को कहते हैं। राहुल का आरोप होता है कि मोदी जवाब नहीं दे रहे हैं। यह राहुल के झूठ की पराकाष्ठा है।
राफेल मुद्दे पर प्रधानमंत्री मोदी को संसद में पूरे तथ्य रखते हुए टीवी के माध्यम से दुनिया ने देखा है। किसी भी प्रकार के आरोपों का जवाब और तथ्यों को रखने के लिए संसद से बड़ी कोई जगह नहीं है। राहुल क्या चाहते हैं कि देश का प्रधानमंत्री उनके विवेकहीन व सड़क छाप आरोपों पर रोजाना सफाई देते फिरें? ताकि राहुल के फिजूल के आरोपों को अनावश्यक महत्व मिले।
बहरहाल, राहुल और कांग्रेस को समझना चाहिए झूठे व तथ्यविहीन आरोपों के बल पर अधिक समय तक राजनीति नहीं की जा सकती है। मोदी सरकार ने पारदर्शी तरीके से राफेल सौदा कर देश की तात्कालिक रक्षा जरूरतों को पूरा करने की दिशा में बड़ा कदम उठाया है और जैसा कि देश के वायुसेना प्रमुख ने कहा कि राफेल विमान भारत के लिए ‘गेम चेंजर’ और वायुसेना के लिए ‘बूस्टर डोज’ साबित होंगे।