यहाँ वामपंथी सरकार के द्वारा मुस्लिम अपराधिक तत्वों को संघ कार्यकर्ताओं के विरुद्ध मिल रहा प्रश्रय तो सर्वविदित है ही, परन्तु वैचारिक आज़ादी के तथाकथित पुरोधा सेक्युलर बुद्धिजीवी, जिन्हें हर मुस्लिम या दलित पर हुई हिंसा में आरएसएस या भाजपा का हाथ दिखता है, की कलम इस तरह की घटनाओं पर खौफनाक चुप्पी साध लेती है, क्योंकि मरने वाला दलित भाजपा या आरएसएस से सम्बद्ध है। उनकी प्राथमिकता तब बदल जाती है जब हिंसा करने वाले लोग तथाकथित सेक्युलर दलों के वोट बैंक से सम्बन्ध रखते हैं। ऐसा लगता है जैसे इनकी नज़र में संघ-भाजपा के कार्यकर्ताओं की हत्या माफ़ है।
उत्तर प्रदेश के कासगंज में 26 जनवरी को तिरंगा यात्रा के दौरान विद्यार्थी परिषद के कार्यकर्ता चंदन गुप्ता की हत्या को अभी एक सप्ताह भी नहीं बीते होंगे कि अब कर्नाटक में भाजपा के एक दलित कार्यकर्ता की हत्या उसी मानसिकता ने कर दी है, जिसके लिए चंदन के हत्यारे दोषी हैं। उत्तर प्रदेश और कर्नाटक की राजनीति किसी भी मायने में साम्य नही रखती, परंतु जब एक सम्प्रदाय विशेष के सामूहिक व्यवहार और राजनैतिक आचरण की तुलना करें तो गज़ब की समानता मिलती है।
यही नहीं, चूँकि अपराधी दोनों जगह एक समुदाय विशेष से आते हैं तो उनके बचाव के लिए उन बुद्धिजीवियों एवं मीडिया घरानों के व्यवहार में भी हैरान करने वाली समानता दिख रही है। एक तरफ जहाँ ये लोग पीड़ित को ही दोषी साबित करने पे तुल जाते हैं तो वहीं दूसरी तरफ समुदाय विशेष के असामाजिक तत्वों के आपराधिक कृत्यों पर चुप्पी साधकर उनकी हिंसा को अपने तर्कों द्वारा सही साबित करने में लग जाते हैं।
अपराध करने वाले या अपराध का शिकार होने वाले दोनों के धर्म भारतीय न्याय व्यवस्था में कोई स्थान नही रखते और ना ही रखना चाहिए, परंतु सभ्य समाज का यह सिद्धान्त उन बुद्धिजीवियों की पुस्तक में है ही नहीं। अपराध, अपराध होता है और हर हत्या उतनी ही दुःखद होती है, मगर इसमें वर्गीकरण करने वाले बुद्धिजीवी विचारशून्य और भावशून्य ही कहे जा सकते हैं। उनकी यह संवेदनहीनता अनायास नहीं है, बल्कि यह एक वृहद स्तर पर रची जा रही सोची समझी बौद्धिक साज़िश है।
याद कीजिये, इखलाक हत्याकांड को, कितनी छटपटाहट थी! इन बुद्धिजीवियों ने ऐसा माहौल बनाना शुरू कर दिया कि जैसे यह एक वर्ग विशेष की वर्ग विशेष के खिलाफ हिंसा है और पूरे देश के मुसलमान असुरक्षित हैं। इस हिंसा के दर्द को हम आज भी यदा-कदा इन महान बुद्धिजीवियों के आलेखों में महसूस कर सकते हैं। ठीक है, किसी भी हत्या की जितनी भर्त्सना की जाय वो कम है, लेकिन सवाल ये है कि इनके वो भाव, वो विचार, वो कष्ट कहाँ खो जाते हैं, जब चंदन गुप्ता का पार्थिव शरीर उसके लाचार पिता की आँखों के सामने आता है।
ऊना में कुछ दलितों के साथ हुई मार पीट की दुर्भाग्यपूर्ण घटना में कुछ पत्रकार और महान बुद्धिजीवियों ने चेहरा देखकर अपराधियों की जाति पता कर ली थी। वही लोग बेंगलोर में गत 31 जनवरी की देर रात भाजपा के दलित कार्यकर्ता संतोष की पेंचकस और चाकुओं से गोद कर की गयी हत्या के हत्यारों का अभी तक ना तो धर्म पता कर पाए हैं और न ही संतोष की जाति। उनके लिए तो जैसे ये हत्या हुई ही नहीँ है।
उससे भी शर्मनाक ये कि जब ये पता चल चुका है कि हत्यारा वसीम सत्तारुढ़ कांग्रेस के एक बड़े नेता का पुत्र है तो राज्य के गृह मंत्री का यह बयान देना शर्मनाक ही है कि बेचारे वसीम की मंशा संतोष की हत्या की नहीं थी। जैसे कि वो तो केवल चाकुओं और पेंचकस से संतोष को भाजपा के झंडे लगाने के जुर्म में हल्का फुल्का जख्म देकर अपनी अभिव्यक्ति की आजादी और विरोध प्रकट कर रहा था ! इसका अर्थ ये हुआ कि हल्के-फुल्के जख्म से संतोष की जान चली गयी तो यह वसीम की गलती नहीं, बल्कि संतोष की ही कमजोरी थी।
ऊना वाले बुद्धिजीवी एवं दलित मुस्लिम एका की राजनीति करने वाले विचारक भी खामोश हैं। और तो और, हाथी और अपनी मूर्ति बनाकर बाबा साहेब के नाम पर दलित राजनीति करने वाले राजनैतिक पुरोधा भी खामोश हैं। दलितों के साथ हल्की सी मारपीट होने पर अखबारों के पन्नों को रंग देने वाले बुद्धिजीवी आज इसलिए खामोश हैं, क्योंकि यहाँ किसी दलित की हत्या किसी हिन्दु ने नहीँ, बल्कि मुस्लिम समुदाय से ताल्लुक रखने वाले एक कांग्रेसी नेता के एक पुत्र ने की है और वो भी कांग्रेसी राज में।
यहाँ उन्हें भारतीय समाज को बाँटने वाली कहानी नहीं दिखती है। अपितु दलित मुस्लिम वोट बैंक बनाने के मसूबों पर खतरा नजर आता है। और इसलिए यह हत्या उन तथाकथित महान बुद्धिजीवियों के संज्ञान में ही नहीं आती। उनका यह प्रपंच कि भाजपा के लोग दलित-मुस्लिम विरोधी हैं धराशायी ना हो जाये तो वो इस हत्या को जैसे हत्या मानते ही नहीं हैं। इस हत्या को वो आपसी रंजिश या शराब पीकर होने वाली घटना करार दे देते हैं और साथ ही साथ संप्रदाय विशेष के अपराधी के लिए इसलिए रियायत मांग लेते हैं, क्योंकि वो अल्पसंख्यक तबके से आता है।
अभी कुछ ही दिनों पहले 19 जनवरी को केरल के कन्नूर में संघ और विद्यार्थी परिषद् के कार्यकर्त्ता श्यामप्रसाद (24) की हत्या मुस्लिम अतिवादी राजनैतिक संगठन पीएफआई ने कर दी। श्यामप्रसाद भी समाज के सबसे निचले तबके से आते थे। इनका भी दोष बस इतना ही था कि वह संघ की विचारधारा से ताल्लुक रखते थे। सरेआम मोटरसाइकिल को रोककर कार में आये पीएफआई के गुंडों ने चाकुओं से काटकर उनकी हत्या कर दी।
यहाँ वामपंथी सरकार के द्वारा मुस्लिम अपराधिक तत्वों को संघ कार्यकर्ताओं के विरुद्ध मिल रहा प्रश्रय तो सर्वविदित है ही, परन्तु वैचारिक आज़ादी के तथाकथित पुरोधा जिन्हें हर मुस्लिम या दलित पर हुई हिंसा में आरएसएस या भाजपा का हाथ दिखता है, की कलम इस तरह की घटनाओं पर खौफनाक चुप्पी साध लेती है, क्योंकि मरने वाला दलित भाजपा या आरएसएस से सम्बद्ध है। उनकी प्राथमिकता तब बदल जाती है जब हिंसा करने वाले कुछ पार्टी विशेष के वोट बैंक से सम्बन्ध रखते हैं।
इनका दलित प्रेम आजाद भारत का सबसे बड़ा छलावा है, जिसका एकमेव उद्देश्य भाजपा एवं संघ के प्रति दलितों एवं कट्टर मुल्लाओं से मुक्ति चाहने वाले मुस्लिमों का बढ़ रहा रुझान रोकना तथा इन्हें दलित-मुस्लिम वोट बैंक के जाल में फांसे रखना है, जिसके शिकार कभी बंटवारे के समय बंगाल के बड़े दलित नेता और पाकिस्तान के पहले कानून मंत्री जोगेंद्र नाथ मंडल हुए थे। उन्हें बाबा साहेब की सलाह ना मानने का खामियाजा भुगतना पड़ा और कुछ ही महीनों बाद पलायन करके भारत वापस आना पड़ा था।
कासगंज की घटना और उसके बाद कुछ मिडिया घरानों की रिपोर्टिंग भी इसी सुनियोजित बौद्धिक साजिश की और इशारा कर रहे हैं। गोलीबारी और दो कार्यकर्ताओं की हत्या को यह कहकर नज़रंदाज़ किया जाने लगा कि 26 जनवरी को निकाली जा रही तिरंगा यात्रा ही गैरकानूनी थी। क्या अब वो ये कहना चाह रहे हैं कि भारत में 26 जनवरी या 15 अगस्त को भी तिरंगा लेकर चलना गैरकानूनी है और अगर 15-20 मोटर साइकिल तिरंगा लेकर मुस्लिम मोहल्ले से होकर जाने वाली किसी आम सड़क से गुजरती है, तो वहाँ के अपराधी को उनपर गोली चलाने का अधिकार मिल जाता है। और तो और, चन्दन गुप्ता के पिता को चुप रहने की धमकी भी मिलने लगी है और इतनी हिम्मत इन असामाजिक तत्वों को कहीं न कहीं इन बौद्धिक प्रपंचियों के परोक्ष समर्थन से ही मिल रही है।
क्या अभिव्यक्ति की आजादी अब इस देश में केवल ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे’ और ‘इंडियन आर्मी गो बैक’ गैंग को ही है। राष्ट्रवादियों और जिन्हें हिन्द और तिरंगे पर नाज़ है, क्या उन्हें 26 जनवरी को भी भारत की शान में नारे बुलंद करने का हक नहीं है। वो तो भला हो यूपी पुलिस का जिसने त्वरित कारवाई करते हुए अपराधियों को पकड़ लिया, वरना इन बुद्धिजीवी पत्रकारों के गिरोह ने तो अपराधियों के धर्म को देखकर ही उन्हें क्लीन चिट दे दिया था। साथ ही साथ, समाज में वैमनस्य का वातावरण तैयार हो, इसकी तैयारी भी कर दी थी।
कम से कम कलम के मुसाफिरों को तो इस चीज़ का ध्यान रखना ही होगा कि उनकी कलम सच लिखे ना कि किसी के राजनैतिक मंसूबों को सफल बनाने के लिए समाज में गलत धारणाओं का निर्माण करे या फिर सच्चाई को छुपाने का प्रयास करे। भाजपा एवं संघ परिवार के सामान्य कार्यकर्ताओं की लगातार हो रही हत्या के विरुद्ध भी उसी आक्रोश का प्रकटीकरण होना चाहिए जैसा की इखलाक या गौरी लंकेश की हत्या के विरुद्ध होता है।
(लेखक नेशनलिस्टऑनलाइन में कॉपी एडिटर हैं तथा उच्चतम न्यायालय में वकालत के पेशे से जुड़े हैं।)