निश्चित ही बलात्कार एक बहुत जघन्य अपराध है, लेकिन इतने संवेदनशील मामले का भी राजनीतिकरण कर दिया जाए तो इससे अधिक शर्म की बात और क्या होगी। एक तरफ मासूम पीड़िता का सवाल है, तो दूसरी ओर लाश पर राजनीति की रोटी सेंकते तथाकथित सेकुलर बिरादरी और विपक्ष खड़े हैं। कठुआ की घटना पर मीडिया सहित तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग आश्चर्यजनक और नाटकीय रूप से आक्रोशित हैं, लेकिन बिहार की मासूम बच्ची के साथ मेराज आलम ने वही हैवानियत भरा कृत्य किया तो उस पर सबने मौन व्रत धारण कर लिया है। असम और सासाराम की बेटियों के लिए भी इन कुंद बुद्धिजीवियों ने अभी तक कोई कैंडल मार्च क्यों नहीं निकाला। ऐसा इसलिए कि इन सब मामलों में आरोपी मुसलमान हैं। बलात्कार जैसे संवेदनशील मामले में ऐसे दोहरेपन का प्रदर्शन करने की हिम्मत जाने कहाँ से आ जाती है इन तथाकथित सेकुलर खेमों में।
देश में इन दिनों कठुआ नाम छाया हुआ है। जम्मू संभाग के कठुआ के एक गांव में 8 वर्षीय बच्ची से दुष्कर्म एवं हत्या की खबर सामने आई और उसके मामला तूल पकड़ गया। यहां गौर करने योग्य बात यह है कि बच्ची नाम असिफा है, इसलिए विरोध और आक्रोश जताने के खेल में बॉलीवुड, बुद्धिजीवी, सेकुलर आदि गिरोह पूरी तैयारी के साथ मैदान में उतर गए हैं। बहुत हैरत की बात है कि जिस समय कठुआ की खबर सामने आई, उसी समय उत्तरप्रदेश के उन्नाव में भी बलात्कार की एक महीनों पुरानी घटना को चर्चा में लाया गया। खैर, इस केस में सीबीआई की भूमिका तुरंत शुरू हो गई और कोर्ट पेशी के बाद आरोपी सीबीआई की हिरासत में है।
उन्नाव की घटना को लेकर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव जल्दबाजी दिखाते हुए बयानबाजी पर उतर आए और बोले कि इस घटना के लिए सरकार दोषी है। इतनी बचकानी बात बोलने से पहले वे शायद भूल गए होंगे कि उनके शासन में सपा मंत्री गायत्री प्रजापति पर दुष्कर्म का आरोप था और लंबे समय तक गायत्री खुलेआम शान से घूमते रहे। उनकी धरपकड़ तो दूर, उन पर आरोप लगाना भी किसी ने उचित नहीं समझा था। योगी के मुख्यमंत्री बनने के कुछ समय बाद ही गायत्री प्रजापति को गिरफ्तार कर लिया गया। इससे तो यही साबित होता है कि अखिलेश सरकार आरोपी मंत्री को प्रश्रय देने में लगी थी।
जहां तक उन्नाव मामले की बात है, कोर्ट ही इसका निर्णय करेगी कि क्या सत्य और क्या झूठ है, लेकिन यदि योगी की भूमिका देखी जाए तो उन्होंने अपनी पार्टी के ही विधायक को गिरफ्तार करवाकर निष्पक्ष न्याय की मिसाल पेश की है। दूसरी तरफ नजर डालें तो जिस समय कठुआ कांड की बातें पूरे देश में, प्रचार माध्यमों में, सोशल मीडिया पर बढ़ा-चढ़ाकर अतिरेकपूर्ण ढंग से सामने लाईं जा रही हैं, उसी दौर में बिहार के सासाराम और असम में हिंदू कन्याओं के साथ हुए दुष्कर्म एवं हत्या का जिक्र तक गौण हो गया है।
निश्चित ही बलात्कार एक बहुत जघन्य अपराध है, लेकिन इतने संवेदनशील मामले का भी राजनीतिकरण कर दिया जाए तो इससे अधिक शर्म की बात और क्या होगी। एक तरफ मासूम पीड़िता का सवाल है, तो दूसरी ओर लाश पर राजनीति की रोटी सेंकते तथाकथित सेकुलर बिरादरी और विपक्ष खड़े हैं।
कठुआ की घटना पर मीडिया सहित तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग आश्चर्यजनक और नाटकीय रूप से आक्रोशित हैं, लेकिन बिहार की मासूम बच्ची के साथ मेराज आलम ने वही हैवानियत भरा कृत्य किया तो उस पर सबने मौन व्रत धारण कर लिया है। असम और सासाराम की बेटियों के लिए भी कांग्रेस और इन कुंद बुद्धिजीवियों ने अभी तक कोई कैंडल मार्च क्यों नहीं निकाला। ऐसा इसलिए कि इन सब मामलों में आरोपी मुसलमान हैं।
ऐसा पहली बार नहीं हो रहा, सेकुलर बिरादरी का इतिहास में भी यही रवैया रहा है। कोई ढाई दशक पहले अजमेर में सौ से अधिक हिंदू कन्याओं को ब्लैकमेल कर महीनों तक दुष्कर्म का शिकार बनाया गया। तब कांग्रेस की सरकार थी, इसलिए मामले में पूरी-पूरी ढीलमपोल बरती गई। दबाव बढ़ने पर मुश्किल से औपचारिक केस दर्ज किया गया। उसके बाद वही हुआ जो कांग्रेस कर सकती थी। आरोपी बरी हो गई। इस नृशंस वारदात में शामिल आरोपी अजमेर की दरगाह के बंदे थे। हिंदू महिलाओं की अस्मत पर हाथ डालने वाले ये खुदा के बंदे आज समाज में शान से घूम रहे हैं। ताज्जुब है कि कठुआ के बारे में एक बात चली और उसे सच मान लिया गया। निश्चित ही कठुआ का असली सच जनता के सामने देर सबेर आएगा ही।
जहां तक कठुआ की बात है, यह मामला जनवरी का है और अप्रैल में सुर्खियों में आया है। एक सीधा सा सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या बच्ची से दुष्कर्म जैसी घटना जनवरी में गंभीर नहीं थी जो इसे चार महीने बाद सुनियोजित तरीके से अब उछाला जा रहा है। यदि यह बड़ी घटना है, तो इसे चार महीने पहले ही सामने क्यों नहीं लाया गया ? इसे अब मार्केट इसलिए किया जा रहा है क्योंकि पीडि़ता का नाम असिफा है।
निश्चित ही दुष्कर्म एक संगीन अपराध है और इसके दोषियों को कड़ी से कड़ी सज़ा मिलना चाहिये, लेकिन क्या कांग्रेस सहित पूरी सेकुलर बिरादरी को हिंदू कन्याओं से दुष्कर्म की घटनाएं दिखाई-सुनाई नहीं देतीं। तब ये लोग जुबानी लकवे का शिकार क्यों हो जाते हैं। यदि इनकी लड़ाई जुर्म के ही खिलाफ है, तो हिंदू कन्याओं की अस्मत लूटने वाले मुस्लिमों को लेकर इनकी बोलती क्यों बंद हो जाती है। यह दोहरा चरित्र आखिर क्यों है। क्या हिंदू कन्याओं का कोई वजूद ही नहीं है, उनकी अस्मिता का कोई मूल्य नहीं है। आसिफा यदि मुस्लिम नहीं होती तो क्या राहुल गांधी, सेकुलर बिरदारी और मीडिया इतने ही पुरजोर ढंग से मामले को उछालते। कैंडल मार्च निकालते और तख्तियां टांगकर सुनियोजित फोटो सेशन कराते।
राहुल ने कठुआ मामले पर इंडिया गेट पर कैंडल मार्च निकाला था। केंद्रीय मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने तल्ख सवाल पूछा है कि कांग्रेस की सरकार के समय हुए दिल्ली गैंगरेप के समय राहुल कहां चले गए थे। क्या वह एक युवती की अस्मत का प्रश्न नहीं था। तब राहुल चुप क्यों थे और अब वे मुखर क्यों हो रहे हैं। निर्भया कांड के समय राहुल ने कोई कैंडल मार्च नहीं निकाला, हरियाणा में कांग्रेस शासन में महिलाओं से ज्यादती हुई तब राहुल कहां थे।
दिल्ली महिला आयोग की अध्यक्ष स्वाति मालीवाल अनशन करके विरोध जता रहीं और राशन कार्ड काण्ड करने वाली पार्टी के संयोजक केजरीवाल उनका समर्थन कर रहे हैं। स्वाति को सबसे पहले केजरीवाल सरकार के खिलाफ महिला अस्मिता के प्रश्न पर खड़ा होना चाहिए। कुल मिलाकर बात यही है कि कठुआ और उन्नाव के प्रकरणों पर कांग्रेस सहित सभी विपक्षी दलों और तथाकथित सेकुलर खेमों द्वारा जमकर राजनीति की जा रही है। लंबे समय से मुद्दाविहीन कांग्रेस बलात्कार को मुद्दा बनाकर शर्मनाक राजनीति कर रही है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)