समूहीकरण के माध्यम से अपनी मांग के लिए दबाव बनाना लोकतंत्र का एक प्रचलित उपकरण है लेकिन यह एकतरफा नहीं होता। कोई भी दबाव समूह इतना शक्तिशाली नहीं होना चाहिए कि वो संसदीय संप्रभुता को ही चुनौती देने लगे। वर्तमान आंदोलन अब इसी दिशा में बढ़ रहा है।
लोकतंत्र के लिए जितना आवश्यक असहमति को प्रदर्शित करना है उतना ही आवश्यक यह भी है कि वे बुनियादी स्तंभ अक्षुण्ण रहें जिनपर लोकतंत्र टिका होता है। दरअसल, अगर किसी व्यवस्था में असहमति जताने का तरीका नहीं है तो वह लोकतंत्र नहीं बल्कि तानाशाह जैसी कोई व्यवस्था ही हो सकती है या फिर किसी लोकतांत्रिक व्यवस्था में यह दोष आ गया है तो फिर उसका लोकतांत्रिक बने रहना संदिग्ध है।
इसी प्रकार अगर असहमति प्रदर्शन का विस्तार इतना हो जाए कि वो अराजक हो जाए तो इस दशा में भी लोकतंत्र नहीं चल सकता। इन दोनों के बीच संतुलन स्थापित करना अनिवार्य है। अब इस परिप्रेक्ष्य में वर्तमान किसान आंदोलन को देखें तो एक दृष्टि मिल सकती है।
हमारे देश की संवैधानिक व्यवस्था यही है कि संवैधानिक दायरों के अधीन रहते हुए विधायन का कार्य संसद करेगी और इसका अनुपालन बाध्यकारी होता है। अर्थात् ऐसा नहीं हो सकता है कि संसद के कानून को कोई यह कहकर मानने से इंकार कर दे कि यह हमारे अनुकूल नहीं है।
एक टिकाऊ व्यवस्था के लिए ऐसा करना जरूरी ही होता है क्योंकि ऐसा शायद ही कानून हो जिनका सबपर समान प्रभाव हो, इसलिए स्वाभाविक रूप से इसके प्रति प्रतिक्रिया भी उसी अनुरूप होगी। उदाहरण के लिए अगर अपराधियों के चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध का कानून बने तो जाहिर सी बात है कि अपराधियों को बुरा लगेगा और यह भी संभव है कि वो इसका विरोध भी करें। तो क्या इस आधार पर कानून खारिज कर देना चाहिए? कोई भी विवेकवान व्यक्ति कहेगा नहीं।
अब एक दूसरी स्थिति की भी कल्पना करते हैं कि अगर संसद संवैधानिक मूल्यों की अवहेलना करते हुए कानून बना दे तो? ऐसी कल्पना करना मुश्किल नहीं है। इसके लिए दो निकास उपलब्ध हैं। एक तो यह कि सर्वोच्च न्यायालय इस बात की जॉंच करे कि कोई कानून संवैधानिक मूल्यों के अनुरूप है या नहीं, और दूसरा यह कि जनता को यह अधिकार है कि वो असहमति प्रकट करे।
अब इस संदर्भ में वर्तमान किसान आंदोलन को देखते हैं। पहले कुछ प्रश्नों का हल तलाशते हैं। क्या संसद को इस विषय पर कानून बनाने का अधिकार था? तो इसका जबाव है हॉं। दूसरा सवाल है कि क्या जनता को इसके विरुद्ध असहमति जताने का हक है और क्या वो इस अधिकार का उपयोग कर पा रहे हैं? इसका जवाब भी हॉं ही है। और तीसरा यह कि क्या सर्वोच्च न्यायालय को इस कानून की संवैधानिकता जॉंचने का अख्तियार है और वो ऐसा कर पा रही है? इसका उत्तर भी हॉं में है। अब असली सवाल है कि फिर दिक्कत कहॉं है?
सबसे पहली दिक्कत यह है कि असहमति प्रदर्शन धीरे-धीरे अराजक होता जा रहा है जिसका चरम गणतंत्र दिवस की हिंसा के रूप में प्रकट हुआ। इससे भी बड़ी समस्याजनक बात यह है कि जब सरकार लगातार वार्ता कर रही है और उचित संशोधनों को मानने के लिए राजी है तब आंदोलन के इस उग्र आचरण को किस रूप में देखा जाना चाहिए?
समूहीकरण के माध्यम से अपनी मांग के लिए दबाव बनाना लोकतंत्र का एक प्रचलित उपकरण है लेकिन यह एकतरफा नहीं होता। कोई भी दबाव समूह इतना शक्तिशाली नहीं होना चाहिए कि वो संसदीय संप्रभुता को ही चुनौती देने लगे। वर्तमान आंदोलन अब इसी दिशा में बढ़ रहा है।
दूसरी दिक्कत यह है कि एक वर्ग अब इन कानूनों के बहाने सरकार को हटाने की मंशा भी दिखाने लगा है और इसके लिए राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्तर से दबाव निर्मित किए जा रहे हैं। दरअसल, इतने दिनों तक सत्ता में रहने वाली कांग्रेस अभी तक इस बात को नहीं पचा सकी है कि उसकी सरकार अब नहीं रही। और यही बात वो अभिजन भी नहीं स्वीकार कर पा रहे जो कांग्रेस सरकार की कृपा पर फलते फूलते रहे हैं।
इसलिए वो सरकार के विरुद्ध आए हर असहमति को इस सीमा तक विस्तृत कर देना चाहते हैं कि सरकार की छवि एक तानाशाह जैसी लगे। ऐसा करके वो एक बड़े जनसमूह को डराना चाहते हैं। इसमें मीडिया और कथित बुद्धिजीवियों का एक वर्ग शामिल है।
दरअसल, ये चाहते ही नहीं कि किसी गतिरोध का समाधान हो क्योंकि इनका हित समाधान में नहीं बल्कि गतिरोध में है। यही वजह है कि ये लगातार किसानों को उकसाने में लगे हैं। इसलिए अब किसान आंदोलन किसानों से निकल कर ऐसे ही संदिग्ध हाथों में पहुँच गया है। ऐसे में सरकार जिस धैर्य से काम ले रही है वो ठीक ही है। शांति और धैर्य से ही कोई रास्ता निकलेगा और सरकार इसके लिए प्रयत्नशील भी लग रही है।
(लेखक इतिहास के अध्येता हैं। स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं।)