आर्क विशप का बयान दुनिया मे चर्चित होगा। यह भारत की छवि बिगाड़ने का प्रयास हो सकता है। ऐसे बयानों की जांच होनी चाहिए। यह पता करने की आवश्यकता है कि यह बयान उन्होंने अपनी मर्जी से दिया या इसके तार कही अन्य जगह से जुड़े थे।
विपक्षी एकता के बीच आर्क विशप अनिल के बयान को संयोग मात्र ही कहा जा सकता है। लेकिन, सन्दर्भ और मकसद की समानता शक पैदा करती है। उन्होंने जाने-अनजाने विवाद का मौका दिया है। कहा जा रहा है कि भाजपा को अब विपक्ष के साथ चर्च के विरोध का भी सामना करना पड़ेगा। इस कयास को ममता बनर्जी और कई अन्य नेताओं के बयान से बल मिला। उन्होंने आगे बढ़ कर आर्क विशप के बयान का समर्थन किया। इस तरह बयान के स्तर पर ही सही, इनके बीच समानता नजर आती है।
बयान का समय भी सन्देह उत्पन्न करता है। कर्नाटक में कांग्रेस-जेडीएस ने अवसरवादी गठबन्धन करके सबसे बड़ी पार्टी भाजपा को सरकार बनाने से रोक दिया। इस घटना से विपक्ष की पार्टियां एकजुट होकर भाजपा के मुकाबले का मंसूबा बनाने लगी हैं। आर्क विशप का बयान भी इसी दरम्यान सामने आया है।
भारत के संवैधानिक तंत्र में सभी को अभिव्यक्ति की आजादी प्राप्त है। लेकिन, इसमें समाज और राष्ट्र के व्यापक हित को ध्यान में अवश्य रखना चाहिए। खासतौर पर विभिन्न क्षेत्र के विशिष्ट लोगों की जिम्मेदारी अधिक होती है। लेकिन, एक आर्क विशप ने इस मर्यादा का पालन नहीं किया है।
राजनीत में सक्रिय किसी व्यक्ति ने ऐसा बयान दिया होता, तो शायद यह भी विवादित बयानों में खप जाता। लेकिन, आर्क विशप महत्वपूर्ण मजहबी रहनुमा होते हैं। उन्होंने राजनीति में मजहबी नफरत को बढ़ाने वाला बयान दिया है। इसमें ईसाई समुदाय से आगामी लोकसभा चुनाव में भाजपा सरकार को उखाड़ फेंकने का आह्वान किया गया। इसके लिए चर्च में सामूहिक प्रार्थना सभा का आयोजन करने की बात कही गयी है। आर्क विशप यहीं तक सीमित नहीं रहे। उन्होंने संविधान और धर्मनिरपेक्षता का भी उल्लेख किया। इन्हें खतरे में बताया। यह शब्दावली भी विपक्ष के आरोपो से समानता रखती है।
ऐसा भी नहीं कि संविधान, लोकतंत्र आदि को खतरे में बताना अभी शुरू हुआ है। यह सियासत नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनते ही शुरू हो गई थी। वह लोकप्रियता में सबको पीछे छोड़ कर प्रधानमंत्री बने थे। लेकिन, कई लोग उनको सहज रूप में स्वीकार करने को तैयार नहीं थे। विरोध अपनी जगह है। इस पर आपत्ति नहीं हो सकती। लेकिन, पूर्वाग्रह और कुंठा का प्रजातन्त्र में कोई स्थान नहीं होना चाहिए। यह जनादेश के प्रति असम्मान प्रकट करता है।
नरेंद्र मोदी का प्रधानमंत्री बनना संवैधानिक हकीकत है, उसके बाद भी उनके नेतृत्व में भाजपा लगातार सफलता प्राप्त करती रही है। पूर्वाग्रह रखने वालों को मतदाताओं ने नकारा है। अनेक पार्टियों का तो अस्तित्व ही दांव पर लग गया है। यह पूर्वाग्रह था, जो विरोधियों को सच्चाई स्वीकार करने नहीं दे रहा था। जब ये पराजित होते हैं, तो अपनी कमजोरी देखने की जगह ईवीएम को गलत बताने लग जाते हैं। जबकि वास्तव में मतदाता इनकी गलतियों की सजा देते हैं। न्यायपालिका इनके अनुकूल निर्णय न दे, तो ये महाभियोग की बात करने लगते हैं। लेकिन, समय के साथ वास्तविकता लोगों के सामने आ गई है।
लोग यह समझ गए है कि संविधान, लोकतंत्र पर कोई खतरा नहीं है। धर्मनिरपेक्षता भारत की प्रकृति में है। इसपर भी कोई खतरा नहीं है। जो इन खतरों की बात कह रहा है, वह किसी न किसी दुर्भावना से पीड़ित है। विपक्ष इस बात से पीड़ित है कि भाजपा मजबूत हो रही है।
दरअसल आर्क विशप का बयान भी बेवजह नहीं हो सकता। ऐसा कुछ अवश्य है, जिसके कारण उन्हें चुनाव में भाजपा को उखाड़ फेंकने का आह्वान करना पड़ा। ऐसी कोई अनुचित सहूलियत अवश्य होगी जो उन्हें कांग्रेस के शासन में तो प्राप्त रही होगी, लेकिन नरेंद्र मोदी के शासन में उससे वंचित होना पड़ा है। ऐसे में, धर्म परिवर्तन कराने वाली मिशनरियों और हिसाब न देने वाले विदेशी एनजीओ की ओर ध्यान जाता है। यूपीए सरकार में इन्हें अपनी गतिविधियां चलाने की पूरी छूट थी। नरेंद्र मोदी सरकार ने इनपर नकेल कसी है। अनेक विदेशी मिशनरियों को अपना बोरिया-बिस्तर समेटना पड़ा है।
विदेशी फंडिंग पर चलने वाले अनेक संदिग्ध एनजीओ बन्द किये गए। ऐसे लोगों की नरेंद्र मोदी के प्रति नफरत को समझा जा सकता है। इन तथ्यों को संविधान, लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता पर कथित खतरे के आरोपों से जोड़कर देखिये, तो तस्वीर साफ होने लगेगी। भारत मे संविधान, लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता सब कुछ सुरक्षित है। असुरक्षा की भावना गलत कार्य करने वालों में है।
मोदी के प्रधानमंत्री बनने के कुछ समय बाद ही सम्मान वापसी का अभियान शुरू हुआ था। इस अभियान ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की छवि पर प्रतिकूल प्रभाव डाला था। ऐसा बताया जा रहा था कि भारत की स्थिति पाकिस्तान, अफगानिस्तान, सीरिया, लेबनान आदि मुल्कों की तरह हो गई है। देखते ही देखते यह अभियान समाप्त हुआ। लेकिन, नरेंद्र मोदी के प्रति राजनीतिक हमलों में कोई कमी नही हुई। उनका रूप बदलता रहा।
कोई आपराधिक घटना घटी, तो कहा जाता था कि पूरे देश मे अराजकता है। कहीं किसी दलित के उत्पीड़न का कोई मामला सामने आया, तो कहा गया कि देश मे दलितों पर हमला हो रहा है। बिसहड़ा की अप्रिय हिंसक घटना हुई, तो कहा गया कि मुल्क में मुसलमानों पर हमले हो रहे हैं। ये सभी घटनाएं बहुत निंदनीय थीं। सभी मे आवश्यक कार्रवाई भी की गई। लेकिन, इन मामलों के जरिये पूरे देश को बदनाम करने के जो प्रयास किए गए, वो गलत थे।
क्या आर्क विशप का बयान इन अभियानों से अलग दिखाई देता है। इस बयान में भी उसी प्रकार खतरे बताए जा रहे हैं। फिर भारत को बदनाम करने का प्रयास किया जा रहा है। आर्क विशप का बयान दुनिया मे चर्चित होगा। यह भारत की छवि बिगाड़ने का प्रयास हो सकता है। ऐसे बयानों की जांच होनी चाहिए। यह पता करने की आवश्यकता है कि यह बयान उन्होंने अपनी मर्जी से दिया या इसके तार कही अन्य जगह से जुड़े थे।
इसीके साथ जिन नेताओं ने इसका समर्थन किया, उन्हें भी जवाब देना चाहिए। पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी मुख्यमंत्री बन जाएं, कर्नाटक में कुमारस्वामी बन जाएं, तो धर्मनिरपेक्षता, संविधान और लोकतंत्र सब सुरक्षित हो जाते हैं। लेकिन, अगर मतदाता भाजपा को विजयी बना दे, तो इन सब पर खतरे की बात होने लगती है। यह दोहरे मापदंड नहीं चल सकते। आर्क विशप जैसे मजहबी प्रमुखों को ऐसे बयानों से बचना चाहिए।
(लेखक हिन्दू पीजी कॉलेज में एसोसिएट प्रोफेसर हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)