इस पूरे मामले में सबसे निराशाजनक रवैया बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का रहा है। राज्य में शांति भंग हो जाए और खूनखराबा बढ़ जाए तो ऐसे में सबसे पहली प्राथमिकता शांति स्थापित करने की होना चाहिये। यह बहुत ही प्राथमिक बात है, लेकिन अफसोस है कि ममता बनर्जी ने इस दिशा में कोई प्रयास नहीं किए। ऐसे संवेदनशील समय में भी वे राजनीति करने से बाज नहीं आईं। उधर, बंगाल में सैकड़ों बेगुनाहों के सिर से छत छिन गई और इधर ममता दिल्ली में आकर लोकसभा चुनाव के समीकरण साधने के लिए भेंटवार्ता करने में मशगूल थीं। कहना न होगा कि मुख्यमंत्री का ये लचर रवैया रानीगंज और आसनसोल में हालात बेकाबू होने के लिए प्रमुख रूप से जिम्मेदार है।
बंगाल में इन दिनों अराजकता मची हुई है। खुलेआम हिंसा और अशांति का नंगा नाच चला और राज्य सरकार इसे नियंत्रित नहीं कर पाई। रामनवमी के जुलूस को लेकर अभी तक कई स्थानों पर हिंसक घटनाएं हो चुकी हैं। सांप्रदायिक तनाव पैदा हुआ और हमेशा की तरह निर्दोष नागरिकों को इसका खामियाजा भुगतना पड़ा। बंगाल के आसनसोल और रानीगंज में हालात इतने बिगड़ चुके हैं कि यहां लोगों को घरबार छोड़कर भागना पड़ा।
लोग मैरिज हॉल और कम्युनिटी हॉल में किसी शरणार्थी की तरह सैकड़ों की संख्या में शरण पाकर ठहरे हुए हैं। पुरुलिया, मुर्शिदाबाद और रानीगंज सहित पश्चिम बंगाल के कुछ स्थान हिंसा की चपेट में आए। यहां दो लोगों की मौत हुई एवं करीब एक दर्जन लोग घायल हुए। बंगाल में जो भी हुआ, वह निश्चित ही बहुत दुखद है, लेकिन यहां ये सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या हिंदू बहुल देश में हिंदुओं के ही पर्व पर शोभायात्रा निकालना गुनाह हो गया है ?
जब हमारे देश के संविधान में सभी धर्मों के पर्वों को मनाने की स्वतंत्रता का अधिकार दिया गया है और तमाम अल्पसंख्यक इसका भरपूर फायदा उठाते हुए अपने-अपने पर्व जोरशोर से मनाते ही आए हैं, तो ऐसे में हिंदुओं के आराध्य भगवान श्रीराम का जन्मोत्सव मनाने में आखिर किसे और क्यों अड़चन थी, यह समझ से परे है। क्या बंगाल में कानून व्यवस्था पूरी तरह से ठप हो चुकी है जो एक शोभायात्रा पर कुछ अराजक तत्व हमला कर दें और हिंसा भड़कने के बावजूद पुलिस-प्रशासन उसे रोकना तो दूर, नियंत्रित भी ना कर पाए।
इस पूरे मामले में सबसे निराशाजनक रवैया बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का रहा है। राज्य में शांति भंग हो जाए और खूनखराबा बढ़ जाए तो ऐसे में सबसे पहली प्राथमिकता शांति स्थापित करने की होना चाहिये। यह बहुत ही प्राथमिक बात है, लेकिन अफसोस है कि ममता बनर्जी ने इस दिशा में कोई प्रयास नहीं किए। ऐसे संवेदनशील समय में भी वे राजनीति करने से बाज नहीं आईं। उधर, बंगाल में सैकड़ों बेगुनाहों के सिर से छत छिन गई और इधर ममता दिल्ली में आकर लोकसभा चुनाव के समीकरण साधने के लिए भेंटवार्ता करने में मशगूल थीं। कहना न होगा कि मुख्यमंत्री का ये लचर रवैया रानीगंज और आसनसोल में हालात बेकाबू होने के लिए प्रमुख रूप से जिम्मेदार है।
यहां यह उल्लेख करना भी जरूरी होगा कि आसनसोल और रानीगंज में स्थिति पर नियंत्रण के लिए जब केंद्र सरकार ने बल भेजने की बात कही, तो ममता सरकार ने बड़ी निर्लज्जता से बल की तैनाती से इंकार कर दिया। राजनीतिक विरोध के कारण आवश्यकता होने पर भी केंद्र से सहयोग लेने से इनकार कर राज्य को संकट में डाले रहना, ममता सरकार की शर्मनाक सोच का ही परिचायक है। इसके पीछे राज्य सचिवालय ने हवाला दिया कि केंद्रीय अर्धसैनिक बल की जरूरत नहीं है, राज्य सरकार की पुलिस हालात पर काबू पा लेगी, जबकि आसनसोल में ये स्थिति है कि जनता द्वारा चुना गया सांसद स्वयं अपने क्षेत्र में दौरा नहीं कर पाया।
ममता बनर्जी की उदासीनता के बाद जब भाजपा सांसद बाबुल सुप्रियो ने आसनसोल की स्थिति का जायजा लेना तय किया तो पुलिस ने उन्हें वहां प्रवेश करने से ही रोक दिया। वहां जाने को लेकर उनकी पुलिस से हुज्जत भी हुई। बाबुल लगातार बोलते रहे कि उनकी चर्चा गृहमंत्री राजनाथ सिंह से हुई है और इसके बाद ही वे मौजूदा हालात की जानकारी लेने आए हैं, लेकिन पुलिस ने उनकी एक न सुनी और कल्याणपुर में ही रोक दिया। सांसद के अलावा पुलिस ने भाजपा की प्रदेश महिला मोर्चा की अध्यक्ष लॉकेट चटर्जी को भी रोक दिया।
अव्वल तो ममता बनर्जी ने रामनवमी के जुलूस की सुरक्षा के लिए प्रबंध नहीं करवाए। दूसरी बात, जब जुलूस पर हिंसा हुई तो उसे संभालने के लिए पुलिस की सहायता नहीं पहुंचाई गई। नतीजा ये निकला कि खूनखराबा बढ़ता गया। ममता सरकार ने ना स्वयं की ओर से पुलिस तैनात की ना केंद्र को करने दिया। इसके चलते तनाव बढ़ता गया। जब जनप्रतिनिधि स्वयं अपना दायित्व समझते हुए आगे आए तो उन्हें भी जमीनी स्थिति देखने से रोक दिया गया। यह सब तानाशाही नहीं तो क्या है।
दरअसल ममता बनर्जी मुस्लिम तुष्टिकरण की राजनीति में इस कदर जुटी हुईं हैं कि अपने ही राज्य की जनता का खून भी बहाना पड़े तो उससे भी गुरेज नहीं कर रहीं। लाशों के ढेर पर बैठकर राजनीति की जा रही है। यह पहला अवसर नहीं है, जब ममता ने हालात बिगाड़े हों, इससे पहले भी वे अक्सर बंगाल को दंगों की आग में झोंकती रही हैं तथा हमेशा से अपने हिंदू विरोधी विचारों के चलते विवादों में भी रहीं हैं। पिछले साल ही उन्होंने बंगाल में दुर्गा प्रतिमा विसर्जन को लेकर तारीख बदलने की बात कही थी जिससे काफी तनाव बढ़ा था।
अब बंगाल में उपजे अप्रिय हालातों पर केंद्रीय मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने कहा भी कि राज्य की सुरक्षा करना किसी भी मुख्यमंत्री का पहला कर्तव्य है। मगर, ममता इस कठिन समय में भी मुख्यालय छोड़कर दिल्ली में राजनीति कर रही हैं। हालांकि अब सुनने में आ रहा है कि ममता ने प्रशासनिक अधिकारियों की बैठक लेकर आसनसोल और रानीगंज में पुलिस को हिंसा रोकने को कहा है, लेकिन अबतक जो तबाही हुई है उसका क्या ? मुख्यमंत्री की गैर मौजूदगी में राज्य के कई हिस्सों में हिंसक वारदातें हो चुकी हैं, यदि समय रहते ममता ने परिपक्वता दिखाई होती और दायित्व का निर्वहन किया होता तो आज रानीगंज व आसनसोल में सैकड़ों हिन्चुओं को घर छोड़कर मारे-मारे नहीं फिरना पड़ता।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)