अफ़ग़ानिस्तान से भारत की तुलना नहीं हो सकती, लेकिन एक बात देखने और समझने वाली है कि भारत में रहकर जो लोग अपना एजेंडा चलाते हैं और कहते हैं कि यहाँ अल्पसंख्यक सुरक्षित नहीं हैं, उन्होंने क्या कभी अफ़ग़ानिस्तान या पाकिस्तान में मारे गए हिन्दुओं या सिखों के लिए आवाज़ उठाई है ? भारत की सेक्युलर मीडिया तथा उस समूची सेक्युलर बिरादरी जो भारत में रहकर असहिष्णुता-असहिष्णुता चिल्लाते रहती है, को अपनी आँखें इन इस्लामिक मुल्कों की तरफ भी घुमानी चाहिए जहां सिख और हिन्दू दिनदहाड़े मारे जा रहे हैं।
अफ़ग़ानिस्तान में पिछले दिनों जिहादियों ने 15 सिखों और तीन हिन्दुओं को आतंकी हमले में मार दिया। ये सभी लोग अल्पसंख्यकों पर बढ़ रहे आतंकी हमलों से चिंतित थे और अफगानी राष्ट्रपति अशरफ गनी से जलालाबाद में मिलने जा रहे थे, वहीं घात लगाकर आतंकियों ने इनपर कायराना हमला किया। ऐसा पहली बार नहीं हुआ है, अफगानिस्तान सहित तमाम इस्लामिक मुल्कों में हर पखवाड़े इस तरह की घटनाओं की पुनरावृति होती है, अल्पसंख्यकों को निशाना बनाया जाता है।
सवाल उठता है कि आखिर पिछले कुछ सालों में अफ़ग़ानिस्तान में सिखों और हिन्दुओं का जीना क्यों मुहाल हो गया ? आखिर अल्पसंख्यकों को क्यों निशाना बनाया जा रहा है ? कैसी सोच है इस तरह के कुकृत्यों के पीछे ? इसकी असली वजह समझने के लिए हमें अफ़ग़ानिस्तान के इतिहास पर एक नज़र डालनी पड़ेगी।
असल में अफगानिस्तान में रहने वाले ज़्यादातर सिख वहां के स्थानीय बाशिंदे ही हैं, जो पिछले 500 सालों से वहां के व्यापार और कारोबार में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते रहे हैं। सिखों के पहले गुरु, गुरुनानकदेव जी, ने अपने जीवन काल में नार्थ वेस्ट फ्रंटियर प्रोविंस और उससे मिलते हुए अफ़ग़ानिस्तान के इलाके में सिख धर्मं का प्रचार-प्रसार किया था। पिछले कुछ सालों तक सिख काबुल, जलालाबाद, गज़नी सहित कंधार के इलाकों में रहते थे। प्रमाण है कि 18वीं सदी में भी बहुत से खत्री समुदाय के लोग व्यापार के लिए पंजाब से अफ़ग़ानिस्तान चले गए और वहीं बस गए।
भारत और पाकिस्तान के बटवारे के दौरान भी बहुत से सिखों ने पंजाब सूबे से अफ़ग़ानिस्तान की तरफ रुख किया और वहीं अपना घर बसा लिया। अफ़ग़ानिस्तान के आखिरी शासक ज़हीर शाह के शासनकाल, जो 1933 से लेकर 1973 तक चला, में वहां सिखों और हिन्दू व्यापारियों ने खूब तरक्की की। वे सुरक्षित रहे। लेकिन 1979 में अफ़ग़ानिस्तान पर सोवियत आक्रमण के बाद हजारों सिख और हिन्दू भारत आने को मजबूर हुए, वहीं बहुतों ने नार्थ अमेरिका और यूरोप का रास्ता किया।
तालिबानियों ने हिन्दुओं और सिखों को मजबूर किया कि वह अपने हाथों पर पीले रंग का पट्टा बांधें, घरों पर पीले झंडे लगायें। इससे दोनों समुदाय जेहादियों के निशाने पर आ गए। यह ऐसे ही झंडे थे, जैसे यहूदियों को नाज़ी शासनकाल में अपने घरों पर लगाने होते थे।
अफ़ग़ानिस्तान के स्थानीय टीवी चैनल ‘टोलो न्यूज़’ के मुताबिक 1980 के दशक तक वहां सिखों और हिन्दुओ की तादाद 220000 तक थी, जो 1990 में मुजाहिद्दीन के आते-आते घटकर महज 15,000 रह गयी। अब जो खबर मिल रही है, उसकी मानें तो फिलहाल अफ़ग़ानिस्तान में सिखों और हिन्दुओं की संख्या महज 1300 के आस पास ही बची है।
इसकी बहुत बड़ी वजह यह है कि अल्पसंख्यकों को चुन चुनकर धार्मिक आधार पर निशाना बनाया जा रहा है। उन्हें अपनों को दाह संस्कार के लिए श्मशान घाट पर ले जाने की भी आज़ादी नहीं है, उन्हें स्थानीय समुदायों द्वारा बार बार निशाना बनाया जाता है। अब जो कुछ हजार सिख और हिन्दू वहां बचे हुए हैं, उनकी सुरक्षा भारत समेत अन्तराष्ट्रीय बिरादरी को जल्द से जल्द मुकम्मल करनी होगी। अन्यथा अफ़ग़ानिस्तान में बस रहे सिखों और हिन्दुओं का वजूद हमेशा हमेशा के लिए ख़त्म हो जाएगा।
अफ़ग़ानिस्तान से भारत की तुलना नहीं हो सकती, लेकिन एक बात देखने और समझने वाली है कि भारत में रहकर जो लोग अपना एजेंडा चलाते हैं और कहते हैं कि यहाँ अल्पसंख्यक सुरक्षित नहीं हैं, उन्होंने क्या कभी अफ़ग़ानिस्तान या पाकिस्तान में मारे गए हिन्दुओं या सिखों के लिए आवाज़ उठाई है ? भारत की सेक्युलर मीडिया तथा उस समूची सेक्युलर बिरादरी जो भारत में रहकर असहिष्णुता-असहिष्णुता चिल्लाते रहती है, को अपनी आँखें इन इस्लामिक मुल्कों की तरफ भी घुमानी चाहिए जहां सिख और हिन्दू दिनदहाड़े मारे जा रहे हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)