गलती से गलत बात बोल देना भी उतना गलत नहीं होता, जितना कि गलत बात को न्यायोचित ठहराते हुए गलती पर अड़े रहना। राहुल गांधी इस दूसरी वाली अवस्था में हैं। जनाधार के साथ ही इस पार्टी की वैचारिकता और भाषाई संस्कार भी खो गए हैं। इसमें कोई शक नहीं है कि उन्होंने ‘रेप इन इंडिया’ के रूप में एक सतही और ओछी बात कही है, जिस पर उन्हें बिना अहंकार को बीच में लाए साफ मन से माफी मांग लेनी चाहिये, अन्यथा जनता जर्नादन तो अंतिम निर्णायक है ही।
लंबे समय बाद ही सही लेकिन आखिर कांग्रेस नेता राहुल गांधी फिर से चर्चाओं में आ गए हैं। जैसा कि उनसे अपेक्षा की जा सकती है कि वे कुछ अनर्गल ही बोलेंगे, उन्होंने वैसा ही किया। बात अगर केवल सरकारों के बीच आपसी आरोप-प्रत्यारोप की या नीतियों की लड़ाई की होती तो इसे समझा जा सकता था लेकिन इस बार तो राहुल गांधी ने एक बेहद संवेदनशील विषय के साथ खिलवाड़ कर दिया। उन्होंने बलात्कार जैसे जघन्य अपराध को लेकर अपनी अधकचरी समझ का प्रदर्शन कर दिया।
झारखंड की एक सभा में उन्होंने कल दुष्कर्म की बढ़ती घटनाओं के लिए केंद्र सरकार पर निशाना साधते हुए कहा कि आज ‘मेक इन इंडिया’ नहीं, ‘रेप इन इंडिया’ की स्थिति है। उनके इस विवादित बयान पर लोकसभा में पूरे दिन हंगामा होता रहा। भाजपा ने उनकी इस टिप्पणी को आड़े हाथों लिया और उनकी जमकर खबर ली।
केंद्रीय रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने उनकी भर्त्सना करते हुए यहां तक कहा कि राहुल गांधी जैसा व्यक्ति नैतिक आधार पर संसद में ही नहीं होना चाहिये। वर्ष 2014 में जब केंद्र में मोदी सरकार आई तब उसके बाद देश में स्वदेशी निर्माण को बढ़ावा देने व यहां निवेश को गति देने के ध्येय से सरकार ने मेक इन इंडिया का नारा दिया था। इसका मकसद यह था कि देश में पूरे विश्व से कंपनियां आएं और यहां आकर निवेश करें। निर्माण करें। यहां की अर्थव्यवस्था को पंख लगे। यह एक सकारात्मक नीति है जिसका लाभ भी देश को मिल रहा।
लेकिन राहुल गांधी ने इस नारे पर अपनी घटिया तुकबंदी करते हुए कह डाला कि देश रेप इन इंडिया हो गया है। आखिर वे कहना क्या चाहते हैं। गौर करें तो उनका यह बयान न केवल स्त्री-विरोधी बल्कि व्यापक अर्थों में देशविरोधी भी लगता है। केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी ने भी लोकसभा में पुरजोर ढंग से उनके इस जुमले की व्याख्या करते हुए कहा कि यह तो किसी वारदात को आमंत्रण देने जैसा लगता है। राष्ट्रीय महिला आयोग ने भी इस बकवास बयान पर संज्ञान लेते हुए राहुल गांधी को फटकार लगाई है।
आयोग ने पूछा है कि क्या राहुल गांधी को इस बात का अहसास है कि दुष्कर्म क्या होता है। उन्हें इस पीड़ा का भान है। दुष्कर्म शब्द का उपयोग इतना आसान कैसे हो गया है। यदि वे दुष्कर्म की घटनाओं को भाजपा सरकार से जोड़कर देख रहे हैं और इस पर राजनीति करना चाह रहे हैं तो वे इसपर क्या कहेंगे कि दुष्कर्म की सर्वाधिक घटनाओं में दो कांग्रेस शासित प्रदेश ही हैं।
बयान दिया सो दिया लेकिन राहुल गांधी का अड़ियल और बेशर्म रवैया तो देखिये, उन्होंने अपने इस बयान के लिए माफी मांगने से भी साफ इंकार कर दिया। इसे पूरे मामले में दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि राहुल गांधी अपनी राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता के चलते संवेदनशील विषय पर भी आक्षेप करने से बाज नहीं आए।
खेदजनक बात यह भी रही कि द्रमुक की सांसद कनिमोझी ने उनकी निंदा करने की बजाय उनका ही बचाव किया। यह मामला ठंडा नहीं हुआ था कि आज शनिवार को राहुल गांधी ने फिर एक और गलतबयानी की। उन्होंने बयान के लिए माफ़ी न मांगने के संदर्भ में कहा कि मेरा नाम राहुल सावरकर नहीं, राहुल गांधी है इसलिए मैं माफ़ी नहीं मांगूंगा। एक बेहद शर्मनाक बयान के लिए माफ़ी न मांगने को अपनी महानता के रूप में प्रस्तुत करने का यह उदाहरण राजनीति में बिरला ही है। जहां तक सावरकर के जिक्र की बात है तो उसका जवाब तो महाराष्ट्र में कांग्रेस की सहयोगी शिवसेना ने ही दे दिया है।
लोकसभा चुनाव में नफरत की राजनीति का हथकंडा आजमाने के बावजूद राहुल गांधी को करारी हार मिली तो लंबे समय के लिए वे नेपथ्य में चले गए। राहुल के पास खुद का कोई जनाधार तो कभी था भी नहीं, लेकिन लगता है अब वे पार्टी का बचा खुचा वैचारिक आधार भी गंवा देने की कगार पर आ गए हैं। यदि ऐसा नहीं होता तो उनकी बौखलाहट और झल्लाहट उनके बयानों में इस शर्मनाक ढंग से प्रकट नहीं होती।
गलती से गलत बात बोल देना भी उतना गलत नहीं होता, जितना कि गलत बात को न्यायोचित ठहराते हुए गलती पर अड़े रहना। राहुल गांधी इस दूसरी वाली अवस्था में हैं। जनाधार के साथ ही इस पार्टी की वैचारिकता और भाषाई संस्कार भी खो गए हैं। इसमें कोई शक नहीं है कि उन्होंने एक सतही और ओछी बात कही है, जिस पर उन्हें बिना अहंकार को बीच में लाए साफ मन से माफी मांग लेनी चाहिये, अन्यथा जनता जर्नादन तो अंतिम निर्णायक है ही।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)