1984 के सिख विरोधी दंगों के मामले में पहली बार अदालत ने एक दोषी को मौत और दूसरे को उम्रकैद की सजा सुनाई है। जिन दोषियों को अदालत ने सजा सुनाई है उनकी फाइल को कांग्रेसी सरकार ने 1994 में ही बंद करा दिया था। भला हो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का जिन्होंने 2015 में सिख विरोधी दंगों के मामले में एसआईटी गठित कर दोषियों को फांसी के फंदे तक पहुंचाने का उपाय किया।
कहा जाता है कि देर से मिला न्याय अन्याय के बराबर होता हे। दुर्भाग्यवश हिंदुस्तान में यह कहावत अक्सर चरितार्थ होती रही है। सबसे बड़ी विडंबना यह रही कि जिन सरकारों पर दोषियों को सजा दिलवाने का दायित्व था, वे सरकारें ही दोषियों को बचाने की जी तोड़ कोशिश करती रहीं।
इतना ही नहीं कांग्रेसी सरकारों ने दंगों को इस ढंग से प्रचारित किया कि उन्हें रहनुमा मान लिया जाए और हुआ भी वही। दंगों की राजनीति करके कांग्रेस सत्ता हासिल करती रही। कांग्रेस की इस कुटिल चाल में राज्य नियंत्रित मीडिया का अहम योगदान रहा जिसने कांग्रेसी छल-कपट को राजा हरिश्चंद्र की वाणी बताकर प्रचारित-प्रसारित किया।
खूनी पंजे का ही कमाल है कि इंदिरा गांधी की हत्या के बाद राज्य प्रायोजित दंगे में दिनदहाड़े हजारों बेगुनाह सिखों को गाजर-मूली की तरह काट डाला गया। सबसे बड़ी बात यह रही कि उस समय अर्श से लेकर फर्श तक कांग्रेसी सरकारों का बोलबाला था इसलिए दंगों की भेंट चढ़ने वालों की असली संख्या का आज तक पता नहीं चल पाया है। यही कारण है कि कुछ लोग दस हजार सिखों के कत्लेआम की बात करते हैं तो कुछ लोग पंद्रह हजार। कई मामलों में तो पूरा का पूरा परिवार खूनी पंजे की भेंट चढ़ गया जिससे गवाही देने वाले बचे ही नहीं।
कांग्रेस का खूनी पंजा इतने पर ही नहीं थमा। कई ऐसे मामले रहे जहां हजारों लोगों की मौजूदगी में बेगुनाहों का कत्ल किया गया फिर भी किसी को सजा नहीं मिली क्योंकि दोषी कांग्रेसी कार्यकर्ता थे। कुछ मामले ऐसे भी रहे जहां दोषियों को सजा मिली तो उन्हें छुड़ाने में कांग्रेसी सरकारों ने एड़ी-चोटी को जोर लगा दिया।
यहां पूर्वी दिल्ली के त्रिलोकपुरी का उदाहरण प्रासंगिक है जिसमें एक बाप (मंशा सिंह) के सामने उसके तीन बेटों का कत्ल कर दिया गया था। इस मामले में मुख्य अभियुक्त कांग्रेसी कार्यकर्ता किशोरी लाल था। अपने कातिल कार्यकर्ता को अच्छे आचरण के बल पर छुड़ाने की नाकाम कोशिश दिल्ली की तत्कालीन मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने 2012 में की थी। लेकिन सिखों के भारी विरोध के चलते तत्कालीन उपराज्यपाल तेजेंद्र खन्ना ने इसकी अनुमति नहीं दी।
यदि कांग्रेस के खूनी पंजे का कमाल देखा जाए तो 84 का सिख दंगा बहुत छोटा उदाहरण लगेगा। देश विभाजन के भीषणतम कत्लेआम को छोड़ दिया जाए तो भी हैदराबाद, अहमदाबाद, भागलपुर, हाशिमपुरा, मलियाना, मुंबई जैसे सैकड़ों उदाहरण मिल जाएंगे जहां कांग्रेस के खूनी पंजे ने सत्ता के लिए सुनियोजित तरीके से दंगा कराया और फिर उसी दंगे की ओट में सत्ता की चाबी हासिल की।
देश में ऐसे हजारों किशोरी लाल हैं जिनके सहारे कांग्रेस ने अपनी राजनीति रोटी सेंकी और बाद में उन्हें सत्ता की मलाई में हिस्सेदारी दी। भागलपुर, हाशिमपुर, मलियाना जैसे कांग्रेस प्रायोजित सैकड़ों दंगों में पीड़ित मुसलमानों के पक्ष में आवाज नहीं उठाई क्योंकि ये दंगे कांग्रेसी सरकारों ने सत्ता हासिल करने के लिए कराए थे। इसीलिए कांग्रेस इन दंगों के दोषियों को सजा दिलाने की बात भूल गई।
कांग्रेस को याद रहा तो केवल गुजरात का दंगा, वह भी 2002 का गुजरात का दंगा। 2002 के पहले गुजरात में जितने भी दंगे हुए वे सभी कांग्रेसी सरकारों के कार्यकाल में हुए थे, इसलिए वह इन दंगों और इनके कातिलों को भूल गई। स्पष्ट है, कांग्रेस का खूनी पंजा हजारों-लाखों बेगुनाहों के खून से सना है। चूंकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी विकास की राजनीति कर रहे हैं, इसलिए कांग्रेस की दंगों की राजनीति का सूर्यास्त होता जा रहा है। कांग्रेस की छटपटाहट की बड़ी वजह यही है।
(लेखक केन्द्रीय सचिवालय में अधिकारी हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)