अगर विचारधारा की बात करें तो कांग्रेस-एनसीपी और शिवसेना अलग अलग ध्रुव पर नजर आते हैं। दिल मिले न मिले लेकिन स्वार्थ के लिए तीनों साथ खड़े हैं। कह सकते हैं कि इस प्रकरण ने इन दलों, खासकर कांग्रेस और शिवसेना के असली चेहरे को सामने ला दिया है। अब इस मामले में यदि सबसे बड़ा कोई जज है तो वो जनता ही है। सच्चा कौन है, झूठा कौन है, इसका हिसाब भी देर-सबेर वही करेगी।
महाराष्ट्र के घटनाक्रम को समझने से पहले आपको चुनाव के पहले के घटनाक्रम को देखना होगा। विधानसभा चुनाव से पहले हुए गठबंधन के तहत बीजेपी और शिव सेना ने मिलकर चुनाव लड़ा, जिसमें बीजेपी को 105 सीटें और शिव सेना को 54 सीटें हासिल हुईं।
ज़ाहिर है, किसी भी लोकतान्त्रिक व्यवस्था में जिस दल के पास अन्य दलों के मुकाबले दुगुनी सीटें होती हैं, मुख्यमंत्री भी उसी पार्टी का बनता है लेकिन महाराष्ट्र में कुछ उल्टा ही देखने को मिला, जहाँ बीजेपी से आधी सीटें पाकर भी शिव सेना ने जिद शुरू कर दी कि मुख्यमंत्री उसकी ही पार्टी का बनेगा, भले ही उसकी सीटें कम क्यों न हों?
भला किसी भी लोकतान्त्रिक व्यवस्था में ऐसा हुआ है कभी? शायद नहीं। और जब चुनाव से पूर्व बीजेपी और शिव सेना जनता के पास वोट मांगने साथ साथ ही गए थे, तब भाजपा की तरफ से यह बार-बार स्पष्ट किया गया था कि सीएम देवेन्द्र फडणवीस होंगे और तब शिवसेना ने इसपर कोई आपत्ति नहीं जताई थी। इसलिए जनता के बीच भी किसी तरह के असमंजस की गुंजाईश नहीं थी। मगर चुनाव बाद शिवसेना ने रंग बदल लिया और अपना सीएम बनाने की मांग पर अड़ गयी।
बाल ठाकरे के समय से लेकर हाल के कुछ वर्षों तक बीजेपी और शिव सेना साथ साथ चुनाव लड़ती आ रही हैं। दरअसल बीजेपी अध्यक्ष और शिव सेना मुखिया उद्धव ठाकरे के बीच दिवाली के पहले कई दौर की बात हुयी, लेकिन शिव सेना का मुख्यमंत्री होगा, ये मांग परिणाम आने के बाद अचानक जाने कहाँ से आ गई.
जब बीजेपी और शिव सेना की सरकार नहीं बनी तो प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लगाया गया। उसके बाद प्रदेश में ऐसी स्थिति पैदा हुई कि जहाँ बीजेपी ने एनसीपी के अजित पवार के साथ मिलकर सरकार बनाने का भी फैसला किया। भाजपा सबसे बड़ी पार्टी है, अतः सरकार बनाने के लिए प्रयास करना उसका कर्तव्य था, सो उसने किया जिसमें कुछ भी गलत नहीं है।
यहाँ सोचना तो कांग्रेस और शिव सेना को होगा, जो वैचारिक रूप से दो ध्रुव रहे हैं और अब सत्ता के लिए गलबहियां कर रहे हैं। वही बाला साहब की शिव सेना, जिसका आधार ही उग्र राष्ट्रवाद है, आज उस कांग्रेस के साथ गठबंधन में है जिसका बालासाहेब जीवन भर विरोध करते रहे। अतः सोचना तो शिवसेना और उद्धव को चाहिए।
सोचना तो कांग्रेस को भी चाहिए जो छद्म सेक्युलरवाद का नारा देकर अब तक अल्पसंख्यकों को गुमराह करती रही। अभी तक बीजेपी इसी छद्म सेकुलरवाद के खिलाफ खड़ी थी, आज कांग्रेस ने खुद ही बता दिया कि उसका असली चेहरा क्या है।
आपने संत कबीर साहब की एक कविता आपने सुनी होगी, “भला हुआ मेरी मटकी फूटी, मैं पनिया भरन से छूटी रे” दरअसल यह कांग्रेस के सन्दर्भ में सत्य है। कांग्रेस ने खुद ही बता दिया कि वो आज कहाँ खड़ी है, जिस काम के लिए बीजेपी को मशक्कत करनी होती, उसे कांग्रेस ने खुद कर दिया।
याद होगा, कांग्रेस ने लोकसभा चुनाव से पहले अपना सेक्युलर चोंगा उतारकर फेंकने का कितना प्रयास किया था। गले में कंठी माला डालकर राहुल गाँधी ने गुजरात से लेकर दक्षिण के दर्जनों मंदिरों का दौरा किया। हालांकि फिर भी जनता को रिझा नहीं सके। आज इस मामले में महाराष्ट्र की जनता को भी समझने का मौका मिला कि शिवसेना हिंदुत्व के मुद्दे पर कहाँ खड़ी है, बाला साहब ठाकरे का दौर और था, आज का दौर और है।
अगर विचारधारा की बात करें तो कांग्रेस-एनसीपी और शिवसेना अलग अलग ध्रुव पर नजर आते हैं। दिल मिले न मिले लेकिन स्वार्थ के लिए तीनों साथ खड़े हैं। कह सकते हैं कि इस प्रकरण ने इन दलों, खासकर कांग्रेस और शिवसेना के असली चेहरे को सामने ला दिया है। अब इस मामले में यदि सबसे बड़ा कोई जज है तो वो जनता ही है। सच्चा कौन है, झूठा कौन है, इसका हिसाब भी देर-सबेर वही करेगी।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)