असल बात तो यह है कि सोनिया अंतरिम अध्यक्ष रहें न रहें, राहुल गांधी के पास कोई पद रहे ना रहे, प्रियंका गांधी महासचिव रहें न रहें या जिस प्रकार मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री रहे, उसी प्रकार गांधी परिवार के बाहर के व्यक्ति को राष्ट्रीय अध्यक्ष बना दिया जाए, इन बातों से कांग्रेस की आंतरिक संरचना में कोई फर्क नहीं पड़ता। कोई कुछ भी बन जाए, वहां हुकुम गांधी परिवार का ही चलना है।
कांग्रेस में पिछले दिनों तेईस पार्टी नेताओं पत्र लिखकर राष्ट्रीय अध्यक्ष के चुनाव की मांग की। किसी राजनीतिक दल के लिए यह कोई सामान्य बात नहीं होनी चाहिए। लेकिन कांग्रेस के स्वरूप में ऐसा पत्र निरर्थक ही सिद्ध होना था और हुआ भी।
पत्र लिखने वालों में भी वही नाम हैं, जो अब तक कांग्रेस को इस स्थिति में पहुंचाने में सहायक रहे हैं। यूपीए सरकार की सत्ता और फिर विपक्ष की भूमिका में भी इनका यही रूप दिखाई देता रहा है। ऐसे में इस पत्र-प्रकरण से बदलाव की संभावना तो नहीं, मगर कांग्रेस की आंतरिक निराशा अवश्य उजागर हुई है।
पत्र के बाद पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक हुई, जिसमें तथाकथित चिंतन के बाद सोनिया गांधी के अंतरिम अध्यक्ष बने रहने पर सहमति बन गयी। पत्र लिखकर प्रश्न उठाने वाले नेताओं को कांग्रेस का अनुशासन एवं गरिमा बनाए रखने के लिए नसीहत के साथ चेतावनी भी दी गई कि किसी को भी पार्टी एवं इसके नेतृत्व को कमजोर करने की अनुमति नहीं दी जाएगी।
तेईस नेताओं में शामिल कई अब कह रहे कि उन्हें विरोधी नहीं समझा जाए। उन्होंने कभी भी पार्टी नेतृत्व को चुनौती नहीं दी है। पत्र लिखने का उद्देश्य कभी भी सोनिया गांधी या राहुल गांधी के नेतृत्व पर अविश्वास जताना नहीं था। दरअसल पार्टी में रहना है, तो ये कहना मजबूरी है।
वैसे असल बात यह है कि सोनिया अंतरिम अध्यक्ष रहें या न रहें, राहुल गांधी के पास कोई पद ना रहे, प्रियंका गांधी महासचिव रहें न रहें या जिस प्रकार मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री रहे, उसी प्रकार गांधी परिवार के बाहर के व्यक्ति को राष्ट्रीय अध्यक्ष बना दिया जाए, इन बातों से कांग्रेस की आंतरिक संरचना में कोई फर्क नहीं पड़ता। कोई कुछ भी बन जाए, वहां हुकुम गांधी परिवार का ही चलना है।
राहुल गांधी अध्यक्ष पद छोड़ चुके हैं। इसके बावजूद वह जो बयान देते हैं, वही पार्टी लाईन बन जाती है। सभी नेता प्रवक्ता उसी स्वर में बोलने लगते हैं। ऐसे में कोई भी अध्यक्ष हो, क्या अंतर पड़ेगा।
चीन से विवाद का प्रकरण अभी ताजा है। राहुल गांधी ने इस मामले में भी भारत सरकार पर हमला बोलना शुरू कर दिया था, फिर सबने देखा कि कांग्रेस उसी रास्ते पर चलने लगी। इनमें से कोई भी चीन को गुनाहगार नहीं बता रहा था। सर्वदलीय बैठक में सोनिया गांधी का भी यही रुख था।
किसी ने यह विचार नहीं किया कि जब शत्रु देश आक्रमण की धमकी दे रहा है, तब भारत की सभी पार्टियों को अपनी सरकार का समर्थन करना चाहिए। वह चाहें जिसकी सरकार हो, संकट के बाद अपनी सरकार से हिसाब किताब पूरा किया जा सकता है। लेकिन राहुल ने धैर्य नही दिखाया, तो कांग्रेस भी अधीर हो गई।
यही नहीं, अनुच्छेद-370 की समाप्ति, नागरिकता संशोधन विधेयक की समाप्ति आदि भी राष्ट्रीय हित से जुड़े विषय थे। इस पर भी कांग्रेस ने जनभावनाओं को समझने का प्रयास नहीं किया।
वहीं नागरिकता क़ानून के विरोध में जब कुछ महिलाएं शाहीन बाग, घण्टाघर में धरने पर बैठीं, तो राहुल व प्रियंका उनको समर्थन देने दौड़ गए। पूरी कांग्रेस इसी रास्ते पर चल पड़ी। ऐसे में इसका क्या महत्व रह जाता है कि राहुल गांधी के पास कोई पद नहीं है और प्रियंका मात्र महासचिव हैं। वे जिधर चलते हैं, पार्टी भी उधर ही मुड़ जाती है।
लोक सभा चुनाव से पहले राहुल ने ही बिना किसी प्रमाण के राफेल को मुद्दा बनाया था। वह अपनी सभा में अमर्यादित नारे लगवाते थे। तब वह अध्यक्ष थे। लेकिन कांग्रेस को क्या मिला? तब यह उम्मीद की गई कि प्रियंका गांधी को सक्रिय किया जाए।
कांग्रेस में प्रियंका लाओ देश बचाओ के नारे भी लगते थे। प्रियंका ने भी पिछले लोकसभा चुनाव में पूरी सक्रियता दिखाई। लेकिन कांग्रेस की स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया। इसका कारण था कि प्रियंका बदलाव की उम्मीद नहीं दिखा सकीं। उनके बयान भी राहुल गांधी से ज्यादा अलग नहीं थे।
इस पूरे विषय को वर्तमान पत्र-विवाद से जोड़ कर देखा जा सकता है। वस्तुतः यह कांग्रेस के वर्तमान नेतृत्व के प्रति पार्टी नेताओं की निराशा की उपज है। इसी कारण पूर्णकालिक अध्यक्ष की बात उठाई गई। लेकिन कांग्रेस ने अपने नेताओं की बात सुनने-समझने और बदलाव का साहस दिखाने की बजाय चेतावनी देकर एक तरह से उन्हें उनकी जगह दिखा दी है।
कांग्रेस में इस समय तीन विचार हैं। सोनिया गांधी अपने पुत्र राहुल की ही पुनः ताजपोशी चाहती हैं। दूसरा खेमा प्रियंका को पूरी कमान देने का समर्थन कर रहा है। वहीं तीसरे वर्ग में वह लोग हैं जो गांधी परिवार के बाहर के व्यक्ति को अध्यक्ष बनाना चाहते हैं। लेकिन नए अध्यक्ष का फैसला भी शायद सोनिया गांधी की ही मर्जी से होगा। ऐसे में नाम चाहे जो हो, यदि वह गांधी परिवार से बाहर का हुआ तो मनमोहन सिंह जैसा होगा।
कुल मिलाकर आज कांग्रेस की स्थिति ये है कि पार्टी के अंदर नेतृत्व के प्रति असंतोष और निराशा का भाव बढ़ रहा है, लेकिन इस परिवारवाद की पट्टी आँखों पर बांधे पार्टी इस बात की अनदेखी करने में लगी है। यही कारण है कि सामान्य जन लगातार इस पार्टी से दूर होता जा रहा और यह चुनाव दर चुनाव अपने जनाधार को गंवा रही है। कांग्रेस आज जिस रास्ते पर तेजी से बढ़ रही है, वो पार्टी के राजनीतिक पतन के अलावा और कहीं जाता नहीं दिखता।
(लेखक हिन्दू पीजी कॉलेज में एसोसिएट प्रोफेसर हैं। प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं।)